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क्यों फिल्मों में पुलिस को हीरो दिखाने के लिए एंकाउंटर का सहारा लिया जाता है?

साल 1947 में आजादी के साथ हुये ज़मीन के बटवारे में जंहा भारत और पाकिस्तान दो देशों की नींव रखी गई, इस दौरान हुये क़त्ल-ए-आम में लाखों लोग की हत्या हुई वहीं करोड़ों की तादाद में लोगों ने पलायन किया। करोड़ों लोग इस बंटवारे से प्रभावित हुए थे लेकिन इसके बाद अगर हम भारतीय समाज की बात करें तो यहां हिंसा कहीं भी मौजूद नहीं दिखाई देती। इसका विश्लेषण उस समय की फिल्मों से भी कर सकते हैं। दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आंनद, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना इत्याद सभी उस वक्त के फिल्म स्टार एक रोमांटिक भूमिका में मौजूद थे। वहीं गाँव, दूर दराज के इलाके भी इन फिल्मों में मौजूद थे। अगर कहीं कोई खलनायक था तो वह भी एक आम भूमिका में था मसलन नायक और खलनायक की शक्लों में कहीं कोई फर्क नहीं किया गया था।

इसी दौरान आई तीन फिल्मों- दो आंख बारह हाथ, मदर इंडिया और मुग़ल-ए-आज़म को विशेष रूप से समझने की ज़रूरत है और इन्हीं फिल्मों के साथ-साथ बदलते समय में बदलते सिनेमा और समाज की छवि को भी समझा जा सकता है।

स्कूल हिंदी माध्यम ही था जहां हिंदू, मुसलमान, सिख, यादव, दलित, गढ़वाली सभी समाज के विद्यार्थी मौजूद थे। जहां सुबह की घंटी बजने से पहले आज होमवर्क पूरा ना होने के कारण कौन-कौन मुर्गा बनने वाला है और इससे बचने के उपायों पर एक विशेष चर्चा होती थी। जैसे ही सुबह की प्रार्थ्ना “ए मालिक तेरे बंदे हम” की शुरूआत होती थी हम सब हाथ जोड़कर बिना किसी हिचकिचाहट के खड़े हो जाते थे। कहीं भी खुदा और भगवान में फर्क नहीं था। ए मालिक तेरे बंदे हम में कई शब्द उर्दू और कई हिंदी थे लेकिन ये ना तो छात्रों और ना ही शिक्षकों के लिए कोई चर्चा का विषय था। हमारे लिये प्रार्थना का मतलब शांतिमय तरीके से दिन की शुरुआत करना ही था। दरअसल ये जो  प्रार्थना थी वह 1957 में आई एक फिल्म दो आंखें बारह हाथ का एक गीत है। यह बहुत गंभीर जु़ल्म में शरीक कैदियों को सुधारने की बुनियाद पर बनी फिल्म थी जहां कैदी को बदलने के साथ-साथ उनकी मानसिकता को भी बदलने की ज़रूरत पर विशेष ध्यान दिया गया। इसके लिए अहिंसक वातावरण, सुलझे हुये संवाद और कहीं भी कोई उग्रता का समावेश नहीं था।

1957 के समय में जहां इस फिल्म को दर्शकों ने बहुत पसंद किया। हम उस वक्त के सुलझे हुए समाज की भी परिकल्पना कर सकते हैं क्योंकि यह फिल्म अपराधियों के समाज सुधार कार्यक्रम की सच्ची घटना पर आधारित थी। मैंने यह फिल्म दूरदर्शन पर देखी थी जहां कैदी थे हट्टे-कट्टे, उनकी बड़ी-बड़ी आंखें थीं और नाम भी थे। लेकिन इन नाम से वह धर्म और मज़हब की भूमिका में नहीं बांधे जा रहे थे। उनकी ताकत को खेती के काम में लगाकर एक बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने की योजना भी एक नये मानसिक विकसित समाज की रूपरेखा को बयां कर रही थी। ये कैदी उस सुधार घर से भागते भी है, गलतियां भी करते है और ग़ुस्सा भी होते है लेकिन इनको सुधारने का दृढ़ संकल्प ही था जो सब पर हावी रहता है। फ़िल्म के अंत में एक बेहतर नागरिक के रूप में हिंसा का त्याग अपने-आप में बहुत कुछ बयां कर रहा था।

लेकिन इसके पश्चात फिल्मों में कानून द्वारा अपराधियों को गोली मारने की मुहिम शुरू हो गई थी। 80 के दशक में आई फिल्म यतीम में कानून का अपराधीकरण बहुत खुल कर दिखाया गया जहां वर्दी में मौजूद डैनी का किरदार हर गैरकानूनी काम को अंजाम देने के लिये अग्रसर रहता हुआ दिखाया गया है। वहीं पिछले कई दशकों से फिल्मों में एंकाउंटर के माध्यम से अपराधियों को गोली मारने का चलन बहुत बड़ा है चाहे वो फिल्म शूट आउट लोखनवाला हो जंहा अमिताभ बच्चन के रूप में मौजूद वकील जो फर्ज़ी एंकाउंटर के आरोप झेल रहे पुलिस वालों की अदालत में पैरवी करता है और आखिर में एक दलील कुछ इस भाव से होती है कि हमारे समाज में हमें कैदी, आरोपी, मुल्जिम चाहिए या फिर ऐसे पुलिस वाले जो समाज की रक्षा करते है। एंकाउंटर में मारे गये अपराधी इसी देश के नागरिक थे लेकिन इस पर कहीं कोई बहस नहीं होती हुई दिखाई देती। फिल्म ‘अब तक छप्पन’ पुलिस कर्मियों के बीच एंकाउंटर नंबर की रेस को दिखाती है जहां ये मायने रखता है कि किस पुलिस वाले ने कितने एंकाउंटर करके कितने गुनहगारों को मारा है लेकिन क्यों मारा है यह सवाल कहीं भी मौजूद नहीं होता। सत्या फिल्म भी इसी का एक उदाहरण है।

इस तरह की फिल्मों की लिस्ट अब बढ़ती जा रही है। 2017 में आई तेलुगु फिल्म दुव्वाद जगन्नाधम (Duvvada Jagannadham) का उल्लेख करना भी ज़रूरी है जहां फिल्म की शुरुआत में ही एक बच्चा पुलिस अफसर के सामने पुलिस की बंदूक से पुलिस स्टेशन में ही एक मुजरिम को यह कहकर मार देता है कि इसको सज़ा दिलाने में कानूनी प्रक्रिया से बहुत समय लग जाएगा। इस फिल्म का मुख्य किरदार बड़ा होता है, ब्राह्मण परिवार से है, मंदिर में पूजा करता है लेकिन अपराधियों को मारने की इसकी मानसिकता और  प्रबल होती जाती है दिलचस्प यह है कि ये पुलिसकर्मी भी नहीं है। मैं इस फिल्म को हिंदी में रूपातंरण किये गये भाग को बमुश्किल 20 मिनट भी नहीं देख पाया, जहां धर्म, राष्ट्रवाद, एंकाउंटर और हिंसा का इस तरह तालमेल बिठाया गया है कि आप यहां कोई सवाल भी नहीं कर सकते शायद यही वजह रही होगी कि फिल्म को सेंसर बोर्ड ने भी प्रमाणित कर दिया। लेकिन वास्तव में एंकाउंटर कैसे होते हैं और क्यों होते हैं ये एंकाउंटर पीड़ित से ज़्यादा और कौन बता सकता है लेकिन इन पर कोई फ़िल्म नहीं बनाई जा रही है। पंजाब के नरिंदर सिंह अपने निर्दोष भाई मनोहर सिंह को पुलिस ने किस तरह जबरन जेल से निकालकर एंकाउंटर किया, इसके बारे में बता रहे हैं:

वही हमारे न्यूज़ चैनल, अखबार भी ऐसे बहुत सारे पुलिस अधिकारियों को बहुत ही जांबाज़ की भूमिका में दिखाने में कामयाब इसलिए भी हो रहे हैं कि इस तरह की हिंसा को हमारे समाज में स्वीकृति मिल रही है। हमारा समाज पिछले कई दशकों से बदल रहा है या बदला जा रहा है इसे भी समझने की ज़रूरत है। अब जब हम हिंसा को अपना रहे हैं, इसे हम अपनी स्वीकृति दे रहे हैं तो आये दिन आम सी बातों पर हो रहे कत्ल, किस मानसिकता की वजह बन रहे है इसके लिये व्यक्तिगत विश्लेषण की बहुत ज़रूरत है।

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