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चोर का नजरिया

व्यंग्य

मैं एक सीधा-साधा चोर हूं। ज्यादा कुछ नहीं सिर्फ चोरी करता हूं। मुझसे और मेरे पेशे से किसी को कोई दिक्कत-परेशानी नहीं होनी चाहिये। गुजर-बसर करने के लिए चाहिए होता है अर्थ। फिर मैंने सोचा, दिमाग अपना क्यों लगाऊं व्यर्थ। जबकि सरकार कर रही है चहुँ ओर अनर्थ। सरकार ने हमसे मांगे वोट हमारे मत लेकर, उसने हम पर ही की चोट। यहां सरकार ने तो वादा खूब किया, नौकरी का और नौकरी बिना इंतजाम कैसे करूं, छोकरी(पत्नी) का। देख के अपना ये हाल, खुद से बोला  मेरे लाल। कर कुछ ऐसा, जिससे बने पैसा।

 आप क्या जानते हैं, मुझे मूर्ख मानते हैं। बेरोजगार व्यक्ति कैसे करे अपनी भावनाओं को व्यक्त। घर में माँ-बाप की गालियां खाकर हो गए हैं त्रस्त। तब हमने सोचा अपने को कहीं तो करें व्यस्त। क्या माँ-बाप ने मेरी पढ़ाई पे इसलिए पैसा खर्चा कि मैं बन कर रह जाऊं सिर्फ बेरोजगारी के इश्तिहार का पर्चा। माँ-बाप ने भी हम पर जमकर खर्चा पैसा ,इसलिए कभी कोई काम नहीं कर पाए मजदूरी जैसा। घरवालों ने मुझे जो लिखाया-पढ़ाया कुछ उसने भी मेरा घमंड बढ़ाया। फिर भी इतना पढ़कर क्यों करूं मजदूरी, बजाय इसके मैं करूंगा कोई और काम जरुरी।

सरकार ने जो करना था सो कर लिया और हमने भी अपने मन में भर लिया। अब कुछ तो करना है लेकिन बेरोजगार नहीं मरना है। अबकी बार, जब भी आएगी सरकार मांगने मुझसे वोट, तभी करूंगा नोटा दबा कर उसपर चोट।  क्योंकि सभी सरकारों के मन में होता है खोट।  अरे खोट से ध्यान आया जब सरकार जनता का समर्थन लेकर जनता से ही करती है खोट।  तो फिर मुझे क्यों बने रहना चाहिए बैंक का खरा नोट। बहुत कुछ बनने की कोशिश करता रहा बस इसी उधेड़बुन में खटता रहा।  जब कुछ नहीं बन सका तो बहुत सोच समझ कर बन गया चोर। अब जिसको बुरा लगे वो उड़ाए अपने खेत से मोर।  क्योंकि पुलिस विभाग से अपना बहुत पुराना नाता है, वो तो अपना खास भ्राता है।  माना कि चोरी से होता है लोगों को दुख, पर मैंने तो लोगों से ही सीखा है कि कैसे पाना है इसमें सुख।

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