दो सौ रुपये की ज़रूरत
को मुकम्मल करने जुटी भीड़,
जो आज निकली है
एक रंग के झंडे को लेकर
कल किसी और रंग में
सड़कों पर नज़र आएगी।
पर इन रंग बदलते
चेहरों की तुलना
गिरगिट से करना
मज़ाक सा लगता है।
दिशाहीन भीड़ बनती नहीं
बनाई जाती है।
दलों के घोषणा पत्रों में मौजूद
अघोषित अशिक्षा, बेरोज़गारी
की पूर्ति कर,
घोषित मुद्दों
की आपूर्ति से होता है सृजन
मजबूरियों का।
मजबूरियों से जन्मी ज़रूरतें
चुम्बक की तरह
खींच लेती हैं ज़रूरतमंद
चेहरों की लहर।
लपेटती हैं उनके बदन
पर मज़हबी चादर
या चिपकाती हैं माथे पर
ऊंच नीच जाति का लेबल।
कभी बदले की आग बनाकर
जलवाती हैं शहर के शहर।
भीड़ नहीं पहचानती
भूख का कौन सा है मज़हब
बेबसी की कौन सी है जात।
सियासतदान
इसे बखूबी पहचानते हैं।
भूख और बेबसी का
एक है मज़हब
एक है जात
घोषित मुद्दों की आपूर्ति।
जो अघोषित मुद्दों की पूर्ति
से हरदम ज़िंदा रहती हैं।
हर मंडली, जत्थे में
दो सौ रुपयों की ज़रूरतों
को समेटती हैं दिशाहीन भीड़।
दिशाहीन भीड़ बनती नहीं
बनाई जाती हैं।