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कविता: “फेक न्यूज़, हर रोज़ मूर्खों को अंध भक्त बनाता”

व्हाट्सऐप के इनबॉक्स में

रोज़ है आता रोज़ है जाता।

झूठ का परचम लहराता

नफरत का बाज़ार सजाता।

 

मंदिर मस्जिद

रोज़ गिरता रोज़ बनाता।

जन-जन की जन भावना

रोज़ जगाता रोज सुलाता।

 

आंखों में शोले भड़काता

जन को जन से दूर करता।

बदले के लावे सुलगाता

बदरंग सियासत का देखो

यूंही कारोबार चलाता।

 

खून में लिपटे नेताओं के

गंदे चेहरों को चमकाता।

धर्म को हथियार बनाता

एक दूजे का खौफ दिखाता।

मिथ्या खबरों की मुसलसल

यूंही रोज़ बरसात कराता।

 

छद्म राष्ट्रवाद के चश्मे

से झूठी तस्वीरें रोज़ दिखाता।

हत्यारों को संत बताता

वतन में देखो आग लगाता ।

दंगों के साधन खूब जुटाता

असली मुद्दों से भटकाता।

शिक्षा-विक्षा भाड़ में जाता

लोकतंत्र का मखौल उड़ाता।

 

बेकारों को आवारा भीड़ बनाता

मॉब बनाकर लिंचिंग करवाता।

सही गलत का फर्क मिटाता

विवेक पर ताले लटकाता।

मूर्खों को अंधे भक्त बनाता

अधकचरे इतिहास का

हर दम देखो जाप कराता।

 

ज्ञान का दीपक रोज़ बुझाता

ये देखो खाली बात बनाता।

दिन को देखो रात बनाता

खोखले वादों के नकली

आकड़े रोज़ बनाता रोज़ मिटाता।

व्हाट्सऐप के इनबॉक्स में

रोज़ है आता रोज़ है जाता।

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