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बुलंदशहर हिंसा पर एक कविता

बुलंदशहर हिंसा

बुलंदशहर हिंसा

पक्षियों की चहचआहट

झूमते पेड़ों की सरसराहट।

 

कानों पर सजाने वाली हवाएं

अपने कर्तव्य के निर्वहन में नहीं होती ईमानदार,

देती हैं असमानता को बढ़ावा

जब गोलियां चलाते हैं बछड़े।

 

करने अपनी माँ की रक्षा

उन गोलियों की आवाज़ के स्वागत में,

हवाएं डाल देती हैं गले में माला

पकड़ लेती हैं उसकी उंगली।

 

छोड़ आती हैं उसे उस रास्ते से दूर

जो उसे ले जा सकता है कानून के कानों तक

सूरज की किरणें भी हो गई हैं बेईमान,

टकराती हैं खाली पड़ी वर्दी से

बनाती हैं प्रतिबिम्ब कानून की आंखों पर एक जिस्म का।

 

जिसपर अभी भी सजी हुई है वर्दी

वरना कानून अंधा नहीं है,

अपनी ही वर्दी के सूने हो जाने की

तफ्तीश ज़रूर करता।

 

असमानता पत्थरों में भी होती हैं

कुछ बड़े, कुछ छोटे, कुछ नुकीले, कुछ खुरदुरे, कुछ चिकने,

कुछ के रगों में दौड़ते खून का रंग भगवा

जो रंग देते हैं खाकी को लाल,

निकलते हैं सत्ता के झोले से

कर लेते हैं तय सफर आतंकवाद से हादसे तक का।

 

‘हादसा’, जो कर देता है दफन

कानून की धाराओं को

कानून की किताब के ही पन्नों में,

कानून के पैर बहुत लंबे होते हैं

सरपट भाग खड़ा होता है।

 

जब देखता है खाकी को तब्दील होते हुए लाल में

और पत्थरों को वापस लौटते हुए सत्ता के झोले में।

 

सत्ता, जो शोक मना रही है

सिर्फ बछड़ों की माँ के मरने का,

क्योंकि, अगस्त में तो बच्चे मरते ही हैं

दिसंबर में शायद कानून भी मरता होगा।

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