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“जिनकी दाढ़ी में तिनका है उन्हें ही कंप्यूटरों की निगरानी वाले फैसले से ऐतराज़ है”

राहुल गाँधी

राहुल गाँधी

20 दिसंबर, 2018 को गृह मंत्रालय की ओर से एक आदेश जारी करते हुए देश के दस प्रमुख सुरक्षा एजेंसियों को देश में मौजूद किसी भी कंप्यूटर की निगरानी का अधिकार दे दिया गया है। इन एजेंसियों में खुफिया ब्यूरो, मादक पदार्थ नियंत्रण ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी), राजस्व खुफिया निदेशालय (डीआरआई), सीबीआई, एनआईए, कैबिनेट सचिवालय (रॉ), डायरेक्टरेट ऑफ सिग्नल इंटेलिजेंस और दिल्ली के पुलिस आयुक्त शामिल हैं।

अब यह एजेंसियां इंटरसेप्शन, मॉनिटरिंग और डिक्रिप्शन के उद्देश्य से किसी भी कंप्यूटर के डेटा को खंगाल सकती हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय के साइबर एवं सूचना सुरक्षा प्रभाग की तरफ से गृह सचिव राजीव गाबा द्वारा इस आदेश को जारी किया गया।

केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से जारी इस विवादित आदेश के पारित होते ही इस संबंध में राजनीति तेज हो गई है। विभिन्न राजनीतिक पार्टियों एवं लोगों द्वारा अपनी-अपनी दलीलों के ज़रिए इसका विरोध किया जा रहा है। काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने सरकार पर ‘पुलिस राज’ लागू करने और असुरक्षित तानाशाह होने का आरोप लगाया है।

सीताराम येचुरी। फोटो साभार: सोशल मीडिया

वही सीपीएम पोलित ब्यूरो और पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी ने अपने ट्वीट के ज़रिए यह सवाल उठाया है कि प्रत्येक भारतीय के साथ अपराधी की तरह व्यवहार क्यों किया जा रहा है? उन्होंने इस आदेश को पूर्णत: असंवैधानिक बताते हुए दलील दी है कि यह टेलिफोन टेपिंग संबंधित दिशानिर्देशों तथा निजता और आधार पर अदालती फैसले का उल्लंघन करता है।

काँग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने अपने ट्वीट में कहा, “चुनाव हारने के बाद मोदी सरकार अब आपके कंप्यूटर की जासूसी करना चाहती है। यह निंदनीय प्रवृत्ति है।”

दूसरी ओर आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सवाल उठाते हुए कहा है कि क्या दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी में मूलभूत अधिकारों का इस तरह से हनन स्वीकार किया जा सकता है?

इनके अलावा, वॉट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक आदि तमाम सोशल साइट्स पर बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों एवं आम लोगों ने भी इस संबंध में अपनी शंकाएं एवं असहमतियां जाहिर की हैं। इस बारे में मैं अपना कोई व्यक्तिगत विचार रखने से पूर्व कुछ घटनाओं एवं तथ्यों का ज़िक्र करना मुनासिब समझती हूं।

सूचना क्रांति के इस युग में जितनी तेजी से लोगों के हाथों में मोबाइल फोन की उपलब्धता हुई है, वह अपने आप में चौंकानेवाले तथ्य हैं। एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में देश में 50 करोड़ से अधिक इंटरनेट यूज़र्स हैं। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की तरफ से जारी रिपोर्ट ‘इंटरनेट इन इंडिया 2017’ के मुताबिक देश में इंटरनेट का सबसे अधिक इस्तेमाल यंगस्टर्स और स्टूडेंट्स द्वारा किया जाता है, जो कि इसे एंटरटेनमेंट और सोशल मीडिया के लिए यूज करते हैं।

नोट: तस्वीर प्रतीकात्मक है। फोटो साभार: Flickr

महिलाओं की बात करें तो देश की करीब 14.3 करोड़ महिलाएं ही इंटरनेट इस्तेमाल करती हैं। इस तरह देश में कुल जनसंख्या का 35 फीसदी हिस्सा इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। रिपोर्ट के मुताबिक दिसंबर 2016 से दिसंबर 2017 के बीच इंटरनेट यूजर्स की संख्या में अर्बन इंडिया में 9.66% और रूरल इंडिया में 14.11% की बढ़त देखने को मिली। शहरों में जहां करीब 29.5 करोड़ इंटरनेट यूज]र्स हैं, वही गाँवों में 18.6 करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों यूज़र बेस कम होने की वजह से उनकी ग्रोथ अधिक लगती है।

खैर, यहां गौर करने वाली बात यह है कि जो भी लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें इसके बारे में कितनी सही और समुचित जानकारी है। यह भी विचारणीय है कि इंटरनेट के माध्यम से जो सूचनाएं या सामग्रियां उन्हें प्राप्त होती हैं, क्या वे उसे स्वीकार या अस्वीकार करने से पूर्व उसका तार्किक विश्लेषण करते हैं या करने का प्रयास करते हैं या फिर वे ऐसा करने में सक्षम हैं?

क्या वे किसी सूचना को फॉरवर्ड करने से पूर्व अपने स्वविवेक का इस्तेमाल करते हैं? अगर इन तमाम सवालों का हम जवाब ढूढें, तो जवाब शायद ‘ना’ में ही मिलेगा। आज की भागमभाग भरी ज़िन्दगी में शायद ही किसी के पास इतना समय होता है कि वह इमेल, वॉट्सऐप, फेसबुक आदि स्रोतों से प्राप्त प्रत्येक सूचना को ध्यानपूर्वक पढ़ें और उसका विश्लेषण करें। इसी वजह से पिछले कुछ समय में देश को कई बार ऐसे गंभीर एवं नकारात्मक हालातों का सामना करना पड़ा हैं, जो देश की सुरक्षा और संप्रभुता के लिए खतरा हो सकता था। ऐसी चंद घटनाओं की बानगी देंखे-

लगातार बढ़ रही ऐसी घटनाओं से सरकार के साथ-साथ इंटरनेट सर्च इंजन कंपनियों और सोशल मीडिया साइट्स के मालिकान भी गहरी चिंता में हैं। वे लगातार इस पर अंकुश लगाने के बारे में विचार कर रहे हैं। उनका मानना है कि महज़ सोशल मीडिया पर गहरी और पैनी नज़र रखने भर से काम नहीं चलने वाला है।

इसके लिए सघन रूप से जागरुकता अभियान चलाना ज़रूरी हो गया है। सोशल मीडिया खास कर वॉट्सऐप पर पर लगातार फेक न्यूज़ प्रसारित हो रहे हैं, जिन पर अंकुश के लिए सोशल मीडिया साइट्स निरंतर प्रयासरत हैं। सोशल मीडिया की समस्याओं के समाधान के लिहाज से कानून और तकनीकी, दोनों स्तरों पर विचार किया जा सकता है।

कानूनी स्तर की बात करें, तो इंटरनेट से संबंधित हर प्रकार के अपराध की शिकायत के लिए सरकार द्वारा साइबर क्राइम विभाग का गठन किया हुआ है लेकिन इसका कार्यक्षेत्र सीमित है, क्योंकि जब तक कोई शिकायत इसके पास ना आए, यह कार्रवाई नहीं कर सकता। इस वजह से यह ऐसी समस्याओं के समाधान की दिशा में बेहद कारगर साबित नहीं हो पा रहा है।

इंटरनेट संबंधित सुरक्षा को विनियमित करने के लिए समय-समय पर सरकार की ओर से भी विभिन्न दिशा-निर्देश भी जारी किए जाते रहे हैं। इसी क्रम में पिछले दिनों सरकार ने देश की 10 सुरक्षा ऐजेंसियों को देश के सभी कंप्यूटरों की निगरानी का अधिकार सौंपा है।

क्या कहता है आदेश?

सरकार द्वरा जारी आदेश में कहा गया है कि ”उक्त अधिनियम (सूचना प्रौद्योगिकी कानून, 2000 की धारा 69) सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों को किसी कंप्यूटर सिस्टम द्वारा निर्मित, नियोजित, प्राप्त या भंडारित किसी भी प्रकार की सूचना के इंटरसेप्शन, मॉनिटरिंग और डिक्रिप्शन के लिए प्राधिकृत करता है।”

सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 69 किसी कंप्यूटर संसाधन के जरिये किसी सूचना पर नजर रखने या उन्हें देखने के लिए निर्देश जारी करने की शक्तियों से जुड़ी हैं।

राहुल गाँधी। फोटो साभार: Getty Images

विपक्ष द्वारा इस बात की संभावना जताई जा रही है कि भविष्य में इस विशेषाधिकार का दुरुपयोग किया जा सकता है, इसलिए इन एजेंसियों को फोन टेप करने तथा कंप्यूटर्स चेक करने की छूट देना खतरनाक है। राज्य सभा में गुलाम नबी आज़ाद द्वारा पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि इससे आम लोगों के जीवन पर कोई असर नहीं होगा।

विपक्षी पार्टियों के इस विरोध के प्रतिक्रिया स्वरूप सरकार ने यह भी स्पष्ट किया कि निगरानी का काम कोई भी व्यक्ति नहीं कर सकता और ना ही किसी भी व्यक्ति या कंप्यूटर की निगरानी नहीं की जा सकती है। यदि आतंकवादी गतिविधि, कानून व्यवस्था, देश की अखंडता से जब जुड़ा मामला हो तब अधिसूचित एजेंसियां संबंधित व्यक्ति के उपकरणों की निगरानी कर सकती हैं लेकिन इसके लिए इन ऐजेंसियों को पहले केंद्रीय गृह सचिव को सूचित करना होगा और उनकी मंजूरी लेनी होगी।

यह पूरी प्रक्रिया एक ठोस समीक्षा तंत्र पर निर्भर होगी। हर एक मामले में गृह मंत्रालय या राज्य सरकार की पूर्व मंजूरी लेना अनिवार्य है। गृह मंत्रालय ने किसी कानून प्रवर्तन एजेंसी या सुरक्षा एजेंसी को अपने अधिकार नहीं दिये हैं। गृह मंत्रालय ने अपने पक्ष को विस्तार से बताने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी नियम-2009 के नियम-4 का इस्तेमाल किया।

सूचना प्रौद्योगिकी (सूचना खंगालने, निगरानी करने और जांच करने हेतु प्रक्रिया और सुरक्षा) नियमावली 2009 के नियम 4 में यह प्रावधान है कि सक्षम अधिकारी किसी सरकारी एजेंसी को किसी कंप्यूटर संसाधन में सृजित, पारेषित, प्राप्त अथवा संरक्षित सूचना को अधिनियम की धारा 69 की उप धारा (1) में उल्लेखित उद्देश्यों के लिए खंगालने, निगरानी करने अथवा जांच करने के लिए अधिकृत कर सकता है।

वैधानिक आदेश दिनांक 20.12.2018 से निम्नलिखित रूप में मदद मिलेगी :

पहले भी जारी हो चुका है ऐसा आदेश

इससे पहले भी ऐसे आदेश जारी हो चुके हैं। देश की अखंडता और सुरक्षा के मद्देनजर इस तरह के प्रावधान पहले भी मौजूद रहे हैं। पूर्व के एक आदेश के अनुसार, केंद्रीय गृह मंत्रालय को  करीब 100-150 साल पहले बने ‘भारतीय टेलीग्राफ कानून’ के प्रावधानों के तहत फोन कॉल्स की टेपिंग और उनके विश्लेषण के लिए खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों को अधिकृत करने या मंजूरी देने का अधिकार पहले से ही प्राप्त है।

यह कानून पिछली कई सरकारों के कार्यकाल में चलता रहा। जब कभी भी राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न आया है, सरकार इस कानून के तहत कुछ एजेंसियों को निगरानी का अधिकार सौंपती रही है। इसके लिए एजेंसियां अधिसूचित होती हैं। पिछले करीब दो दशकों में सूचना क्रांति के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है। देश का लगभग हर सरकारी और गैर-सरकारी विभाग कंप्यूटरीकृत हो चुका है।

इन कंप्यूटर्स में महत्वपूर्ण सरकारी और गैर-सरकारी आंकड़ें भंडारित हैं, जिन पर असामाजिक तत्वों की पैनी नज़र रहती है। आए दिन इन डाटा की सुरक्षा में सेंध लगाने के मामले सामने आते रहते हैं। इसी के मद्देनजर 18 साल पहले वर्ष 2000 में ‘आइटी एक्ट’ पारित किया गया।

संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के अंतर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जो पाबंदियां लगायी गई हैं, उन्हें आइटी कानून की ‘धारा-69’ में पूरी तरह शामिल कर लिया गया। इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधित विषय शामिल हैं। इसमें यह कहा गया है कि जब कोई भी व्यक्ति राष्ट्रीय सुरक्षा आदि के साथ खिलवाड़ कर रहा होगा तब इन एजेंसियों को अधिकार दिया गया है कि वे उस व्यक्ति की निगरानी कर सकते हैं। इसमें आम आदमी की निजता और उसके अधिकारों के संरक्षण हेतु भी उचित प्रावधान किये गए हैं।

वर्ष 2008 में इस एक्ट में एक बड़ा बदलाव करते हुए इसमें ‘धारा 66-ए’ को जोड़ा गया। इस धारा में शामिल प्रावधानों के अनुसार यदि सोशल मीडिया के किसी भी मंच से कोई व्यक्ति ऐसी टिप्पणी करता है या उसे पसंद (लाइक) करता है, जिससे देश की संप्रभुता, व्यवस्था व सांप्रदायिक माहौल को ठेस लगती है, तब ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार किया जा सकता है। पुलिस उसे कोर्ट में पेश कर सकती है और उस पर संबंधित मामले में उपयुक्त अन्य धाराएं जोड़ कर भी मुकदमा चला सकती है। हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को विवादास्पद मानते हुए इसे निरस्त कर दिया।

निष्कर्ष

इन चीज़ों का सार यह है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से फैलाई जा रही भ्रामक और उत्तेजनापूर्ण खबरों के प्रचार-प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए ना केवल सरकार और आइटी कंपनियों को इस दिशा में मिल कर काम करने की ज़रूरत है, बल्कि इसमें आम जनता की सहयोगपूर्ण भागीदारिता भी बेहद जरूरी है।

बिना हमारे समुचित सहयोग के कोई भी तंत्र इस कार्य में पूर्णत: सफल नहीं हो सकता। जहां तक बात निजी सुरक्षा में सेंध लगाए जाने की है, तब मेरा मानना है कि भारतीय लोकतंत्र में आम आदमी के अधिकारों के संरक्षण हेतु पर्याप्त प्रावधान मौजूद हैं। फिर सरकार इतनी बेवकूफ तो है नहीं और ना ही इन दसों सुरक्षा ऐजेंसिंयों के पास इतना फालतू का समय है कि वह देश के हर नागरिक का इमेल अकाउंट खंगालती रहे।

काँग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल। फोटो साभार: Getty Images

जिन लोगों या संस्थाओं पर उन्हें संदेह होगा, वे उन्हें ही अपनी निगरानी के दाएरे में रखेंगी और इसके लिए भी उन्हें गृह मंत्रायल की कमिटी से स्वीकृति लेनी होगी। अत: मुझे नहीं लगता कि आम आदमी को इस बारे में डरने या घबराने की ज़रूरत है। हां, जिनकी दाढ़ी में तिनका होगा, वे जरूर अपना बचाव करने के लिए हो-हल्ला मचाएंगे।

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