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“एड्स पेशेंट्स को हमदर्दी नहीं चाहिए, बस उनके बारे में अफवाहें उड़ाना बंद कर दीजिए”

एड्स के प्रति जागरूकता

एड्स के प्रति जागरूकता

तमाम जागरूकता अभियानों के बावजूद एड्स को आज भी सामाजिक कलंक के तौर पर देखा जाता है। घर-परिवार और समाज से लेकर कामकाज की जगहों तक एचआईवी एड्‌स से ग्रसित लोगों के साथ भेदभाव किया जाता है। हैरत और दु:ख की बात तो यह है कि कई डॉक्टर्स भी एड्स पेशेंट्स के साथ भेदभाव करते हैं जिनके कंधे पर उनके देखभाल की ज़िम्मेदारी होती है।

आलम यह है कि 74 प्रतिशत एचआईवी पॉज़िटिव व्यक्ति अपने कामकाज की जगह पर अपनी बीमारी की बात छिपाकर रखते हैं। इस भेदभाव में लिंग का भी खास दखल दिखाई देता है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को ज़्यादा कहर झेलना पड़ता है। महिलाओं को अगर एचआईवी एड्स का संक्रमण होता है तब उन्हें घर छोड़ने के लिए कह दिया जाता है। पत्नियां अपने एचआईवी पॉज़िटिव पति की देखभाल करने में संकोच नहीं दिखाती हैं, जबकि पति कम ही मामलों में सहायक साबित होते हैं।

एड्स पेशेंट्स के साथ भेदभाव इसलिए भी होता है क्योंकि उन्हें लेकर समाज में तरह-तरह की बातें फैलाई गई हैं। हमारे देश में एड्‌स का पहला मामला लगभग 21 साल पहले चेन्नई में पाया गया था। एक आंकड़े के मुताबिक भारत में 25 लाख से ज़्यादा लोग एड्स पेशेन्ट्स हैं। भारत सरकार के राष्ट्रीय एड्‌स नियंत्रण संगठन (नाको) के मुताबिक लगभग 18 प्रतिशत एचआईवी पॉज़िटिव लोग अपने पड़ोसियों से भेदभाव के शिकार होते हैं, जबकि 9 प्रतिशत को समुदाय या शिक्षण संस्थान के स्तर पर अपमान व प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है।

जब भी किसी इंसान को एड्स पेशेंट्स से वास्ता पड़ता है तब उसके ज़हन में पहली चीज़ यह आती है कि ज़रूर इसने शारीरिक संपर्क कायम किया होगा। समाज में लोगों को लगता है कि एचआईव एड्स का मतलब है वैवाहिक रिश्तों में बेवफाई या गलत आचरण।

आए दिन अखबारों में ऐसे अस्पतालों या डॉक्टरों की खबरें आती रहती हैं, जो एचआईवी पेशेंट्स के इलाज और देखभाल के लिए मना कर देते हैं। यह इल्ज़ाम लगने के डर से लोग मौन रहना ही पसंद करते हैं। इसके लिए यह बताया जाना ज़रूरी है कि असुरक्षित इंजेक्शन जैसे तरीकों से भी यह संक्रमण फैलता है।

चूंकि असुरक्षित यौन संबंध सबसे बड़ा कारण है, इसलिए जागरूकता अभियानों में यह बात सबसे पहले लानी होती है कि पुरुष ‘कॉन्डम’ का इस्तेमाल करें। इसी मुद्दे पर समाज की ‘नैतिकता’ आड़े आ जाती है। कॉन्डम या यौन सम्बन्ध का ज़िक्र आते ही लोग खुली चर्चा से बिदकने लगते हैं। उन्हें लगता है कि इस तरह समाज में अश्लीलता को बढ़ावा मिलता है। जब भी देश के स्कूलों में सेक्स एजुकेशन देने की बात उठती है, तब हंगामा खड़ा हो जाता है।

एड्स जागरूकता अभियान। Photo Source: Getty Images

एचआईवी एड्‌स के बारे में खुलकर बातचीत ना होने और सामाजिक भेदभाव के चलते बड़ी तादाद में देश के युवा सुरक्षित यौन संपर्कों के मामले में अनजान हैं। यही वजह है कि अब कम उम्र के बच्चे भी एड्स पेशेंट्स हो रहे हैं।  नाको की रिपोर्ट के मुताबिक एड्‌स के कुल मामलों में करीब एक तिहाई 15 से 19 साल के किशोर हैं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि हमारी अगली पीढ़ी संकट में पड़ सकती है।

लगभग यही हाल महिलाओं का भी है। कम उम्र में शादी, चुप्पी, अज्ञानता और सामाजिक गैर बराबरी के चलते महिलाओं और लड़कियों में एचआईवी के संक्रमण का जोखिम अधिक है। आज हालत यह है कि एड्‌स के चार मामलों में से एक महिला है लेकिन नए संक्रमित व्यक्तियों में महिलाओं की तादाद तेज़ी से बढ़ रही है। देश में कुल एचआईवी संक्रमित लोगों में लगभग 40 प्रतिशत महिलाएं हैं।

एचआईवी एड्‌स के प्रति जागरूकता लाने के अभियानों में सबसे ज़्यादा निशाना यौन संबंधों को ही बनाया जाता है लेकिन एचआईवी संक्रमण फैलने की यह एकमात्र वजह नहीं है। लगभग दो प्रतिशत मामले एचआईवी संक्रमित खून या अन्य रक्त उत्पादों के इस्तेमाल के कारण होते हैं।

तमाम वैज्ञानिक विकास के बावजूद आज भी एचआईवी एड्‌स एक लाइलाज बीमारी के रूप में बड़ी चुनौती बन चुकी है। सही जानकारी और उचित सावधानियां बीच-बचाव के तरीके हैं। यह संक्रमण हम सबका साझा दुश्मन है और इसे अकेले रहकर ठिकाने नहीं लगाया जा सकता। हम सभी को साथ मिलकर कोई पहल करनी होगी जिससे एड्स पेशेन्ट्स को ज़िन्दगी जीने की राह दिखाई पड़े।

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