भारत -इंडिया, एक ऐसा देश जहां की सभ्यता, संस्कृति, मेल मिलाप, नारी को देवी का दर्जा देना और तमाम तरह के तथ्य जुड़े हुए हैं। जो भारत की गरिमा को ऊंचा और महान बनाने के लिए काफी है। अगर भारत में हर औरत को देवी मानते हैं तो उसी देश में उनका अपमान, उनका रेप, उनके शरीर और उनकी आत्मा को कौन हर रोज़ छलनी कर रहा है? मेरे हिसाब से तो कोई दूसरे देश या फिर दूसरी दुनिया के ही लोग होते होंगे क्योंकि हमारे यहां तो औरतों को पूजा जाता है, उनका सम्मान किया जाता है।
“आप लोगों को क्या पता, हमारे यहां लड़कियों को पैदा करने के लिए लोग तप, जाप करवाते हैं, पता चल जाए कि गर्भ में लड़का है तो गर्भपात कराने तक को राज़ी हो जाते हैं क्योंकि सबको लड़कियों की लालसा रहती है। लड़की के घर में आते ही उसे सारे हक दिए जाते हैं। वह अपने मन की मालिक होती है। किससे शादी करनी है यह वही लड़की तय करती है और कोई नहीं। साथ ही उसे हर तरह के ऐशो-आराम दिए जाते हैं। दोस्तों के साथ मौज करना, देर रात तक घूम के आना, लड़की है उसे जीने दो खुलकर।”
क्या हुआ आप लोग ऐसे क्या देख रहे हैं, कुछ अटपटा लगा क्या? जी हां! है उल्टा, है अटपटा क्योंकि यह सब लड़कियों को नसीब हो जाए तो काया ही पलट जाएगी। हमारा देश भले ही कितनी तरक्की कर रहा हो मगर यहां महिलाओं को एक सुरक्षित जीवन नहीं मिल पाया तो धिक्कार है ऐसे भारत देश पर और यहां के नागरिकों पर।
16 दिसंबर 2012 यही वह तारीख है जब देश की राजधानी में एक घिनौना जघन्य अपराध हुआ था। निर्भया के साथ 6 लोगों ने बर्बरता की हद पार कर दी थी। मुझे आज भी याद है 2012 में मैं गाज़ियाबाद में अपनी इंजीनियरिंग के तीसरे वर्ष में थी जब यह झकझोर देने वाला अपराध सामने आया। सच बोलूं तो मेरी रूह कांप उठी थी सब सुनकर। किस तरह उसके साथ वह सब किया गया और किया तो किया उसके शरीर को एक खिलौना समझकर नोचा गया, योनि में नुकीली रॉड घुसाई गई। जितनी तकलीफ मुझे अभी हो रही ये सब लिखने पर उससे कहीं ज्यादा दर्द वह सब पढ़कर हुआ था।
मैं उस दर्द को महसूस कर के अपनी योनि को दबाकर बैठ गई थी और आंसू मेरी आंखों से लगातार बह रहे थे। उस वक्त भी एक सवाल आया था जो आज भी आता है कि किस तरह का इंसान ऐसा कर सकता है? मतलब हम जानवरों को डरावना और खतरनाक कहते हैं पर निर्भया के साथ तो चंद घंटों में जानवरों से बदतर बर्ताव किया गया। हम खुद को मनुष्य कहते हैं मगर साबित करने में सक्षम नहीं हैं। क्या बीती होगी उसके माता-पिता पर जब उन्होंने अपनी बेटी को उस हालत में तकरीबन मरा हुआ बिस्तर पर देखा होगा? क्या बीती होगी निर्भया पर उसने सोचा भी नहीं होगा कि जिस बस में वह सवार हो रही है वही उसके लिए एक काल साबित होगी। मैं,आप, कोई भी उस दर्द को बस कुछ हद तक ही महसूस कर सकते हैं।
छह साल हो गए इस घटना को, मुज़रिमों को फांसी की सज़ा सुनाई गई, खूब कैंडल मार्च निकाले गए, लोगों ने सड़कों पर उतरकर सरकार, प्रशासन का पुरजोर विरोध किया। जनता के आक्रोश को देखते हुए सरकार और प्रशासन को कई नए कानून लागू करने पड़े।
जब कभी भी कोई ऐसी घटना होती है तो सरकार तुरंत ऐक्शन में आती है और रेपिस्ट को कड़ी से कड़ी सजा सुनाई जाती है।अरे भाई! फिर से आप लोग मुझे घूरने लगे। फिर कुछ अटपटा लगा क्या? समझदार हैं आप लोग क्योंकि वास्तव में यह अटपटी सी बात है। कानून तो खाली बोला गया फिर कमिटी की बैठक बुलाई गई। बातचीत हुई और आठ-दस नियम बना लिए गए। अब अच्छा नियम लागू इस्तेमाल करने की मांग या कोशिश मत करना। कानून बना लिए गए हैं वही कम है क्या?
सच में शर्म आती है मुझे, एक ऐसे देश में जहां इस तरह की बातें होती हैं, जहां दिखाने के लिए तो औरत देवी है मगर कब उसी देवी पर नीयत फिसल जाए क्या पता। कहने को तो “All women are my sisters” मगर कब उसी बहन के स्तनों को दबाकर भाग जाए क्या पता। यह बात सभी महिलाएं मानेंगी कि किसी न किसी रूप में उनके साथ शोषण हुआ है। चाहे वह स्कूल की कैंटीन हो या ट्यूशन, ठसाठस भरी बस हो या कोई फैमिली फंक्शन, कहीं न कहीं कुछ भेड़िये हमें मिल ही जाते हैं।
एक रोज दिन मैं भी अपनी साइकिल से ट्यूशन जा रही थी। एक पतली संकरी गली से होते हुए एक शार्टकट रास्ता था। मैं उस रास्ते से निकल ही रही थी कि न जाने कब एक लड़का तेजी से मेरे स्तनों को नोचता हुआ वहां से भाग गया। इसके पहले कि मैं कुछ समझ पाती वह मेरी आँखों से ओझल हो चुका था। मैं डरी हुई, असहज महसूस करती हुई धीरे-धीरे आगे बढ़ गई। एक और किस्सा याद आ रहा है मुझे कि यहां भारत में नवरात्रि में कन्या खिलाने का रिवाज है हैं। मैं भी अपने पड़ोसी के घर जाती थी। वहां जो भईया थे वह कन्या पूजन के दिन तो पैर छूते थे मगर लुका-छिपी का खेल खेलते वक्त मेरी वजाइना पर हाथ रख दिया करते थे। मैं उस समय तो चीज़ें समझने में असमर्थ थी मगर सच बताऊं तो आज जब वह सब याद आता है तो खून खौल उठता है। हर लड़की कभी न कभी इस चीज़ का सामना करती है।
हमारे देश में ढोंग बहुत होता है। यहां लड़कियों को सलाह दी जाती है कि किसी से कुछ कहना नहीं वरना लोग क्या कहेंगे, कुछ उंच-नीच तो नहीं हुई। अगर हमारे समाज का यही रवैया रहेगा तो बिलकुल हो जाएगी। इस तरह के केस में सपोर्ट की आवश्यकता होती है। आज भी महिलाएं अकेले निकलने से पहले समय देखती हैं, अनजान लोगों से बात करने से कतराती हैं, देर रात छोडि़ए, शाम 8 बजे तक हर हाल में लौटने की कोशिश में रहती हैं। हर समय एक खौफ सा रहता है दिल में। क्या किया जाए, आए दिन हम रोज़ एक नई घटना सुनते है। भाई अपनी बहन को नहीं छोड़ रहे, पिता अपनी बेटियों को नहीं बख्श रहा। हर रिश्ता यहां बदनाम होकर रह गया है और तो और लोग जब जानवरों को नहीं छोड़ रहे हैं तो हम तो महिलाएं हैं।
आखिर कहां जाकर रुकेगा ये किस्सा? कभी थमेगा भी कि नहीं? किस हद की बेशर्मी सवार है लोगों पर कि वे बस मौके ढूंढते हैं लड़कियों को छूने का। यह कैसा देश हैं मेरा और कैसे समाज में मैं रह रही हूं। जहां कब कौन एक रेपिस्ट बन जाए नहीं पता। कानून बनाने वाले तक हमें नहीं छोड़ते।
नेता महिलाओं पर तंज कसते है कि लड़की देर रात तक घर से बाहर क्यों थी, लड़की ने चुस्त और छोटे कपड़े क्यों पहने, लड़के को देखकर हंसी क्यों, अनजान व्यक्ति के साथ गई क्यों। वहीं कुछ लोग कहते हैं भाई साहब! लड़कियों का भी तो दोष है, क्यों सिग्नल देती हैं। ये शब्द होते हैं हमारे कानून का रखरखाव करने वालों के, नेताओं के, प्रशासन के। जब इनकी सोच इतनी घटिया होगी तो हम इनसे क्या न्याय और सम्मान की उम्मीद रखें। हमारी रक्षा के लिए बैठे लोग ही कब भक्षक बन जाए कोई नहीं जानता।
हर रोज किसी न किसी रूप से महिलाओं का शोषण हो रहा है। शारीरिक, मानसिक हर तरह से उसकी आत्मा को लोग नोच रहे हैं। रेप की घटनाएं जैसे आम सी हो गई हैं। रोज़ चाय के कप के साथ एक नई रेप की घटना अखबार में परोस दी जाती है। लोग उसे पढ़कर, अफसोस जताकर (कोई सेंसिबल इंसान हुआ तो) फिर भूल जाते हैं। हर रोज़ महिलाओं पर हो रहे अपराध सूचक है इस बात के कि हम “कुछ नहीं कर पाए हैं”। हम एक देश, एक नागरिक, एक इंसान हर रूप से नाकाम रहे हैं। महिलाएं किसी कोने में, किसी तरह से सुरक्षित नहीं है।
यहां छोटी बच्चियों तक को नहीं छोड़ रहे हैं। एक मासूम सी बच्ची जो सेक्स का मतलब क्या उसका नाम तक नहीं जानती है उसके साथ बलात्कार किया जा रहा। इससे ज्यादा शर्मनाक क्या हो सकता है? क्या बच्चियां भी चुस्त कपड़ों में थी या वे भी देर रात अकेले घूम रही थीं? दोष कपड़ों, देर रात तक घूमने या स्वतंत्र स्वभाव का नहीं है। असली दोषी उन मर्दों की सोच हैं। वे घटिया लोग तो साड़ी और घूंघट वाली महिलाओं को भी नहीं छोड़ते हैं तो कैसे दोष कपड़ों का हो गया? मेरी समझ से रेपिस्ट वे लोग होते हैं जो महिलाओं को स्वतंत्र और आगे बढ़ते नहीं देख सकते।
कानून बना देने से या वुमन हेल्पलाइन जैसी चीज़ें बना देने से बदलाव नहीं आएगा। जब तक लोगों की सोच नहीं बदलती, एक रत्ती का अंतर नहीं आएगा। महिलाएं बराबर की हकदार हैं। वे नाम कमा रही हैं, वे भी घूम सकती है दोस्तों के साथ। क्या यह सब हक सिर्फ लड़के के लिए ही बने हैं? हम महिलाओं को जीने का अधिकार नहीं हैं? क्यों हम हमेशा खौफ में जिएं? ऑफिस में डरे, भीड़ में डरे, पार्टीज में डरे, यहां तक कि अपने घरों – रिश्तेदारों के बीच भी असहज और डर महसूस करें? क्या हम महिलाएं बस किसी न किसी डर में ही जीती रहेंगी? नहीं,बिल्कुल नहीं।
क्या हम एकसाथ मिलकर इस स्थिति को सुधारने की कोशिश नहीं कर सकते? छह साल बीतने के बाद भी अगर निर्भया हमें देखती होगी तो सच में बहुत उदास होती होगी क्योंकि हम उसके चले जाने के बाद भी महिलाओं को सुरक्षा देने में असमर्थ रहे हैं। वह निर्भया थी जो आखिरी दम तक लड़ती रही और हम, एक समाज के रूप में एक देश के रूप में और एक इंसान के तौर पर बस कायर बन कर रह गए।
काश कुछ तो बदले, कुछ तो महिलाओं की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के प्रयास हो, (प्रैक्टिकल तौर पर सिर्फ कागज़ी नहीं) वर्ना वह दिन दूर नहीं जब सच में मां कहे बच्ची का गर्भपात ही करा दिया जाए, जिंदा रही तो भी कौन सा जी पाएगी।
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