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कविता: “खुल गई डेमोक्रेसी की पोल, धूर्त नेता जनता बकलोल”

जनतंत्र की परिकल्पना बहुत अच्छी सोच के साथ की गई थी। जनतंत्र, यानि कि जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन। समय के साथ प्रजातंत्र की परिकल्पना धूल फांकने लगी। आजकल जनतंत्र में नम्बर का ही मोल होता है। येन केन प्रकारेण जनता को बहला फुसलाकर वोट ले लिया जाए, यही महत्वपूर्ण है।

आजकल के परिदृश्य में भारत वर्ष में सारी राजनैतिक पार्टियां जाति और धर्म की राजनीति कर रही हैं। जिस प्रजातंत्र की परिकल्पना गांधी, अंबेडकर ने की थी, वह धूमिल हो चुकी है। यह कविता बदलते परिदृश्य में जनतंत्र में व्याप्त खामियों को दृष्टिगोचित करते हुए लिखी गई है। एक बकरे के माध्यम से आज के प्रजातंत्र पर यह कविता चोट करती है।

अपनी नयनों के पट खोल,

झब्बर बकरा बोले बोल।

खुल गयी डेमोक्रेसी की पोल,

कि धूर्त नेता जनता बकलोल।

 

डेमोक्रसी की यही पहचान,

जाने जनता यही है ज्ञान।

कि कहीं थूक सकती है वो,

कि कहीं मूत सकती है वो।

 

जनता की परिभाषा गोल,

अपनी नयनों के पट खोल,

झब्बर बकरा बोले बोल।

खुल गयी डेमोक्रेसी की पोल,

कि धूर्त नेता जनता बकलोल।

 

सर नापे सर मापे नेता,

जनता के सर जापे नेता।

ज्ञानी मानी व नत्थू खेरा,

सबको एक ही माने नेता।

 

नम्बर का ही यहां है मोल,

अपनी नयनों के पट खोल,

झब्बर बकरा बोले बोल।

खुल गयी डेमोक्रेसी की पोल,

कि धूर्त नेता जनता बकलोल।

 

पढ़ते बच्चे बनते नौकर,

गुंडे राज करते सर चढ़कर।

राजा चौपट, नगरी अंधी,

न्याय की बात तो है गुड़ गोबर।

सारा सिस्टम है ढकलोल,

अपनी नयनों के पट खोल,

झब्बर बकरा बोले बोल।

खुल गयी डेमोक्रेसी की पोल,

कि धूर्त नेता जनता बकलोल।

 

ज्ञान का नहीं है कोई मान,

ताकत का है बस सम्मान।

जनता लुटे, नेता चुसे,

बची नहीं है इनकी जान।

कोई तो अब पोल दे खोल,

अपनी नयनों के पट खोल,

झब्बर बकरा बोले बोल।

खुल गयी डेमोक्रेसी की पोल,

कि धूर्त नेता जनता बकलोल।

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