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राम जन्मभूमि आंदोलन के बाद दलित वोट बैंक के लिए भाजपा की रणनीति

साल 1989 में राजीव गांधी की सरकार चुनाव के माध्यम से सत्ता खो चुकी थी। जनता दल के वीपी सिंह, भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से अपनी सरकार केंद्र में बनाने में कामयाब रहें। इसके बाद जल्द ही राम जन्म भूमि आंदोलन के संदर्भ में लाल कृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को पटना में तत्कालीन बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव द्वारा रोक दिये जाने पर वीपी सिंह की सरकार से भाजपा ने अपना समर्थन वापस लेकर वीपी सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी से हटा दिया।

इसके पश्चात चन्द्रशेखर के रूप में भारत को एक और प्रधानमंत्री मिला लेकिन केंद्र सरकार का यह मिलाजुला कार्यकाल 5 साल पूरा नहीं कर सका। नतीजन, देश को एक और मध्यवर्ती चुनाव में झोंक दिया गया।

इस समय राम जन्म भूमि आंदोलन अपने शिखर पर था और इसके माध्यम से भाजपा खुद को केंद्र की सत्ता में अगली सरकार के रूप में देख रही थी लेकिन इसी चुनाव प्रचार में राजीव गांधी की हत्या एलटीटी के चरमपंथियों ने कर दी। कॉंग्रेस इस चुनाव में स्पष्ट बहुमत तो नहीं ले पाई लेकिन मिलजुली सरकार बनाने में कामयाब रही।

मेरा यह व्यक्तिगत रूप से मानना है कि अगर राजीव गांधी की हत्या ना हुई होती तो यकीनन भाजपा एक मुख्य विजयी पार्टी के रूप में ज़रूर निखर कर आती। वहीं राजीव गांधी की हत्या के पश्चात भी कॉंग्रेस खुद को बहुमत नहीं दिला पाई। इसका मुख्य कारण भी राम जन्म भूमि आंदोलन ही था। कहने का यही तात्पर्य है कि इस समय राम जन्म भूमि आंदोलन चुनाव के माध्यम से एक अहम भूमिका बांध चुका था।

वहीं पीवी नरसिंहा के रूप में कॉंग्रेस के प्रधानमंत्री की मौजूदगी भी 6 दिसंबर 1992 के दिन भाजपा द्वारा कार्य सेवकों के अयोध्या कूच को नहीं रोक पाई। इसी दिन बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया। दंगे हुए और लोग मारे गये लेकिन लोकतंत्र की रूप रेखा में सरकारी व्यवस्था के सामने इस तरह किसी धार्मिक स्थान को जबरन धवस्त करना अपने आप में हिंदू बहुताय भारत की छवि पेश कर रहा था।

अब जहां राम जन्म भूमि आंदोलन में इस दिन बाद बाबरी मस्जिद अपना अस्तित्व खो चुकी थी, अब जहां एक पक्ष को खत्म ही कर दिया गया हो, वहां दूसरा पक्ष जीत का उत्साह तो ज़रूर मना सकता है। इसके आगे उसके पास और कुछ दावा करने का पर्याप्त साधन नहीं रहता। मसलन बाबरी मस्जिद ध्वस्त होने से ही राम जन्म भूमि आंदोलन पर एक तरह से विराम लग गया था।

वही केंद्र में अब कॉंग्रेस की सरकार थी जो 1995-96 तक अपनी मौजूदगी का एहसास करवा चुकी थी। निश्चित तौर पर धारावाहिक रामायण, लव कुश और महाभारत ने जिस तरह छिपे हुए चिन्हों में ब्राह्मणवाद और मनुवाद पर अपनी मोहर लगाई थी उससे हिंदू उच्च वर्ग मसलन ब्राह्मण, वैष्णव, क्षत्रिय, इत्यादी भाजपा के पक्ष में थे, वहीं मुसलमान वर्ग राम जन्म भूमि के आंदोलन से भाजपा के विरोध में खड़ा था। अब यहां दलित वोट ही चुनाव पर भाजपा को विजयी करवा सकता था।

वहीं इसी समय पंजाब के होशियारपुर के काशीराम और दिल्ली की एक सामान्य महिला मायावती ने बहुजन समाज पार्टी की नींव रखकर दलित वोट पर अपने एकाधिकार का संदेश दे दिया था। जहां बसपा के निर्माण से कॉंग्रेस का वोट बैंक कम हो रहा था वहीं कॉंग्रेस का वोट कटने से भाजपा अपनी स्थिति मौजूद कर रही थी।

काशीराम जो कि एक सामान्य नागरिक थे अचानक से इतने बड़े नेता कैसे बन गये और उनकी जन सभाओं में दलित समुदाय बहुत बड़ी तादाद में पहुंच कर बसपा की दलित समुदाय की अगुवाई पर मोहर लगा रहा था। इसके पीछे यकीनन किसी विकसित विचारधारा या किसी राजनीतिक पार्टी की मानसिकता ज़रूर थी लेकिन यह कौन था यह एक अलग व्यक्तिगत खोज का विषय है।

मेरा मानना है कि बसपा के गठन से कॉंग्रेस से ज़्यादा भाजपा को नुकसान था क्योंकि बसपा के मंच से बसपा के नेता जात-पात और छुआछूत पर खुलकर सार्वजनिक रूप से बोल रहे थे। अब उस माहौल की गति मध्यम पड़ रही थी, जिसे आस्था के रूप में भाजपा ने राम जन्म भूमि और उसी समयकाल में प्रसारित हुए धारावाहिक रामायण, लव कुश और महाभारत से सत्ता को पाने की ज़मीन तैयार की थी। अब राम जन्मभूमि आंदोलन से जहां मुसलमान वर्ग तो भाजपा से निश्चित दूरी बना ही चुका था लेकिन दलित वर्ग को अपने साथ लाना भाजपा के लिए बहुत ज़रूरी था, अगर उसको सत्ता तक अपनी पहुंच करनी थी।

अब इसी समयकाल में बाबा संत सार्वजनिक रूप से अपने आश्रमों का प्रचार करने लगे, वहीं ऐसी बहुत सी छोटी-छोटी आस्थाएं थी जो मूलतः हिंदू धर्म से ही निकली थी और सनातन धर्म से किसी ना किसी तरह जुड़ी हुई थी। ये आस्थाएं अब सार्वजनिक रूप से जात-पात, ऊंच-नीच और छुआछूत से ऊपर खुद को प्रस्तुत करने के लिये सक्रिय हो गई थी। इसके अंतर्गत एक घटना घटी जिसने पूरे हिंदू समाज को (उसमें क्या उच्च जाति और क्या दलित) को आस्था के नाम पर हिंदू धार्मिक स्थान मंदिर जाने के लिये मजबूर कर दिया। कारण था कि हिंदू मर्यादा के अनुसार हर तरह की देवी देवताओं की मूर्ति को दूध पिलाया जा रहा था और लोगों को उस दिन विश्वास हो रहा था कि सच में हर देवी देवता की मूर्ति दूध का प्रसाद स्वीकार करके उसे पी रहे हैं।

यही प्रयोग लोगों ने घर में किया, जहां थाली में रखकर मूर्ति को दूध पिलाया गया। जहां घर में दूध थाली में जमा हो रहा था वहीं मंदिर में भी दूध नीचे गिरता हुआ देखा जा रहा था। यह खबर इतने बड़े पैमाने पर इस तरह फैल रही थी कि लोग आस्था के नाम पर मंत्रमुग्ध हो गये थे। यहां ध्यान देने की ज़रूरत है कि इस समय चुनिंदा फोन किसी-किसी घर में हुआ करते थे, जहां व्हाट्सऐप, फेसबुक किसी भी तरह से सोशल मीडिया मौजूद नहीं था। फिर भी यह खबर शहर से शहर, गांव से गांव कुछ ही पलों में फैल गई थी। किसने और कैसे किया यह व्यक्तिगत खोज का विषय है।

वही विज्ञान इसे मानने के लिये तैयार नहीं था। यह सामान्य सा कथन है कि मूर्ति मिट्टी की बनती है और मिट्टी किसी भी पेय वस्तु को खुद में कुछ हद तक समा सकती है। उस दिन दूध नालियों में बहता आम देखा जा सकता था फिर भी लोग आस्था को नमन कर रहे थे लेकिन मैं उस दिन विज्ञान का ही विद्यार्थी जो कॉलेज के पहले साल में था खुद अपने हाथों से गणेश जी की मूर्ति को मंदिर में ही दूध पिला रहा था। यकीनन यह इतना बड़ा प्रचार था कि मैं अपने सोचने की शक्ति एक तरह से खो चुका था लेकिन आज जब सोचता हूं कि वह क्या था और क्यों था और कौन कर रहा था तो कोई सटीक जवाब तो नहीं मिलता है।

ब्राह्मणवादी विचारधारा के हर पहलू को यह घटना जायज़ ठहरा रही थी। जहां यह मूर्ति पूजा को जायज़ ठहराया गया वहीं जात-पात, ऊंच-नीच छुआछूत और हिंदू आस्था को सर्वश्रेष्ठ चिन्हों के माध्यम से समझाना और फिर इसी आस्था का विस्तार करके चुनाव के बूथ तक जाकर आस्था के नाम पर अपना चुनावी मत देना, बहुत कुछ था जो इस घटना के विश्लेषण से समझा जा सकता है। अब इसी परिप्रेक्ष्य में दिल्ली में जिस बंदर ने दहशत फैलाई थी जो आज तक सामने नहीं आया कि क्या था क्यों था और कौन था लेकिन खबरों की सुर्खियां बनी, इस घटना के विश्लेषण से भी बहुत कुछ समझा जा सकता है।

इसी समय दौरान बहुत सी ऐसी आस्थाएं थी जो किसी ना किसी रूप से हिंदू धर्म और मूर्तिपूजा से जुड़ी हुई थी लेकिन यह जात-पात, ऊंच-नीच और छुआछूत से खुद को अलग दिखाने में बहुत हद तक कामयाब हो पा रही थी भी और है भी। अब इस तरह की आस्थाओं का बहुत ज़ोर से प्रचार हो रहा था और कई ऐसे बहुत सुंदर धार्मिक स्थानों का उद्घाटन हुआ जहां नज़ारा देखने को ही बनता था। जहां ये स्थान धार्मिक लहजे़ से तो बहुत सुंदर थे वहीं शहर में एक और जगह का विकास हो गया था, जहां आप अपने दूसरे शहर के मेहमानों को ले जाकर बड़े गर्व से घूमा सकते हैं। जहां साफ सफाई और प्रबंधन बहुत कुशल था, वही यहां बहुत सामान्य कीमत पर बहुत ही बढ़िया खाने की चीजे़ं उपलब्ध होती थी।

इसके अंतर्गत ही है गुजरात की राजधानी में गांधीनगर में स्वामी नारायण सम्प्रदाय का धार्मिक स्थल अक्षरधाम, जिसका पूर्ण रूप से उद्धघाटन भी साल 1992 में हुआ था। मुझे याद है इसके उद्धघाटन के तहत कई दिनों तक इस खूबसूरत जगह को देखने के लिये लोगों का तांता लगा रहता था। यहां श्री स्वामीनारायण जी की मशहूर खिचड़ी कई दिनों तक यहां आने वाले हर अनुयायी को बिना किसी मूल्य के दी गई। यह धार्मिक स्थान बिल्कुल मुख्यमंत्री निवास स्थान के सामने है। साल 2002 में इसी स्थान पर हथियार बंद लोगों ने हमला किया था, जिसमें एक सिख नौजवान भी मारा गया था।

वहीं समय-समय पर गुजरात में बतौर मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र भाई मोदी, स्वामी नारायण के सार्वजनिक मंच पर स्वामीनारायण के मुख्य संतों के साथ दिखाई देते रहे हैं। अब इसी सम्प्रदाय का धार्मिक स्थान अक्षरधाम देश की राजधानी दिल्ली में भी मौजूद है। जहां अक्षरधाम स्वामी नारायण आस्था से जुड़ा है और सबको बिना किसी भेदभाव के स्वागत का संदेश दे रहा है लेकिन चिन्हों के माध्यम से यह स्थान हिंदू सम्प्रदाय का ही एक विस्तार प्रतीत होता है। खासकर जिस तरह यहां लेज़र शोज़ करवाए जाते हैं, जहां 9 वर्ष के नचिकेता और यमराज के कथन को दिखाया जाता है जहां यमराज, नचिकेता को डराने की भरचक प्रयास करता है और अंत में तीन वरदान नचिकेता को देता है, देखने से एक पल के लिये प्रतीत होता है कि धारावाहिक रामायण और महाभारत फिर से आंखों के सामने सर्जन किये गये हैं। जहां हिंसा, वरदान, सबकुछ है।

वास्तिवक हकीकत यह भी है कि स्वामीनारायण आस्था से ही जुड़े कुछ धार्मिक स्थान दलितों का बहिष्कार करते हैं।

जहां खुद नरेंद्र भाई मोदी खुद को समाज के पिछड़े अंग का सदस्य बताते हैं, वही उनके बतौर गुजरात राज्य के मुख्यमंत्री उनके शासन काल में दलित समुदाय का बहिष्कार बहुत से धार्मिक स्थानों पर किया जाता रहा है लेकिन यह हकीकत कभी भी गुजरात मॉडल और उसके विकास की रूपरेखा में दिखाई ही नहीं गई।

मुझे याद है एक घटना जब मैं गाड़ी चलाया करता था और एक हिंदू परिवार को उनके धार्मिक स्थानों के दर्शन करवा रहा था तब ही वेरावल में जो कि सोमनाथ के पास है वहां एक जगह ब्रह्माकुमारी आस्था से जुड़े आश्रम में हम चले गये, जहां इसी आस्था की एक साध्वी हमें उस आस्था को समझाने के लिये एक जगह ले गई। मुख्य केंद्र पर ब्रह्मा जी की मूर्ति और शिव लिंग था और उसके इर्द गिर्द चारों ओर हर प्रमुख आस्थाओं के मुख्य धार्मिक चेहरों की तस्वीरे थीं। इनमें इसाई धर्म के ईसा मसीह भी थे और सिख धर्म के सर्व प्रथम गुरु नानक जी भी।

इनका यहां समझाना था कि दुनिया की उत्पत्ति ब्रह्मा से हुई है और वही इस दुनिया के कर्ता धर्ता हैं। वही बाकी सारे पैगम्बर भी उनकी मर्ज़ी से इस दुनिया में आये हैं। मसलन, आस्था के रूप में खुद को सर्वश्रेष्ठ बताया जा रहा था। मूर्ति पूजा भी थी लेकिन जात-पात, ऊंंच-नीच, छुआछूत, पुरुष प्रधान समाज ऐसा कुछ नहीं था। मसलन सभी का स्वागत था और आस्था का प्रचार बहुत ही विनम्रता और चतुराई से किया जा रहा था।

एक सिख होने के नाते मुझे यह पता था कि गुरु नानक जी ने अपनी गुरुबाणी में मूर्ति पूजा, ब्रह्मा, विष्णु और शिव को पूरी तरह से नकार कर एक परमात्मा की बात की है। वास्तव में यहां तो गुरु नानक की विचारधारा को बिना समझे ही दिखाया जा रहा था लेकिन मैंने यहां एक महिला जो कि साध्वी लिबाज़ में थी उनसे कोई किंतु परंतु करना जायज़ नहीं समझा। मेरी धार्मिक आस्था को ज़रूर चोट पहुंची थी।

यह हकीकत है कि एक धार्मिक जानकारी के अभाव के बिना किसी व्यक्ति पर (चाहे वो गैर हिंदू हो या दलित हो) इस तरह की पेशकश का क्या असर होगा? यह ज़मीनी हकीकत है कि स्वामीनारायण और ब्रह्माकुमारी जैसे संस्थानों में कभी भी किसी प्रमुख के रूप में दलित को नहीं चुना जायेगा, जहां तक मेरी जानकारी है ऐसा आज तक हुआ नहीं है और भविष्य में होने के आसार भी कम ही दिखाई देते हैं।

कहने का तात्पर्य यही है कि जहां रामायण, महाभारत जैसे धारावाहिक के ज़रिये मुख्य रूप से हिंदू विचारधारा को थोपा गया, इसके तहत उच्च जाति स्वभाविक रूप से राम जन्म भूमि आंदोलन से खुद को जोड़ रही थी। वास्तव में हकीकत यह थी कि दलित अभी भी दूर था लेकिन बहुत सी ऐसी आस्थाएं अचानक से खुद को समाज में मान्य करने लगी जो कहीं ना कहीं हिंदू धर्म से जुड़ी हुई थीं। अपने यहां वह सभी का स्वागत एक समान करते हैं इस संदेश को देने में बहुत ज़्यादा हद तक कामयाब रही। जहां इस तरह से दलित इन आस्थाओं से जुड़ा वहीं भाजपा को भी उसने बिना किसी सवाल के अपना लिया।

अब मेरे देखते-देखते उन बस्तियों में भी हिंदू धर्म के रीति रिवाज़ के अनुसार मंदिरों का निर्माण होना शुरू हो गया, जहां भारी तादाद में दलित रहते थे और ये बस्तियां जीवन के मूलभूत सुविधाओं से अभी बहुत दूर थीं। जहां आस्था का विस्तार हुआ वहीं राम जन्म भूमि आंदोलन को बल मिला और दलितों ने, खासकर शहर के दलितों ने भाजपा को अपना चुनावी विकल्प बनाकर एक तरह से भाजपा और इसकी विचारधारा को अपनी स्वीकृति दे दी।

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