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“इज्तिमा तथा धर्म-सभाएं भारत के महाविनाश की तैयारी कर रही हैं”

भारतीय दर्शन में “धर्म” को “न्याय” का पर्याय माना गया है। याद करना ज़रूरी है कि गीता में ‘यदा-यदा ही धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत अभ्युथानाम अधर्मस्य, तदात्मानम सृजाम्यहम’ कहा गया है। अर्थात! जब-जब धर्म की हानि होगी, अधर्म का उत्थान होगा। “धर्म” का यहां मतलब “न्याय” से तथा ‘अधर्म’ का ‘अन्याय’ से है।

पहले “धर्म” की स्थापना का मतलब “न्याय” की स्थापना होती थी। “न्याय” जिसमें सजीव-निर्जीव का भेद नहीं, सबके लिए उचित एवं उत्कृष्ट जीवन। एक तरह से सम्पूर्ण एवं परिपूर्ण, खैर समय के साथ “धर्म” के मायने बदल चुके हैं। अब धर्म स्वतंत्र नहीं, अपने-आप में परिपूर्ण तथा सम्पूर्ण नहीं बल्कि अब यह बिना रेफ्रेन्स के तो खड़ा भी नहीं हो पाता, टिक ही नहीं पाता। कोई भी धर्म खुद अच्छा नहीं है, संप्रभु नहीं है बल्कि वो किसी की तुलना में ही बेहतर है। एक को नीचा दिखाने से ही दूसरा ऊपर दिखता है। पहले को कुत्सित बताने से ही दूसरा श्रेष्ठ हो पा रहा है।

“धर्म” अब वैश्विक नहीं बल्कि ‘सांप्रदायिक’ हो गया है, वो किसी “विशेष-संप्रदाय” में सीमित हो चुका है। अब वहां विश्व-कल्याण की नहीं बल्कि संप्रदाय के कल्याण भर की चर्चा हो पा रही है। अब धर्म ने ‘सामाजिक-न्याय’ के दर्शन को ‘मत्स्य-न्याय’ से परिभषित करना शुरू कर दिया है। अब धर्म में ‘सब’ नहीं बल्कि ‘बहुलता’ जैसे सिद्धांत प्रभावी हैं। धर्म अब विचार नहीं बल्कि संख्या की गिनती भर है। जो संप्रदाय जिस भी जगह बहुलता में है, सम्बल है वो न्याय को अपने पाले में खींच लेता है। वैसे भी प्रसिद्द ग्रीक दार्शनिक थ्रेसामस ने कहा है कि ऐसी स्थिति में न्याय बस ताकतवर लोगों की इच्छा बनकर रह जाता है।

असल में ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्यूंकि अब धर्म, राजनीतिक पार्टी अथवा दल बन गया है। हर धर्मों में राजनीतिक पार्टियों की तरह एक दूसरे को नीचे दिखाकर खुद को बेहतर साबित करने की होड़ सी मची हुई है। किसी भी राजनीतिक पार्टी के पास अपना कहने को कुछ भी नहीं बल्कि वो दूसरी पार्टियों की कमियों को उजागर करने में ही लगे रहते हैं। ठीक उसी तरह, किसी भी धर्म के पास खुद के दर्शन को बताने में कोई शिद्दत नहीं दिखती बल्कि वो दूसरे धर्मों की कमियों को उजागर करने में ही अपना ध्यान केंद्रित रखते हैं।

धर्म और राजनीतिक दलों में एक महत्वपूर्ण अंतर होता है। धर्म में जीत या हार नहीं होती क्यूंकि इसकी संकल्पना न्याय से प्रेरित है जबकि राजनीतिक पार्टियों में जीत अथवा हार एक महत्वपूर्ण विधा है। वैसे तो लोकतंत्र में यह विधा गोया हार-जीत की कोई जगह नहीं लेकिन दलीय राजनीति में यह विकार अब इसकी विशेषता बन गयी है। धर्म के इसी बनते स्वरुप के मद्देनज़र, आधुनिक युग में धर्म और राजनीति को अलग करने की कवायद ने ज़ोर पकड़ा और यूरोप ने इसे अंगीकृत भी किया। धर्म और राजनीति का मिश्रण एक महाविनाश की तैयारी ही है। ऐसे ही महाविनाश की तरफ हमारा भारत भी बढ़ चुका है। इस महाविनाश के लिए जगह-जगह धर्म-सभाएं हो रही हैं, इज्तिमा तथा जलसे हो रहे हैं।

भारत में हिन्दू धर्म-सभा अथवा मुस्लिम इजित्मा एवं जलसे को देख लिया जाए। उनके भाषणों को सुन कर साफ पता चल रहा है कि एक दुसरे को नीचे दिखाने के सिवाय कुछ भी नहीं. धार्मिक कटटरपंथ की आवाज बुलंद करने के अलावा, कुछ भी नहीं कर रहे हैं। इन सभाओं में धर्म को छोड़, राजनीति पर चर्चा होती है। वैसे भी अभी के समय में राजनीतिक पार्टियां, धर्म की चर्चा कर रहे हैं और विभिन्न धर्म या फिर धार्मिक पार्टियां (यही कहना उचित है) राजनीति की बात कर रहे हैं। बहरहाल, धर्म ने तो अध्यात्म से अपना नाता कबका तोड़ लिया है। अब वहां अध्यात्म, मानव-कल्याण, न्याय, मुक्ति, मोक्ष, निर्वाणा जैसी बातें एवं ज्ञान तो नदारद है।

अब धर्म एवं उनके नेता को विशेष संप्रदाय के धर्म की सत्ता चाहिए, ‘न्याय की सत्ता’ तो कहीं किसी के ज़हन में भी नहीं है। धर्म का राजनीतिक सत्ता से क्या लेना-देना। क्या इस्लाम के प्रवर्तक पैगम्बर मुहम्मद कभी सत्तासीन हुए? क्या हिन्दू धर्म के गुरुओं ने कभी सत्ता की लालसा ज़ाहिर की? लेकिन आज देश की संसद, सैकड़ों धर्माचारी एवं मठाधीशों से भरे पड़े हैं। मानव कल्याण, विश्व-कल्याण का तो पता नहीं लेकिन धर्मों का चोगा पहने सत्ता के लालची लोगों का कल्याण तो निसंदेह हो रहा है।

अब धर्म- सभाएं, इज्तिमा, जलसे इस देश के नागरिकों में ज़हर घोल रहे हैं, उनको एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं, उन्हें नागरिक बन जाने से रोक रहे हैं। धर्म को तो सम्भवतः करुणा, प्रेम, समन्वय की शिक्षा देनी चाहिए, लेकिन यहा तो इंसान को तर्क एवं बुद्धि से परे अंधविश्वास में धकेला जा रहा है। जिस संविधान ने सभी धर्मों को स्वावलम्बन के अधिकार दिए हैं, उसी संविधान के खिलाफ इन सभाओं में भाषण दिए जा रहे हैं। लोगों के बीच नफरत बोई जा रही है। हम सबको यह सोचना चाहिए कि इन सभाओं, जलसों से भोली-भाली जनता को कैसे बचाया जाय? इनके ‘मत्स्य-न्याय’ से ‘सामाजिक-न्याय’ की संकल्पना को कैसे बचाया जाय? अन्यथा भारत को आने वाले महाविनाश से कोई नहीं बचा सकता है।
#सत्यमेवजयते

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