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“बाबरी मस्जिद के साथ ही भारत का सेक्युलर ढांचा भी गिरा दिया गया”

6 दिसंबर के दिन बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर की मृत्यु हुई थी और 1992 में उसी तारीख को उनके लिखे संविधान का गला घोंटकर बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी। बाबरी मस्जिद के गिरने के साथ ही संविधान द्वारा स्थापित भारत का सेक्युलर ढांचा भी गिर गया था, जो आज तक खड़ा नहीं हो पाया है। इसके साथ ही उदय हुआ एक हिंदुत्ववादी भारत का, जो कानून से ऊपर है।

उत्तर प्रदेश में उस समय बीजेपी की सरकार थी और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे। कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में अंडरटेकिंग दिया था कि राज्य सरकार बाबरी मस्जिद की हिफाज़त करेगी। इसी अंडरटेकिंग को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने विवादित स्थल पर विश्व हिन्दू परिषद के कार सेवकों के जमावड़े को अनुमति दे दी।

सुप्रीम कोर्ट की गलती थी कि उसने एक ऐसी पार्टी की सरकार पर भरोसा कर लिया जो सत्ता में आई ही थी राम मंदिर के वादे को लेकर।

कल्याण सिंह की सरकार ने इस अंडरटेकिंग की धज्जियां उड़ा दी। लाखों कार सेवकों की भीड़ को देखते हुए भी सुरक्षा के इंतज़ाम नहीं किए गए। यह कहना सही होगा कि बाबरी मस्जिद विध्वंश एक स्टेट स्पॉन्सर्ड प्रोग्राम था लेकिन आज तक बाबरी मस्जिद विध्वंस में किसी को भी सज़ा नहीं हुई है।

देशभर में कई जगह सांप्रदायिक दंगे हुए, जिनमें 2000 से ज़्यादा लोग मारे गए। देशभर में मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाया गया।अयोध्या की लड़ाई से ही बीजेपी भारतीय राजनीति में एक मज़बूत ताकत बनकर उभरी। लाल कृष्ण आडवाणी, उमा भारती, प्रमोद महाजन, अटल बिहारी वाजपेई इन सभी बीजेपी नेताओं ने मस्जिद गिराने से पहले वीएचपी के लोगों को संबोधित करते हुए भड़काऊ भाषण दिए थे।

आडवाणी तो देशभर में राम मंदिर के लिए रथ यात्रा भी निकाल रहे थे। बीजेपी भारतीय राजनीति में उभरी ही एक असंवैधानिक और आतंकवादी घटना को अंजाम देकर।

तथाकथित सेक्युलर पार्टी कॉंग्रेस भी कम ज़िम्मेदार नहीं थी। राजीव गांधी ने ही बाबरी मस्जिद खुलवाया था और वीएचपी द्वारा राम मंदिर के शिलान्यास में उस वक्त भारत के गृह मंत्री रहे बूटा सिंह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री एनडी तिवारी खुद मौजूद थे। दोनों कॉंग्रेस के नेता थे। हिंदुत्व की आग में राजनीतिक रोटी सभी पार्टियां सेंकना चाहती थी।

न्याय यह कहता है कि वहां कानून की धज्जियां उड़ाते हुए मस्जिद गिराई गईं, तो मस्जिद का पुनर्निर्माण होना चाहिए और मस्जिद गिराने के दोषियों पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए।

लेकिन मुस्लिम समाज के युवाओं को यह ध्यान में रखना होगा कि मस्जिद की लड़ाई को सड़कों तक ले जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। मस्जिद की लड़ाई को सामाजिक और राजनीतिक लड़ाई बनाने की कोई ज़रूरत नहीं है। मुस्लिम समाज के युवाओं के लिए भी बाकी युवाओं की तरह सामाजिक और राजनीतिक लड़ाई सिर्फ शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार की ही होनी चाहिए। मस्जिद की लड़ाई कानूनी लड़ाई है और इसे सुप्रीम कोर्ट पर ही छोड़ना चाहिए।

“मंदिर वहीं बनाएंगे” के जवाब में “मस्जिद वहीं बनाएंगे” नहीं चाहिए। यह असंवैधानिक नारे हैं, जो कानून को तोड़ने की बात करते हैं।

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