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“साल 2018 में सत्ता द्वारा अभिव्यक्ति की आज़ादी का मज़ाक उड़ाया गया”

पुुण्य प्रसून वापजेई, मिलिंद खांडेकर और अभिसार शर्मा

पुुण्य प्रसून वापजेई, मिलिंद खांडेकर और अभिसार शर्मा

भारत के संविधान ने हर भारतीय को अभिव्यक्ति की आज़ादी का हक दिया है। संविधान रचियता डॉ. भीमराव अंबेडकर जानते थे कि अगर देश में लोकतंत्र मज़बूत करना है तब विरोधी विचारों का भी आदर करना होगा। देश में कई दफा कुछ ऐसी घटनाएं हुई हैं जिसने अभिव्यक्ति की आज़ादी को तार-तार करके रख दिया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण वह दौर है जब इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल लागू किया था।

मौजूदा दौर में भी किसी ना किसी रूप में देश की आवाज़ दबाने की पुरज़ोर कोशिश होती है। ऐसे में हमें यह देखना होगा कि अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए साल 2018 कैसा रहा। इस बात को समझने के लिए हमें 2-4 घटनाओं का ज़िक्र करना होगा।

साल 2018 में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर सत्ता द्वारा नकेल कसे जाने के क्रम में सबसे पहले मैं हिन्दी पत्रकारिता के दिग्गज शख्स पुण्य प्रसून वाजपेयी की बात करना चाहूंगा जिन्हें लगातार दो बड़े न्यूज़ चैनलों को छोड़ना पड़ा। साल 2018 की शुरुआत में बाबा रामदेव के दबाव में पुण्य प्रसून को आज तक न्यूज़ चैनल छोड़ना पड़ गया।

पुण्य प्रसून वाजपेयी। फोटो साभार: Flickr

गौरतलब है कि पुण्य प्रसून ने आज तक न्यूज़ चैनल के चर्चित कार्यक्रम ‘थर्ड डिग्री’ के एक एपिसोड के दौरान बाबा रामदेव से कुछ ऐसे सवाल पूछ दिए थे जिससे बाबा नाराज़ हो गए। उन्होंने कार्यक्रम के दौरान तो प्रसून पर भड़ास निकाली ही और साथ ही साथ चैनल के आलाकमान से बात करते हुए पतंजलि के सारे विज्ञापन वापस लेने की भी धमकी दे डाली। बाबा द्वारा चैनल पर दबाव बनाने के बाद प्रसून ने इस्तिफा दे दिया। हालांकि कुछ लोगों का यह भी कहना था कि प्रसून का यह प्रोफेशनल मूव था क्योंकि उन्हें एबीपी न्यूज़ के साथ काम करना था।

एबीपी न्यूज़ पर ‘मास्टर स्ट्रोक’ नामक कार्यक्रम के साथ पुण्य प्रसून ने नई पारी की शुरुआत की। इस कार्यक्रम के ज़रिए नए-नए प्रयोग करते हुए प्रसून लगातार मोदी सरकार की योजनाओं और तानाशाही रवैये पर प्रहार करने लगे। विवाद तब शुरू हुआ जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए छत्तीसगढ़ के कांकेर ज़िले के कन्हारपुरी गाँव की एक महिला किसान से खेती से होने वाली आय संबंधित सवाल किए जिसमें कहा गया कि पहले के मुकाबले आय दोगुनी हो गई है।

मामले ने विवाद का रूप तब ले लिया जब पुण्य प्रसून वाजपेयी ने मामले की तह तक जाने के लिए अपने एक रिपोर्टर को उसी गाँव में भेज दिया जहां से यह बात सामने आई कि मोदी के वहां आने से पहले किसी अधिकारी ने गाँव की महिलाओं को बता दिया था कि क्या जवाब देना है।

इस घटनाक्रम के बाद कहा जाने लगा कि एबीपी न्यूज़ चैनल पर सरकार का दबाव काफी बढ़ गया है और प्रसून से इस्तिफा मांग लिया गया। इसके अलावा एबीपी न्यूज़ चैनल के एक और एंकर अभिसार शर्मा को लंबी छुट्टी पर भेज दिया गया और एडिटर इन चीफ मिलिंद खांडेकर को भी दबाव में आकर इस्तिफा देना पड़ा।

किशोर चंद्र वांगखेम। फोटो साभार: Flickr

इन घटनाओं के पश्चात लोगों में न्यूज़ चैनलों के प्रति विश्वसनीयता कम होने लगी और इस बात को बल मिल गया कि काफी मीडिया हाउस सरकार के पक्ष में काम करती है। इस बीच सरकार विरोधी आवाज़ को दबाने का और एक मामला मणिपुर से सामने आया जहां सूबे के एक पत्रकार किशोर चंद्र वांगखेम को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध में टिप्पणी किए जाने पर ‘राष्ट्रीय सुरक्षा कानून’ के तहत गिरफ्तार किया गया।

एक तरफ जहां कई मीडिया घरानों पर सरकार और कॉरपोरेट का दबाव बढ़ता जा रहा है वही कुछ ऐसे मीडिया हाउस भी हैं जो लगातर सरकार के कामों की आलोचना कर रहे हैं। हमें समझना होगा कि विरोधी विचार लोकतंत्र में प्रेशर कूकर की सिटी की तरह काम करती है। ऐसे में  सीएनएन  और  व्हाइट हाउस विवाद  बहुत कुछ कहता है जो हम सुनना नहीं चाहते।

सत्ता पक्ष पर फेक न्यूज़ को एक्सपोज़ करके हमला करने वाले यूट्यूब स्टार ध्रुव राठी पर पुलिस केस करके उनकी आवाज़ को भी दबाने की कोशिश सत्ताधारी पार्टी द्वारा की गई लेकिन उन्होंने अपना काम जारी रखा। वही दूसरी ओर सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश के साथ झारखंड में कुछ लोगों द्वारा मारपीट की गई और सरकारें खामोश रहीं।

रामचंद्र गुहा।

प्रसिद्ध इतिहासकार और लेखक रामचंद्र गुहा को भी अपने समाजवादी विचारों के चलते विरोध का सामना करना पड़ा। दरअसल बात अहमदाबाद विश्वविद्यालय की है जहां पर रामचंद्र गुहा के पढ़ाने का कुछ छात्र संगठनों ने विरोध किया, फिर रामचंद्र गुहा ने अपने बयान में कहा कि मैं अब अहमदाबाद विश्वविद्यालय में नहीं पढ़ाऊंगा क्योंकि कुछ परिस्थितियां मेरे नियंत्रण से बाहर हैं।”

शहरी नक्सलवाद के नाम पर देश के अलग-अलग जगहों से बुद्धिजीवियों को बंदी बनाना भी विरोधी विचारों को खत्म करने की साज़िश नज़र आती है। इस श्रंखला में जीडी अग्रवाल का नाम भी आता है जो किसी विचारधारा का विरोध तो नहीं कर रहे थे लेकिन गंगा नदी के प्रति आस्था रखने वाले ज़रूर थे।

वह चाहते थे कि गंगा की सफाई के लिए जन भागीदारी बने क्योंकि उसके अलावा गंगा को साफ करना मुश्किल है। इस मांग को लेकर वह 111 दिन अनशन पर बैठे रहे जहां उन्हें जान से हाथ तक धोना पड़ गया। दु:खद बात यह है कि अनशन से पहले उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को दो बार खत लिखा था लेकिन पीएमओ द्वारा उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। क्या यह उनके विचारों का दमन नहीं है? एक बेटा जो माँ के लिए शहीद हो गया और दूसरा बेटा जो जवाबदेही से भाग रहा है।

जी.डी अग्रवाल। फोटो साभार: सोशल मीडिया

मौजूदा दौर में मसला यह है कि आप सरकार की कार्यशैली पर सवाल ही नहीं उठा सकते। पूरे कार्यकाल में 56 इंच का सीना होते हुए भी कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं हुई। आप क्या खाए या ना खाए (बीफ विवाद) और किससे शादी करें (लव जेहाद) यह सब दूसरे लोग तय कर रहे हैं। मीडिया की स्वतंत्रता के मामले में भारत का स्थान अफगानिस्तान, जिम्बाब्वे और म्यानमार जैसे देशों के पीछे है।

बहरहाल, अब यह आपको ही तय करना है कि सरकार बार-बार अभिव्यक्ति की आज़ादी का हनन क्यों कर रही है। ऐसे में यह कहना भी गलत नहीं होगा कि साल 2018 में सरकार ने अभिव्यक्ति की आज़ादी का मज़ाक उड़ाया है। बतौर पत्रकार आप किसी भष्ट अधिकारी की आलोचना कर लीजिए, विपक्षी दलों पर हल्ला बोल दीजिए लेकिन गलती से भी सरकार की आलोचना अगर कर दिए फिर तो यह लोग हाथ धोकर पीछे पड़ जाएंगे।

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