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“साल 2018 में अभिव्यक्ति की आज़ादी का जमकर हनन हुआ”

अनुपम खेर और नसीरुद्दीन साह

अनुपम खेर और नसीरुद्दीन साह

अभिव्यक्ति की आज़ादी भारत के नागरिकों को प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों में से एक है। यह हमारे देश के नागरिकों को अपने विचार व्यक्त करने और अपनी सोच को स्वतंत्र रूप से साझा करने की अनुमति देता है। यह आम जनता के साथ-साथ मीडिया को सभी राजनीतिक गतिविधियों पर टिप्पणी करने और उन लोगों के खिलाफ असंतोष दिखाने की छूट देता है जो उन्हें अनुचित लगते हैं।

अभिव्यक्ति की इच्छा किसी व्यक्ति की भावनाओं, कल्पनाओं एवं चिंतन से प्रेरित होती है। इसलिए लोकतंत्र में यह सवाल हमेशा अस्तित्व में रहता है कि इस अभिव्यक्ति की सीमा क्या होगी और इस बात को भी समझना ज़रूरी है कि अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता तो संसार में कहीं भी नहीं है।

हमारा संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो देता है लेकिन सरकार उन अधिकारों पर उचित प्रतिबंध लगा सकती है, जो इस बात को सुनिश्चित कर सके कि इस अभिव्यक्ति का प्रभाव देश की एकता, अखण्डता एवं सम्प्रभुता पर नहीं पड़नी चाहिए। सामाजिक व्यवस्था या सौहार्द को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए, न्यायालय की अवमानना नहीं होनी चाहिए और अभिव्यक्ति दुर्भावनापूर्ण नहीं होनी चाहिए।

साल 2018 में अभिव्यक्ति की आज़ादी चर्चा का विषय रहा और साल के अंत तक आते-आते जब ‘द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टिर’ का ट्रेलर रिलीज़ हुआ तब भी अभिव्यक्ति की चर्चा शुरू हुई:

‘द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टिर’

अनुपम खेर। फोटो साभार: सोशल मीडिया

2014 में आई संजय बारू की किताब पर जब फिल्म का ट्रेलर रिलीज़ किया गया तब काँग्रेस पार्टी के अलग-अलग नेताओं ने इस मूवी के विरोध में आवाज़ उठानी शुरू कर दी। ऐसे में यह सवाल खड़ा हुआ कि क्या किसी विषय पर फिल्म बनाना और फिर उसका विरोध करना अभिव्यक्ति की आज़ादी है? मसला यह है कि आप किसी विषय से सहमत या असहमत हो सकते हैं क्योंकि वह आपकी अभिव्यक्ति की आज़ादी है लेकिन उसका विरोध करना या उस आवाज़ को उठने से रोकना या फिल्म को बैन करना अभिव्यक्ति की आज़ादी का हनन ज़रूर है।

साउथ इंडियन मूवी मार्शल पर अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करने वाली काँग्रेस पार्टी को कम से कम दूसरों की अभिव्यक्ति के अधिकारों का सम्मान तो कर ही लेना चाहिए।

मीडिया और अभिव्यक्ति

प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत का 138ंवे पायदान पर गिरना मीडिया की आज़ादी की कहानी अपने आप बयान करती है, जिसके पीछे पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या जैसी घटना को अहम माना जा सकता है। मीडिया में बैठे प्रत्रकारों का दायित्व या धर्म मुद्दों को सामने लाना है लेकिन 2018 में खबरों को आज कल पेश नहीं किया जाता बल्कि अभिव्यक्ति के नाम पर कमेंट्री चल रही होती है जहां सब अपने-अपने ढंग से मुद्दों पर अपनी राय लोगों पर थोपने की कोशिश करते हैं, जो लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है।

पुण्य प्रसून वाजपेयी। फोटो साभार: सोशल मीडिया

कोई सत्ता के विरोध में है तब वह अच्छे कामों की भी सराहना करने को तैयार नहीं है और जब कोई सत्ता के पक्ष में हो तब उसे सत्ता की कमी नज़र नहीं आती है। अभिव्यक्ति के आज़ादी तो सबके पास है लेकिन मीडिया की आज़दी पर कई सवाल खड़े होते हैं। पुण्य प्रसून बाजपेयी जैसे वरिष्ठ पत्रकार का सत्ता पर यह आरोप लगाना कि सत्ता में बैठे लोग सीधे एडिटर्स को फोन करके हर खबर पर अपनी निगरानी रखते हैं और 60 से ज़्यादा युवक इसलिए रखे गए है ताकि वे देख सके कि प्राइम टाइम में किस चैनल पर क्या दिखाया जा रहा है। ऐसे में यह सोचने का विषय है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का स्तर क्या हो चुका है?

कृष्णा: आवाम की आवाज़

कृष्णा। फोटो साभार: Flickr

एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने केवल इस वजह से किसी गायक का कॉन्सर्ट स्थगित कर दिया क्योंकि उसके विरोध में कुछ लोग सोशल मीडिया में आवाज़ उठा रहे थे। ऐसी चीज़ें अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कई सवाल खड़े करते हैं क्योकिं आपका किसी से सहमत ना होना आपकी अभिव्यक्ति की आज़ादी है लेकिन विरोध कर किसी प्रोग्राम को ना होने देना उस व्यक्ति की अभिव्यक्ति की आज़ादी का हनन है। हालांकि बाद में दिल्ली सरकार ने ‘आवाम की आवाज़’ के नाम से गार्डन ऑफ फाइव सेंसेज में गायक कृष्णा के प्रोग्राम को ऑर्गेनाइज़ कराया।

नसीरुद्दीन शाह

नसीरुद्दीन साह। फोटो साभार: Getty Images

“मै वो हूं जो आज बस और ट्रेन में चढ़ने से डरता है, मैं वो हूं जो काम पर जाता है तब उसकी बीवी को लगता है कि जंग पर जा रहा है। पता नहीं लौटेगा या नहीं, हर दो घंटे बाद फोन करती है कि चाय पी या नहीं? खाना खाया या नहीं? दरअसल, वो यह जानना चाहती है कि मै ज़िंदा हूं या नहीं।”

बकौल नसरुद्दीन, “मैं वो हूं जो कभी बरसात तो कभी ब्लास्ट में फंसता है। मैं वो भी हूं जो आज कल दाढ़ी बढ़ाने और टोपी पहनने से घबराता है। बिज़नेस के लिए दुकान खरीदता है तब सोचता है कि नाम क्या रखूं। कहीं दंगे में मेरा नाम देखकर कोई मेरी दुकान ना जला दे। झगड़ा किसी का भी हो बेवजह मरता मैं ही हूं। भीड़ तो देखी होगी ना आपने? भीड़ में से कोई एक शक्ल चुन लीजिए। मैं वो हूं। I Am Just A Stupid Comman Man, Wanting To Clean His House”

‘अ वेडनसडे’ मूवी में जब शाह ने यह डाइलॉग बोले तब लोगों ने उन्हें काफी सराहा लेकिन जब असल ज़िन्दगी में देश की कुछ कमियों पर अपनी आवाज़ रखनी चाही तब किसी ने पाकिस्तान का टिकट उन्हें भेज दिया। शायद मूवी डायलॉग और शाह के बयान के बाद हुए विरोध को जोड़कर देखें तो अभिव्यक्ति की आज़ादी का मज़ाक समझ पाएंगे।

मीशा-किताब

मल्यालम नॉवेल ‘मीशा‘ को जब बैन किया गया तब भी अभिव्यक्ति की आज़ादी का हनन हुआ जिस पर सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ा कि किसी विवाद के चलते किताब को बैन करने की प्रथा लोगों की अभिव्यक्ति की आज़ादी के खिलाफ है। लोगों के विचारों को दबाने की कोशिश करना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।

मीशा के लेखक एस हरीश। फोटो साभार: सोशल मीडिया

किसी की भी अभिव्यक्ति की आज़ादी का हनन नहीं होना चाहिए लेकिन उस आजादी की सीमा कितनी हो और किस तरह हम अपनी आवाज़ बुलंद करके सत्ता को लोगों के लिए काम करने को मजबूर कर सकते हैं, उस पर विचार करना चाहिए।

लोकतंत्र की दीवारों को मज़बूत रखने के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी का सम्मान होना ज़रूरी है। ना केवल अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करना ज़रूरी है बल्कि दूसरों के अधिकारों को भी सम्मान देना ज़रूरी है।

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