अभी हाल ही में टीवी पर गोविंदा की फिल्म ‘हीरो नंबर 1’ देख रहा था। यह वही फिल्म है जिसके कई दफा देखते हुए मैं बड़ा हुआ हूं। मुझे इस फिल्म का वह दृश्य आज भी याद है जिसमें एक्ट्रेस जब छोटे कपड़े पहनकर रात को घर से बाहर पार्टी करने जाती है तब गोविंदा उसको रोक कर कहते हैं, “छोटी मालकिन, अच्छे घराने की लड़कियां इस तरह रात को छोटे कपड़ों में घर से बाहर नहीं जाती हैं।”
लड़की जब गोविंदा को अनसुना करके चली जाती है तब रात को गुंडे उसके पीछे पड़ जाते हैं और फिर इस फिल्म के हीरो गोविंदा गुंडों से लड़कर उस लड़की की इज्ज़त बचाते हैं। अगली सुबह वह लड़की सलवार सूट पहनकर अपने घर वालों के लिए चाय और नाश्ता तैयार करती है।
इन फिल्मों के ज़रिए हमें बार-बार यह बताने की कोशिश की गई कि अच्छे और शरीफ घराने की लड़कियां रात को छोटे कपड़े पहनकर बाहर नहीं जा सकती हैं। ऐसा करने से उनके साथ अप्रिय घटना घटित हो सकती है और सबसे दु:खद बात यह है कि हमने इसे अपने ज़हन में उतार भी लिया है।
मैं यहां सिर्फ एक फिल्म की बात कर रहा हूं बल्कि हर साल ना जाने ऐसी कितनी ही फिल्मे रिलीज़ होती हैं जहां यह मैसेज दिया जाता है। महिलाओं की ऐसी तस्वीर पेश करने के बदले यदि यह दिखाया जाता कि वह किसी भी मामले में पुरुषों से कमज़ोर नहीं है, तब शायद लोगों के बीच अच्छा संवाद जाता।
क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि गोविंदा के आने से पहले ही लड़की उन गुंडों से निपट लेती? यदि ऐसा दिखाया गया होता फिर लड़कियों को लेकर छोटे कपड़ों वाली सोच लोगों के ज़हन में नहीं आती, बल्कि यह कहा जाता कि लड़कों की सोच ही छोटी होती है।
आज के ज़माने की मूवी ‘पिंक‘ का ही उदाहरण ले लीजिए जहां अदालत में लड़कियों की तरफ से केस लड़ने वाले मुख्य किरदार से जब असल ज़िन्दगी में तनुश्री दत्ता और नाना पाटेकर मामले में बोलने के लिए कहा गया तब वो इस मामले पर चुप रहे। वो यह भूल गए कि उनकी उसी चुप्पी ने जाने-अनजाने में एक और नाना पाटेकर और तनुश्री दत्ता को जन्म दे दिया। इस समाज में नारी उत्थान की बात करना बहुत आसान होता है लेकिन उसे अमल करना उतना ही कठिन।
अंत में बस इतना ही कहना चाहता हूं कि अगर फिल्म ‘हीरो नंबर 1’ में यह दिखाया गया होता कि गुंडों के माँ-बाप अपने बेटों को लड़कियों पर तंज कसने से रोक रहे हैं तब शायद इस समाज के माँ-बाप भी बेटियों की जगह बेटों को रोकना सीख जाते। हम भारतीयों पर फिल्मों का काफी ज़्यादा असर होता है। चाहे रोमांस की बात कीजिए या फिर लड़ाई और परवरिश की, हर मामलों में समाज फिल्मों को फॉलो करता है।