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“मौजूदा ट्रिपल तलाक बिल समुदाय से सलाह किए बिना एक राजनैतिक फैसला थोपने का प्रयास है”

मुस्लिम मैरेज विलय का बिल- एक नागरिक समस्या का नागरिक समाधान

क्षणिक ट्रिपल तलाक उस पितृसत्ता नामक बीमारी की ही देन है जो सभी समुदायों में बराबर रूप से अपने पांव पसार चुका है। जब मुस्लिम महिला अध्यादेश 2018 या ट्रिपल तलाक अध्यादेश लाया गया तो वो भी पितृसत्ता का ही प्रतीक था क्योंकि इन्हें अमल में लाने से पहले जिस समुदाय पर इसका असर होगा उनसे राय विमर्श किया ही नहीं गया था।

22 अगस्त 2017 को जब सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसले में ट्रिपल तलाक की प्रथा को 3:2 के बहुमत से खत्म कर दिया और अमान्य करार कर दिया उस वक्त किसी भी बहस की गुंजाईश नहीं छोड़ी। कुरान ने हमेशा से तलाक के लिए एक तरीका निर्धारित किया है। कुरान के हिसाब से यह तरीका शादी के सिद्धांत का एक ज़रूरी हिस्सा है जिसके हिसाब से शादी दो इंसानों की सहमती का विषय है जिसे दोनों या एक की भी असहमति होने पर खत्म किया जा सकता है।

क्षणिक ट्रिपल तलाक या तलाक-ए-बिद्दत, कुरान की हिदायतों से निकाला गया एक तरह का खोज है जो एक ठोस और न्यायसंगत तलाक का तरीका तलाक-ए-अहसान की पैरवी करता है। हालांकि यह भी सत्य है कि इस पद्धती का अनुसरण करते हुए कुरान की हिदायतों का पूरी तरह से खयाल नहीं रखा जाता जिससे तलाक की प्रक्रिया में शामिल किसी एक इंसान के अधिकारों का उल्लंघन होता है। यही वजह है कि कई इस्लामिक देशों ने क्षणिक ट्रिपल तलाक को समानता और अनुरूपता के लिए भंग कर दिया है।

लेकिन, सरकार ने क्षणिक ट्रिपल तलाक को आपराधिक घोषित कर दिया है। यह परेशान करने वाली बात इसलिए है कि नागरिक असहमति को अब अपराध की श्रेणी में डाल दिया गया है। अगर हम अब इसका विरोध नहीं करेंगे तो कानून बहुसंख्यक सरकार के हाथ में एक खिलौना बन जाएगी जिसे अल्पसंख्यकों के दमन के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। हालांकि यह सच है कि किसी भी समुदाय की औरत को ऐसी प्रथाओं को सहना नहीं चाहिए, जो उन्हें मानसिक, शारीरिक, आर्थिक और भावनात्मक रूप से कमज़ोर बनाती है। सरकार को किसी भी समुदाय की महिलाओं के अधिकार को कायम रखने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए लेकिन ऐसा करने की प्रक्रिया में सरकार को नागरिक असहमति और आपराधिक कार्य के बीच के अंतर को नहीं खत्म करना चाहिए।

निजी सदस्य विधेयक– जेंडर न्याय के मद्देनज़र एक हल निकालने की कोशिश

अगस्त 5, 2016 को, सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले से ठीक एक साल पहले, मैंने एक निजी विधेयक प्रस्तावित किया जो मुस्लिम मैरेज एक्ट की काया पलट कर देने वाला था। एक साल में कई मुस्लिम महिला संस्थानों, एक्स्पर्ट और इस्लामी कानूनों विद्वानों/वकीलों की सलाह के बाद विधेयक का एक प्रारूप तैयार किया गया। बिल में शादी के विलय के दो प्रमुख तरीके बताए गए हैं- एक जो कोर्ट के बाहर और एक कोर्ट के द्वारा। दोनों पक्षों को कोई भी एक विकल्प चुनने की आज़ादी है।

कोर्ट के बाहर का तरीकाकोर्ट के द्वारा किए जाने की प्रक्रिया
– तलाक ए एहसन निर्धारित है

– एक निश्चित समय के अंदर तीन बार तलाक बोलना

– परिवार और पक्ष द्वारा सुलह का प्रयास

–  दोनो पक्षों को सुनना

– मध्यस्थों द्वारा सुलह के प्रयास की

अनिवार्य प्रक्रिया

दोनों तरीकों में सभी के अधिकारों की सुरक्षा का ख्याल रखा गया है। खासकर महिलाओं और बच्चों के अधिकारों का जैसा ज़िक्र शरियत में किया गया है उसका पूरा खयाल इस बिल में रखा गया है। साथ ही साथ सेक्शन 125 दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 या घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 के तहत कानूनी कार्यवाही भी शुरू कर सकते हैं। बिल में क्षणिक तलाक देने को अमान्य करार दिया गया है लेकिन इसे अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया है। बिल में तलाक देने का केवल एक ही तरीका दिया गया है और उसके अलावा और कोई तरीका मान्य नहीं है, इसलिए क्षणिक ट्रिपल तलाक बोलने के कोई मायने नहीं होंगे।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने निकाह हलाला, निकाह मुता की संवैधानिक वैधता को भी रिव्यू करने का निर्णय लिया है। मैं यहां बताना चाहूंगा कि जो बिल मैंने पेश किया है उसमें भी अस्थायी शादियों, या मुता शादियों (जिसमें कुछ समय के बाद शादिया स्वत: विलय हो जाती हैं) की प्रथा को खारिज़ करने की बात कहती है। इस बिल के अनुसार कोई भी पुरूष जो खुद के द्वारा तलाक दिए गए महिला पर वर्तमान में उसके पुरुष साथी से शादी तोड़ने का दबाव बनाता है ताकि फिर से उससे शादी कर सके वो कानूनी कार्रवाई का अधिकारी होगा। यह प्रथा जिसे हलाला कहा जाता है वह महिलाओं के यौन शोषण का एक ज़रिया बन चुका है जिसे अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह बिल शादी और तलाक जैसे मुद्दों को नागरिक अधिकारों की श्रेणी में रखता है और शादी में शामिल दोनों पक्षों को तलाक या शादी जैसे मुद्दों पर कानूनी हक होने का हिमायती है।

क्षणिक तीन तलाक के खिलाफ यह संघर्ष मेरे लिए भावुक इसलिए भी था क्योंकि मेरे बड़े भाई हामिद दलवी (जो अब इस दुनिया में नहीं हैं) ने 1966 में इस मुहिम की शुरुआत की थी। अपनी पत्नी, बहनों सहित सात महिलाओं के साथ उन्होंने ट्रिपल तलाक की बुराइयों के खिलाफ एक विरोध मार्च किया था, जिसमें 25 साल के उत्सुक युवा के रूप में मैं भी शामिल था। 44 साल में उनके असामयिक निधन के बाद मैंने जेंडर न्याय कि मुहिम को आगे बढ़ानी की ठानी और यह बिल उसी दिशा में एक कदम है।

समुदाय के सहयोग से आगे की राह

मैं मानता हूं कि कोई भी बदलाव समय के साथ ही मुमकिन हो पाता है और सरकारों को शांती और बेहद ही आसान तरीके से इन बदलावों को सामाजिक व्यवहार में लाने का प्रयास करना होगा। किसी भी त्वरित कदम से पहले से हाशिए पर रह रहे समाज में अलग-थलग पड़ने का भाव और भी गंभीरता से घर कर जाता है। मैं सरकार से लगातार अनुरोध कर रहा हूं कि महिला सशक्तिकरण के लिए काम कर रही संस्थाएं, धर्म गुरुओं, और राजनैतिक प्रतिनिधित्व के ज़रिए लोगों को जेंडर न्याय को लेकर जागरूक करने का काम किया जाना चाहिए।

मैं यह नहीं कहता कि मेरे द्वारा पेश किया गया बिल सबसे अच्छा है लेकिन समुदाय की मदद से इसे और बेहतर बनाने की ओर एक कदम की शुरुआत ज़रूर है। सरकार को भी चाहिए कि प्रथा को अपराध घोषित करने से ज़्यादा सुधार के अन्य रास्ते ढूंढने पर ध्यान दिया जाए। यह काफी निराशाजनक है कि पूरे समुदाय के बीच एक सकारात्मक बहस की शुरुआत करने के बजाय सरकार ने एक छोटा रास्ता अपनाया है। जब सरकार द्वारा ड्राफ्ट किया गया ट्रिपल तलाक बिल राज्यसभा में लाया गया था तब मैंने इसे सेलेक्ट कमिटी को भेजने की मांग की थी क्योंकि किसी भी प्रकार के संशोधन करने से पहले एक समावेशी बहस ज़रूरी है।

इन तमाम प्रयासों का अंतिम फल एक मज़बूत कानून होना चाहिए जो पूरे समुदाय की महत्वाकांक्षाओं पर आधारित हो ना कि राजनीति से प्रेरित एक फैसले को थोपने का भाव।

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