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रांची के हरिवंश जो लुप्त होती प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से कर रहे हैं लोगों का इलाज

महिलाओं की प्रतीकात्मक तस्वीर

महिलाओं की प्रतीकात्मक तस्वीर

कुछ महीने पहले मेरी मुलाकात एक ऐसे बुज़ुर्ग व्यक्ति से हुई, जो उम्र के अनुसार तो 91 वर्ष के थे लेकिन उनका जोश और उनकी फुर्ती किसी 20-25 वर्षीय युवक की तरह है। किसी काम के सिलसिले में उनसे मेरा परिचय हुआ और मुझे नहीं पता कि उन्होंने मुझसे बात करके क्या महसूस किया लेकिन कहने लगे, “बेटी, मैं एक बार तुमसे मिलना चाहता हूं।” मैंने उन्हें कहा, ”आपका स्वागत है। आपको जब भी फुर्सत मिले, किसी भी वर्किंग डे में ऑफिस आ जाइए। मुझसे मुलाकात हो जाएगी।” करीब हफ्ते भर बाद वह मुझसे मिलने ऑफिस आए। उन्होंने बताया कि वह पिछले कई वर्षों से प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से लोगों का ईलाज कर रहे हैं।

इसके लिए वह ना तो कुछ फीस लेते हैं और ना ही कोई महंगी दवा प्रेस्क्राइब करते हैं। बस वह रोगियों को खान-पान के कुछ आधारभूत नियमों को अपनाने और कुछ जड़ी-बूटियों (जो कि आमतौर पर हमारे आसपास ही मिल जाती हैं) को खाने की सलाह देते हैं। उनके अनुसार उनका लक्ष्य है आज के दौर में मनुष्य की घटती जा रही जीवन अवधि को फिर से वापस पटरी पर लाना।

दरअसल, प्राचीन समय में मनुष्य की जीवन अवधि 120-150 वर्ष की मानी जाती थी लेकिन दिन-ब-दिन बढ़ते प्रदूषण, बीमारी और संक्रमण आदि की वजह से यह अवधि कम होती जा रही है। आज 60-70 वर्ष की उम्र होते-होते ही लोगों को असंख्य बीमारियां हो जाती हैं और इसकी वजह से असमय उनकी मौत हो जाती है। इसी वजह से बाबा (स्थानीय लोगों के बीच वह बुजुर्ग इसी नाम से प्रचलित हैं) का नारा है, “चलें बुढ़ापा से जवानी की ओर।’ अपने इसी लक्ष्य को साकार करने के उद्देश्य से बाबा रांची के रिंग रोड के नज़दीक गुंटु टोली रोड में स्थित एक आश्रम में कई वर्षों से लोगों का ईलाज कर रहे हैं।

गरीब-लाचार से लेकर आइएएस तक हैं बाबा के मरीज़

बाबा से ईलाज करवाने वाले मरीजों में केवल गरीब और लाचार तबके के लोग ही नहीं, बल्कि रिटायर्ड आइएएस, वकील, पत्रकार, सरकारी कर्मचारी और यहां तक कि एमबीबीएस डॉक्टर भी शामिल हैं। इन सबका ईलाज बाबा मुफ्त में ही करते हैं। पिछले सप्ताह उनके द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में प्रेस प्रतिनिधि के तौर पर मेरा जाना हुआ।

अनुपमा सेवाश्रम (वो जगह जहां बाबा लोगों का इलाज करते हैं)

बाबा द्वारा बताई गयी चिकित्सा पद्धति से लाभान्वित होने वाले कई लोगों से मेरी मुलाकात हुई। इस दौरान उन सभी के अनुभवों को सुनने और जानने का अवसर मिला। उनमें हार्ट के मरीज़ों से लेकर ब्लड प्रेशर, शूगर, लकवा, मिर्गी, दमा, स्लीप डिस्क, किडनी, थॉयराइड और यहां तक कि कैंसर के मरीज़ भी शामिल थे। आश्चर्य की बात यह है कि मात्र तीन से चार महीनों में ही इनमें से ज़्यादातर मरीजों को अपनी बीमारियों से राहत मिली थी।

बता दूं कि ‘बाबा’ का असली नाम श्री हरिवंश सिंह है। वह मूल रूप से छत्तीसगढ़ के रहने वाले हैं। वह कई वर्षों तक कोरबा स्टील प्लांट में इंजीनियर के पद पर कार्यरत रहे हैं। इस दौरान कुछ व्यक्तिगत शारीरिक और मानसिक परेशानियों की वजह से उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और घूमते-घूमते नेपाल जा पहुंचे। वहां के पर्वतीय क्षेत्रों में भ्रमण के क्रम में उनकी मुलाकात कुछ साधु-महात्माओं ने हुई, जिनसे उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति का ज्ञान प्राप्त किया और फिर अपने गुरु के आदेश पर वापस लौट कर इसके ज़रिए लोगों के ईलाज करने में अपना जीवन समर्पित कर दिया।

पंचतत्वों के संतुलन पर होता है मुख्य फोकस

भारतीय चिकित्सा पद्धति के विभिन्न आयाम हैं। आमतौर पर केवल आयुर्वेद को ही भारतीय चिकित्सा पद्धति के तौर देखा जाता है, जबकि आयुर्वेद चिकित्सा के अलावा इसके तहत योग चिकित्सा, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी चिकित्सा, सिद्ध चिकित्सा और होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति शामिल हैं।

इनमें से प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति की मान्यतानुसार हमारा शरीर प्रकृति के पंचतत्वों जैसे आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी से मिलकर बना है। हमारे शरीर में जब तक पंचतत्व होते हैंं, तब तक हम स्वस्थ एवं निरोगी रहते हैं। हम बीमार तभी पड़ते हैं, जब शरीर में मौजूद ये तत्व असंतुलित हो जाते हैं। जैसे-

इनमें दो या उससे अधिक तत्वों के असंतुलन से अन्य कई तरह के गंभीर रोग उत्पन्न होते हैं। इस चिकित्सा पद्धति में इस बात पर बल दिया जाता है कि जिस तत्व के असंतुलन से कोई विकार पैदा हुआ हो, उसे पुन: संतुलित कर देने से वह विकार भी दूर हो जाता है। इस सिद्धांत के समर्थकों का यह भी मानना है कि जो लोग बीमारी की कल्पना किया करते हैं वे उससे भयभीत होकर उसकी चिंता करते रहते हैं।

इस वजह से वे वास्तव में अधिक बीमार पड़ते हैं। इसके विपरीत जो लोग साहसी, प्रसन्नचित्त, निर्भिक तथा निश्चित स्वभाव के होते हैं, वह तुलनात्मक रूप से बेहद कम बीमार पड़ते हैं। मनुष्य के स्वास्थ्य का आधा भाग उचित आहार-विहार पर और आधा भाग उपयुक्त मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है।

हिंदू धर्म के मूल सिद्धांतों पर आधारित है प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति

प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति को नेचुरोपैथी भी कहते हैं जो प्राचीनतम भारतीय चिकित्सा विज्ञान है। जो हिंदू धर्म के मूल सिद्धांत ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की अवधारणा को साकार करता है। इसका उल्लेख प्राचीन वेदों एवं अन्य हमारे शास्त्रों भी मिलता है। स्थानीय पर्यावरण के संतुलन का संरक्षण करते हुए ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत पर चलना ही इसका मूल मकसद है। इसमें बगैर दवाईयों के व्यक्ति का उपचार किया जाता है।

आधुनिक प्राकृतिक चिकित्सा अभियान जर्मनी तथा अन्य पश्चिमी देशों में जल चिकित्सा (Hydro-therapy) के रूप में शुरू हुआ था। उस ज़माने में जल चिकित्सा को ही प्राकृतिक चिकित्सा माना जाता था। इसे प्रसिद्ध बनाने का श्रेय बिंसेंट प्रीसनिज को जाता है, जो कि एक किसान थे।

भारत में प्राकृतिक चिकित्सा को पुनर्जीवन जर्मनी के लुई कुहने की पुस्तक ‘न्यू साइंस ऑफ हीलिंग’ के अनुवाद से मिला। भारत में इसके सर्वप्रथम अनुवाद का श्रेय श्री डी वेंकअ चेलापति शर्मा को जाता है, जिन्होंने इस पुस्तक का तेलुगू भाषा में अनुवाद किया। बाद में हिंदी सहित अन्य कई भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी प्राकृतिक चिकित्सा विषय पर एडोल्फ जस्ट द्वारा लिखित पुस्तक ‘रिटर्न टू नेचर’ से इतने प्रभावित हुए कि वे इसके पक्के अनुयाई बन गए।

इसके बारे में उन्होंने अपने पत्र ‘हरिजन’ में कई लेख लिखे हैं। साथ ही, इसे अपने विभिन्न रचनात्मक कार्यों में भी शामिल किया। यह जानना दिलचस्प है कि गांधी जी वर्ष 1934 से 1944 के बीच पुणे में डॉ. दिनशॉ मेहता के जिस प्राकृतिक चिकित्सा क्लिनिक में ठहरे थे, वहीं पर भारत सरकार ने वर्ष 1986 में राष्ट्रीय प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान की स्थापना की थी। गांधी जी से प्रेरित होकर मोरारजी देसाई, वीवी गिरी, आचार्य विनोबा भावे आदि कई राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने भी इस अभियान केा आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई।

वर्तमान दौर में भारत सरकार द्वारा प्राकृतिक चिकित्सा को एक स्वतंत्र चिकित्सा पद्धति के रूप में मान्यता दे दी गई है। इसके लिए अलग से आयुष मंत्रालय गठित किया गया है। देश के कुल 12 डिग्री कॉलेजों में बाकायदा इसकी पढ़ाई भी होती है। इसके बावजूद अफसोस इस बात का है कि आधुनिक भारतीय जनमानस के बीच इसकी स्वीकार्यता का स्तर फिलहाल नगण्य है।

मौजूदा वक्त में जहां, छोटी-से-छोटी बीमारी के ईलाज में भी अंग्रेज़ी दवाओं और परीक्षण पर लाखों-रुपये खर्च हो जाते हैं, वहां प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के ज़रिए बाबा जैसे कुछ लोग उनका ईलाज बेहद कम खर्च और समय में कर रहे हैं। शायद यही वजह है कि गरीब और वंचित तबके के लोग उन्हें अपना ‘भगवान’ या ‘मसीहा’ मानते हैं।

यहां देखें  हरिवंश सिंह (बाबा) का वीडियो

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