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क्या यूपी को ‘काँग्रेसमुक्त’ करने का मोदी का मिशन कामयाब हो पाएगा?

हिन्दी पट्टी के तीन राज्यों के प्रतिकूल चुनाव परिणाम के बाद अपनी पार्टी पर छाये अवसाद को दूर कर कार्यकर्ताओं में नई जान फूंकने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक ही दिन में उत्तर प्रदेश में 2 आक्रामक सभाओं को संबोधित किया। हालांकि उत्तर प्रदेश का उनका यह दौरा विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के पहले ही प्रस्तावित हो चुका था। इस दौरे में प्रधानमंत्री अभी से लोकसभा चुनाव की रणभेरी बजाते नज़र आए, जिसमें उन्होंने प्रमुख प्रतिद्वंदी दल कॉंग्रेस पर जमकर अग्निवाण बरसाये।

किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि उत्तर प्रदेश में अपने वजूद तक के लिए मोहताज हो चुकी कॉंग्रेस को प्रधानमंत्री ने जोश खरोश के साथ निशाने पर लेने में मेहनत बर्बाद क्यों की, जबकि राज्य की वास्तविक रूप से प्रभावी दोनों पार्टियों सपा और बसपा का उन्होंने नाम तक लेना गवारा नहीं समझा।

हालांकि नाम तो उन्होंने कॉंग्रेस के भी शीर्ष नेताओं का नहीं लिया लेकिन सभी को समझ में आ रहा था कि उनके गुस्से का नजला कहां टूट रहा है। इसमें दो राय नहीं है कि प्रधानमंत्री इन कार्यक्रमों में इतने आक्रोश और आवेश में रहे कि राजनीतिक प्रतिद्वंदिता से ऊपर व्यक्तिगत शत्रुता का पुट साफ झलका। यही कारण है कि अब स्थितियां ऐसी बन गई हैं कि आमने सामने पड़ जाने पर मोदी और राहुल में शिष्टाचारगत संवाद की भी गुंजाइश नहीं रह गई है।

बहरहाल, बात इसकी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रायबरेली और प्रयागराज में भी सपा बसपा की बजाय उत्तर प्रदेश में मृतप्राय मानी जा रही कॉंग्रेस पर अपने तरकश के सारे तीर झेल कर उसका भाव बढ़ाने का जोखिम क्यों मोल लिया। नरेंद्र मोदी अनाड़ी राजनीतिज्ञ नहीं हैं, उनका हर दांव बहुत सधा हुआ होता है इसलिये उनके इस पैंतरे के निहितार्थ बूझने होंगे।

सबसे पहले तो उन्होंने उत्तर प्रदेश से अनौपचारिक तौर पर लोकसभा चुनाव अभियान का श्रीगणेश करते हुए रायबरेली और प्रयागराज को चुना जो अनायास नहीं है, इन जगहों का राजनीति में प्रतीकात्मक महत्व है। रायबरेली पहले इंदिरा गांधी का निर्वाचन क्षेत्र रहा है और इसके बाद सोनिया गांधी का है।

प्रयागराज से नेहरू परिवार का पुश्तैनी है। यह अजीब लगता है कि भारतीय जनता पार्टी के शिखर पुरुष स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी के लिए पंडित नेहरू आदर्श थे, भले ही वे हमेशा कॉंग्रेस के विरोध में रहे हो और नेहरू के प्रति अपनी अनुरक्ति को वे छुपाते भी नहीं थे। दूसरी ओर वर्तमान में भाजपा की ऊर्जा का स्रोत नेहरूवाद का कट्टर विरोध है। इसे भाजपा ने विचारधारा की प्रमुख लड़ाई में बदल दिया है। नेहरू के आधुनिक बोध को ब्राह्मण संस्कृति के विरोध के रूप में प्रदर्शित कर दिया गया है जबकि नेहरू के खिलाफ चौधरी चरण सिंह आदि लगातार ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हुए चिट्ठियां लिखते रहे थे, जिनमें उन पर आरोप लगाया जाता था कि उन्होंने लगभग सारे मुख्यमंत्री ब्राह्मणों में से बना रखे हैं।

भाजपा की प्रचार विंग कमाल की है माया युद्ध में अत्यंत निपुण-राम चरित मानस में वर्णित मेघनाथ के कौशल की तरह। इस विंग ने सोशल मीडिया के ज़रिये जवाहर लाल नेहरू और उनके पिता मोतीलाल नेहरू को खांटी मुसलमान साबित करने का अभियान छेड़ रखा है, जिहोंने जालसाज़ी से अपने को हिन्दू घोषित कर लोगों की आंखों में हमेशा धूल झोंकी।

नेहरू के नाम पर विषाक्त प्रचार के कारण ऐसा माहौल निर्मित हो गया है कि देश के एक बड़े वर्ग में उनका नाम आते ही नफरत धधक उठती है। नेहरूवाद से द्वेष के पीछे और भी वजह हैं। उनके समय भूमि सुधार के संबंध में जो कानून लागू किए गए उनसे प्रभावित जातियों में इसका दंश हमेशा रहा है।

नेहरू बनाम सरदार पटेल की बहस ने इसे और सींचा। उनकी किसान और पिछड़ा विरोधी छवि उभरी। भाजपा के परम्परागत वोट बैंक से नेहरू के प्रति नफरत का दायरा बहुत विशाल हो चुका है। इसको कैश कराने की बेताबी मोदी में क्यों ना हो। रायबरेली और प्रयागराज को नए चुनावी प्रयाण के लिए चुनकर मोदी ने इसे ताज़गी दे दी है। ज़ाहिर है कि उत्तर प्रदेश को केंद्र बनाकर उन्होंने इसका देशव्यापी स्तर पर नगाड़ा बजाया है।

दूसरी ओर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी राष्ट्रीय दल की मान्यता के लिए ज़ोर भले ही लगाती हो लेकिन इनके द्वारा उठाये जाने वाले मुद्दों की तासीर देखी जाएं तो कहीं से ये राष्ट्रीय दल नज़र नहीं आते। इनकी पहचान संकीर्ण है इसलिये मोदी की रणनीति यह है कि सन् 2014 के लोकसभा चुनाव की तरह आगामी लोकसभा चुनाव में भी उत्तर प्रदेश सहित हर राज्य में राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्रुवीकरण की स्थिति बनायी जाये जिससे सपा, बसपा स्वत: अप्रसांगिक होकर बाईपास हो जाएंगी। इसी रणनीति के तहत उत्तर प्रदेश में भी उन्होंने सिर्फ कॉंग्रेस को ललकारा जबकि सपा और बसपा को नज़रअंदाज़ कर दिया।

हालांकि इस बीच अन्तर यह आया है कि पहले मोदी अपने मुकाबले राहुल को कहीं नहीं देखना चाहते थे लेकिन अब उन्हें एहसास हो चुका है कि राहुल ने उनको मुकाबले में बखूबी स्थापित कर लिया है, जिससे उन्हें लेकर किसी तरह की गफलत भारी पड़ सकती है। नामदार के लाक्षणिक संबोधन से अब वे सीधे राहुल पर हमलावर होने को तत्पर हैं।

उनकी इस रणनीति का एक पहलू यह भी है कि वो कॉंग्रेस हाईकमान को प्रतिरक्षा की स्थिति में धकेल देना चाहते हैं ताकि वो अपने गढ़ बचाने को मजबूर हो जाएं। इससे चुनाव में उनकी व्यापक सक्रियता प्रभावित होगी।

अमेठी में चुनाव हारने के बाद भी स्मृति ईरानी सक्रिय रहीं, जिससे राहुल के लिए इस बार अपने निर्वाचन क्षेत्र में चुनौती कठिन हो सकती है। इसी तरह रायबरेली पहुंच कर तोहफो की बरसात कर प्रधानमंत्री ने सोनिया गांधी की घेराबंदी कड़ी करने का संकेत दिया है। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में आगामी लोकसभा के चुनाव का घमासान दिलचस्प होता जा रहा है।

भाजपा की रणनीति के बरक्स उत्तर प्रदेश के संदर्भ में कॉंग्रेस ठंडापन ओढ़े हुए है। कॉंग्रेस जानती है कि उत्तर प्रदेश की राजनीतिक ज़मीन उसके लिए काफी हद तक बंजर हो चुकी है, जहां कितनी भी मशक्कत करके वह अचानक गुल नहीं खिला सकती। अनुकूल राज्यों से अगर उसके लिए बयार बह चलती है तो उत्तर प्रदेश में भी ज़मीन टूटने लगेगी। देखें यह आंकलन कितना खरा साबित होता है।

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