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“धर्म की जय-जयकार ज़रूर कीजिए मगर उसके नाम पर खून मत बहाइए”

उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर ज़िले में भीड़ द्वारा हिंसा की घटना किसी से छिपी नहीं है, इस हिंसा में स्याना कोतवाली के प्रभारी सुबोध कुमार सिंह की और एक अन्य युवक की गोली लगने से मौत हो गई।

भीड़ द्वारा हिंसा के मामले में योगेश राज को मुख्य आरोपी बनाया गया है। बताया जा रहा है कि योगेश राज का संबंध बजरंग दल से है।हालांकि, पुलिस ने योगेश राज को अब तक गिरफ्तार नहीं किया है।

इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह

हां, सरकार द्वारा आनन-फानन में एक एस.आई.टी गठित कर दी गयी है। वही एस.आई.टी जो देश में हर दंगों के बाद गठित की जाती है। इसकी जांच रिपोर्ट जब आएगी शायद तब तक सुबोध कुमार के बच्चे अपने पिता की मौत को करीब-करीब भूल चुके होंगे, जिसे यकीन ना हो वो साल 84 के दंगों की जांच रिपोर्ट देख सकता है जो 36 साल बाद पिछले महीने आई है।

हर एक घटना की तरह इस घटना के बाद भी लोगों के मन में सवाल है कि कथित गौहत्या का मामला इतना कैसे बढ़ गया, भीड़ कैसे इतनी बेकाबू हो गई कि थाने पर हमला तक कर दिया गया। वाहन फूंके गए और पुलिस अधिकारी की हत्या तक कर दी गई। जो यह सब जानना चाहता तो उन्हें किसी जांच एजेंसी की रिपोर्ट का इंतज़ार नहीं करना चाहिए।

दरअसल, यह एक धर्म की राजनीति के खेल का एक पवित्र हिस्सा है, जिसमें गाय है, देवी देवता है, मंदिर-मस्जिद है। हरे और भगवा झंडे हैं। किसी के सिर पर सफेद जालीदार टोपी है तो किसी के पास केसरिया साफा है।

इस खेल के एक नियम हैं, जिसमें लोगों के विवेक पर कब्ज़ा किया जाता है। उनकी सोच को बंधक बना लिया जाता है। जिसके पास जितनी संख्या में बंधक हैं वही उतना बड़ा विजेता है। इस खेल के दर्शक देश की मीडिया और बड़े नेता हैं। पर्दे के पीछे तालियां और शाबासी है। बेशक इस खेल में धर्म के राक्षसों की जीभ लहू पीती हो किन्तु भीड़ के हिस्से हर बार लाश, लाठियां और आंसू आते हैं।

इस खेल में मारकाट है, पकड़ों मारों ये गया, इसकी-उसकी महिलाओं के तन से जुड़ी गालियों का भरपूर इंतज़ाम है। खेल का अंत कुछ इस तरह है, जिस तरह बच्चा पैदा होने पर हिजड़े ताली बजाकर पैसे ले जाते हैं। इस खेल के अंत में कुछ खादीधारी बयान भाषण देकर वोट ले जाते हैं। लोग खुश होते सेल्फी लेते हैं, सोशल मीडिया पर उसे चिपकाकर लाइक और वाहवाही ले जाते हैं।

खेल खत्म होता है, समाज के बड़े बुद्धिजीवी समाज सुधार की चोली पहनकर घर के अन्दर ठुमकते हैं, क्योंकि बाहर जाकर ठुमकेंगे तो पता नहीं किसे बुरा लग जाये और सरेराह चीरहरण हो ना जाये। हां, यदि कोई हिम्मत करके बोलने रोकने की कोशिश करता है तो उसे सवालों में दबाकर पूछा जाता है, आज क्यों बोले, गोधरा ट्रेन हादसे में मारे गये कारसेवकों के समय किस ट्रेन में चने बेच रहा था? साल 84 में कहां था? भले ही उसका जन्म 85 का हो।

लोग टैक्स का पैसा देते हैं, जिसे जनता की ज़रूरतों के लिए खर्च करना सरकार की ज़िम्मेदारी है पर सरकारें मंचों पर ऐलान करती हैं, जनमत बनाया तो वह कितना पैसा कितनी ऊंची मूर्ति या धार्मिक कार्यों में खर्च करेंगी। लोग गर्व से जय श्री राम कहकर मंदिर वहीं बनाएंगे और अल्लाह-हू-अकबर का नारा लगाते हैं।

बताया जाता है इस खेल में अमीर गरीब दोनों हैं। गरीब क्लब नहीं जा सकते, अमीर चले जाते हैं, तो गरीबों के लिए तलवार, भाले छुरियों का प्रबंध है। सड़क पर धर्म के गीत बजाकर इनको नचाकर धार्मिक शक्ति का प्रदर्शन किया जाता है। इन्हें बताया जाता है यही धर्म का मूल तत्व है बाकि भजन आरती तो बड़े बूढों और पण्डे पुजारियों का काम है।

दंगों और हिंसा के बाद बयान, मुआवज़ा और गठित जांच एजेंसियां हैं, मारे चाहे किसी भी धर्म के जाये झंडा बुलंद धर्म का रहता है। इंसान क्यों मर रहे हैं, इंसान क्यों मार रहे हैं? इस चर्चा के बजाय चर्चा यह है कि कौन सी सीट कितनी वोटों से कौन सा नेता निकाल रहा है।

वह ज़माना चला गया जब गाय दूध, धर्म आज़ादी और मस्जिद अज़ान देती थी। आज यह तीनों चीज़ें क्या दे रही हैं? हिंसा को देखकर आसानी से समझा जा सकता है किन्तु समझना किसे है? सब तो यही राग अलाप रहे हैं।

हर एक हिंसा को धर्म हिम्मत दे रहा है, जिसकी पवित्रता की मुहर कुछ ठेकेदारों ने ली हुई है। ऐसे ठेकेदारों को जवाब देने के लिए जो आगे आता है उसे देशद्रोही, सेक्युलर कहकर खारिज़ किया जा रहा है। जो लोग आज बुलंदशहर हिंसा की जांच रिपोर्ट की बांट जोह रहे हैं उन्हें शायद अगले पल किसी शहर में अगली हिंसा की खबर का इंतज़ार करना चाहिए क्योंकि लोगों की आत्मा पर बयानों, भाषणों और धर्म के कथित ठेकेदारों ने कब्ज़ा कर लिया है।

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