महिलाएं हमारे देश में घरेलू कामगारों का सबसे बड़ा हिस्सा हैं। घरेलू कामगारों का 80% हिस्सा महिलाएं हैं लेकिन उनके द्वारा किए गए कामों को इतना महत्वहीन करार कर दिया गया है कि उनके अस्तित्व पर ही सवाल खड़े हो चुके हैं। दिल्ली श्रम संगठन द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक भारत में घरेलू कामगारों की संख्या 5 करोड़ से ज़्यादा है और इनमें महिलाएं ज़्यादा हैं।
मैंने एक सांसद के तौर पर 2015 में डोमेस्टिक वर्कर्स बिल पेश किया। मेरे ख्याल से यह बिल उन करोड़ों कामगारों को पहचान और कानूनी संरक्षण दिलाने के लिए काफी अहम है।
ज़्यादातर घरेलू कामगार या डोमेस्टिक वर्कर्स का ताल्लुक हाशिए पर रह रहे समाज से है। ग्रामीण या आदिवासी क्षेत्रों से आने वाले कामगारों को एक बिल्कुल नए वातावरण में लाकर खड़ा कर दिया जाता है जहां काम करने के लिए अच्छा माहौल तक नहीं होता। उन्हें अच्छी तन्ख्वाह नहीं दी जाती, दिन में 15 घंटे काम करवाये जाते हैं, सप्ताह में कोई छुट्टी नहीं होती। पूरा जीवन वे शोषण, कमी और काम करने के एक खराब माहौल में जीते हैं। महिला कामगारों के लिए यह स्थिति और भी गंभीर है।
जाति और वर्ग सालों से ना सिर्फ पेशा तय करते आये हैं बल्कि नियोजक के साथ रिश्ते तय करने में भी काफी अहम रोल निभाते हैं। महिला कामगारों को हमेशा आश्रित और दास बनाकर रखा जाता है, उन्हें किसी भी तरीके के शोषण के खिलाफ कोई सुरक्षा नहीं दी जाती।
SC/ST कमिटी के अध्यक्ष के तौर पर मैंने कई महिला कामगारों के अनुभवों को सुना है। मुझे यह देखकर बहुत बुरा लगा कि कैसे इनका जीवन सामंतवादी विचारधारा से शासित होता है जिसके कण-कण में जातीवाद है। यह पूरी तरह से उनके मूलभूत अधिकारों का हनन है। उनकी पगाड़ काट ली जाती है, तय न्यूनतम कानूनी वेतन से भी कम पैसे दिये जाते हैं, कोई मेडिकल सुविधाएं नहीं दी जाती हैं और नियोक्ता उन्हें हमेशा शक की निगाह से भी देखते हैं। एक मामूली सी गलती पर उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता है और फिर वे गरीबी और भविष्य की चिंता के कुचक्र में फंस जाते हैं। हर दिन जॉब सेक्यॉरिटी के हिसाब से उनके लिए डराने वाला होता है।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने 2011 में घरेलू कामगारों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए कन्वेंशन 189 अपनाया। भारत ने इसका समर्थन तो किया लेकिन खुद अभी लागू नहीं कर पाया है। असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम 2008 सामाजिक न्याय और कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन शोषण रोकथाम कानून 2013, कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाई गई व्यवस्था है लेकिन इनमें से कोई भी व्यवस्था घरेलू कामगारों के संपूर्ण हक पर केंद्रित नहीं है।
ये बातें हमें कम से कम यह सोचने पर तो मजबूर ज़रूर करती हैं कि कामगारों के संपूर्ण हक को आवाज़ देने के लिए अभी तक कोई बिल क्यों नहीं लाया गया है? यह बात घरेलू कामगारों को लेकर पॉलिसी के स्तर पर चर्चा की कमी को भी दिखाती है खासकर तब जब इसमें 80% महिलाएं हैं। बालश्रम (रोकथाम और विनियमन) अधिनियम, 1986 घरेलू श्रम को हानिकारक श्रेणी में नहीं रखता इसलिए ये प्रतिबंधित पेशों की सूचि में नहीं है। इस वजह से घर के अंदर किसी बच्चे द्वारा किया गया काम बाल श्रम कानून के दायरे में नहीं आता। मेरे द्वारा पेश किया गया डोमेस्टिक वर्कर्स बिल बच्चों के घरेलू कामगार के तौर पर नियुक्ति को भी पूरी तरह से निषेध करता है।
यह बिल घरेलू कामगारों को सशक्त करने और उन्हें न्यायपूर्ण हक दिलाने का एक प्रयास है ताकि उन्हें सुरक्षा के लिए खतरा मानने के बजाय उनके हक को प्राथमिकता मिल पाए। यह बिल स्पष्ट तरीके से घरेलू कामगारों के द्वारा किए गए कामों को परिभाषित और नियमित करता है। दिन में 8 घंटे का काम, हर पांच घंटे के बाद एक इंटरवल, ओवरटाइम करने की सूरत में तय मानक से दोगुना वेतन, पेड छुट्टियां, बीमारी के लिए छुट्टियां, खाना और रहना। ज़्यादातर घरेलू कामगार काम करने की शर्तें निजी स्तर पर तय करते हैं और यह बिल तमाम कामगारों के काम करने की शर्तों में समरूपता लाने का प्रयास है। सरकार, यूनियन से परामर्श कर एक सम्मानजनक वेतन एवं कार्यस्थल के लिए ज़रूरी अन्य चीज़ें तय करेगी।
मुख्य तौर पर यह बिल घरेलू कामगारों के इन हकों का समर्थन करता है-
-जबरन श्रम से मुक्त जीने का हक
-न्यूनतम वेतन पाने का हक
-कार्यस्थल पर स्वस्थ माहौल का हक
-शिकायतों का सही तरीके से निपटारे का हक
-संगठित होने का हक
-भेदभाव मुक्त कार्यस्थल का हक
एक घरेलू कामगार का सामाजिक स्तर किसी भी अन्य कामगार के बराबर होना चाहिए। कानूनी संरक्षण देकर ही घरेलू कामगारों के काम को पहचान दिलाई जा सकती है जो अबतक असंगठित क्षेत्रों में नगण्य है। जाति और वर्ग को मूल से नष्ट करने वाले कानूनी कदमों से ही यह समाज एक समावेशी विकास की ओर बढ़ सकता है।
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