Site icon Youth Ki Awaaz

आधे दिल से बनाई गई फिल्म ‘केदारनाथ’ इन वजहों से देखी जानी चाहिए

रॉक ऑन’ और ‘काई पो चे’ जैसी फिल्में बनाने वाले अभिषेक कपूर की फ़िल्म ‘केदारनाथ’ रिलीज़ हो चुकी है। नवोदित सारा अली खान एवं सुशांत सिंह राजपूत के नामों से सजी कहानी केदारनाथ प्राकृतिक आपदा के इर्द गिर्द बुनी गई है। सैफ अली खान एवं अमृता सिंह की बेटी सारा अली खान की डेब्यू के लिए फिल्म का लम्बे समय से इंतज़ार था। फिल्म से गुज़रकर इंतज़ार बेमानी नहीं लगा।

सारा ने पहले ही एफर्ट में काफी प्रभावित किया है। सारा ने सहज-सरल और सुगम अदाकारी की अच्छी मिसाल कायम की है। सारा अली खान सधी हुई अभिनेत्री लगी हैं। सुशांत सिंह राजपूत ने मंसूर के किरदार के लिए काफी मेहनत की है। मंसूर के किरदार में उनका अभिनय निखरा है। सुशांत एवं सारा के लिए फिल्म देखना बनता है। फिल्मांकन भी उसे देखने की एक बड़ी वजह हो सकती है। फिल्म कहने में लेकिन मात खा गई है।

केदारनाथ की जब घोषणा हुई तब एक उम्मीद जागी थी कि हिंदी सिनेमा अब प्राकृतिक आपदाओं को डॉक्यूमेंट कर रहा है। पहली बार भी नहीं क्योंकि इमरान हाशमी की ‘तुम मिले’ में मुंबई की बाढ़ पर फिल्म बनी थी। केदारनाथ आपदा ने कई घरों को उजाड़ा, परिवार बर्बाद हो गए, ज़िंदगियां तबाह हो गईं, हज़ारों हमवतन हमेशा के लिए खो गएं। अभिषेक कपूर की फिल्म ने उसी स्मृति को एक कहानी के ज़रिए अच्छे से जीया है। लव स्टोरी के साथ केदारनाथ के वो मंज़र बड़े पर्दे पर उतारने की कोशिश हुई है। फिल्म को इस नेक कोशिश के लिए ही देखना बनता है।

प्रेम अमर होता है, इसलिए प्रेम कहानियां भी अमर होती हैं। दो पात्र होते हैं, संघर्ष के लिए अलग इतिहास व वर्त्तमान होता है, आकर्षण होता है, प्यार के समानांतर नफरत होती है। पात्रों के परिवेश में एकरूपता का ना होना आम होता है। कभी लड़का गरीब तो लड़की अमीर। कभी लड़की हिन्दू तो लड़का मुसलमान। इनके प्यार के सामने आग का दरिया होता है, परिवार एवं हालात दोनों खिलाफ होते हैं, लेकिन अक्सर अंत तक सब ठीक हो जाता है, सुख देता है।

कहानी ज़िद्दी, खुशमिज़ाज और अल्हड़ मंदाकिनी उर्फ मुक्कु (सारा अली खान) से शुरू होती है। मुक्कु हिन्दू परिवार से आती है, ऊंची जाति वाली मुक्कु को तीर्थयात्रियों को कंधे पर ज़्यारत कराने वाले मुस्लिम लड़के मंसूर (सुशांत सिंह राजपूत) से मुहब्बत हो जाती है। इनकी मुहब्बत में साठ दशक की फिल्म ‘जब-जब फूल खिले’ की छाप नज़र आती है। समाज को दोनों का प्यार पसंद नहीं। प्यार को तोड़ने की भरपूर जद्दोजहद शुरू हो जाती है।

मुक्कू केदारनाथ के सबसे बड़े पंडितजी की बिटिया है जबकि मंसूर मामूली मज़दूर यह प्रेम नामुमकिन सा लगता है। अलग धर्म की वजह से दो प्रेमियों की राह में काफी अड़चनें आती हैं। दो समुदायों का जातिगत व सामाजिक मतभेद खाई बनता है। नफरत की राजनीति के समय फिल्म नेक संदेशों की तरफ की है।

‘केदारनाथ’ पहाड़ों और वादियों में बुनी गई एक नेक कोशिश है। हिमालय की खूबसूरत तस्वीरों को बेहद खूबसूरती से फिल्माया गया है। स्थानीय परिवेश को बढ़िया से रचा गया है। रहने वालों के दरम्यान निराला रिश्ता है। अभिषेक कपूर- कनिका ढिल्लन की स्क्रिप्ट सेक्युलर भाव से शुरू होती है। लेकिन मंदाकिनी व मंसूर का प्यार समीकरण बदल देता है। एक समय प्रेम से साथ रहने वाले लोग मुहब्बत को प्रेस्टिज का विषय बना लेते हैं, धर्म पर आन पड़ी आंच हो मानो। प्रेमियों को अलग करने के लिए पंडितों और पिट्ठुओं के बीच ठन जाती है। इसी बीच केदारनाथ की प्राकृतिक आपदा भी आ जाती है। प्रेम पर होने वाले प्रहार व आपदा में एक संबंध सा था शायद। फिल्म कुछ ऐसा ही इशारा करती है। प्रलय को प्रेमियों के साथ हुए अत्याचार से जोड़ा गया है।

धार्मिक स्थलों पर उमड़ती भीड़, टूरिज्म के लिए होटल और इमारतें, कुदरत का पहलू इन सबको जोड़ती प्रेम कहानी। किसी भी नए कथन के लिए यह चीज़ें कमाल की हो सकती थीं लेकिन हो नहीं सकीं। सम्भावना पराजित सी हुई है फिर से बॉलीबुड में। अभिषेक कपूर की ‘केदारनाथ’ बहुत बेहतर हो सकती थी, जाने क्यूं आधे दिल से बनाई गई।

Exit mobile version