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“सेरिब्रल पाल्सी पेशेंट को अचंभित होकर नहीं सामान्य नज़रिये से मिले”

हम बिस्तर का इस्तेमाल आराम करने या सोने के लिए करते हैं। दिनभर के काम के बाद अगर शरीर और मन थक जाए तो बिस्तर हमारा सहारा बनता है।

मगर, कभी यह बिस्तर किसी की मजबूरी हो जाए तो अकसर हम वैसे व्यक्ति को या तो सहानुभूति देते हैं या हम मज़ाक बनाकर चले जाते हैं। अगर वो समझने में भी असमर्थ हो तो यह उसके लिए नहीं, उसके परिवारवालों के लिए एक बहुत बड़ा चैलेंज होगा।

‘सेरिब्रल पाल्सी’ यह बीमारी असामान्य ज़रूर है मगर इस समाज से अनछुआ भी नहीं। Margarita With A Straw मूवी ने यूं तो कई अवॉर्ड्स जीते मगर उस बीमारी का ज़िक्र असल ज़िन्दगी में हो जाए तो हम और आप या तो भौंहे चढ़ा लेंगे या मुंह फेरकर चले जाएंगे मगर आपको जानकर थोड़ा झटका लगेगा कि दुनियाभर के हर 1000 बच्चों में से 2.1 बच्चे इस बीमारी का शिकार होते हैं।

Margarita With A Straw फिल्म का एक दृश्य

आपको कई परिवारों में ऐसे बच्चे मिल जाएंगे मगर सबके लक्षण अलग-अलग होते हैं, किसी में ज़्यादा तो किसी में कम। यह बीमारी लाइलाज तो नहीं मगर लक्षण के हिसाब से सुधार देखा जा सकता है। इस बीमारी से ग्रस्त बच्चे साधारण बच्चों से थोड़े कम समर्थ होते हैं। हम अपने समाज में बिना इनकी बिमारियों का आकलन किये, इन्हें या तो पागल, बददिमाग, कमज़ोर और ना जाने कैसे-कैसे उपनामों से जोड़ देते हैं।

ऐसे बच्चों के लिए दैनिक कार्य भी कितना तकलीफदेह होता है, यह दूर बैठे हम और आप बता नहीं सकते। मनोविज्ञान की माने तो इन बच्चों के घरवाले या तो डिप्रेशन में चले जाते हैं या समाज में कई तरह से बहिष्कार कर दिए जाते हैं। जैसे इनके घर से शादी-ब्याह करने से लोग कतराते हैं क्योंकि उनका मानना यह है कि यह एक जेनेटिक बीमारी होती है मगर यह बीमारी दिमाग के किसी हिस्से में चोट लगने से होती है।

यह अधिकतर जन्म के समय की चोट से या प्रेग्नेंसी के दौरान लगी चोट से ही होती है। बोलने में तकलीफ, चलने में तकलीफ, समझने में तकलीफ, नर्वस सिस्टम से कंट्रोल होने वाली हर क्रिया में इन्हें तकलीफ होती है।

इस बीमारी का आकलन करने मैं यहां नहीं आई हूं, बस जब भी हम और आप ऐसे लोगों से मिले तो कोशिश करें कि उनके सामने हम उन्हें अजूबा न बना दें। वे भी इस समाज और प्रजाति का ही हिस्सा हैं। कई मायनों में शायद हमसे ज़्यादा समर्थ भी। उनके परिवार और उनके आसपास के लोगों को किन चीज़ों का सामना करना पड़ता होगा, यह हम उनको बिना नज़दीक से जाने नहीं समझ सकते।

अगली बार जब भी किसी ऐसे बच्चे से मुलाकात हो तो मुस्कुरा कर उसका हालचाल पूछ लें। शायद वो आपको पहचान ना पाए मगर कहीं ना कहीं आप उसकी एक मुस्कान का कारण ज़रूर बन सकेंगे।

यूथ की आवाज़ के माध्यम से मैं समाज से यही चाहती हूं कि हम स्पेशल बच्चों को भी अपने बीच स्वीकार करें और कोशिश यह भी है कि इनके लिए पब्लिक प्लेस में भी खास सुविधाएं हो ताकि इनका घूमना फिरना भी आसान हो सके।

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