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असहमति के नाम पर हिंसा को रोकना ही गांधी का सम्मान है

प्रायश्चित तो करना ही होगा हमें कि सत्य और अहिंसा को जीने वाले महापुरुष की हत्या हो गई और हम कुछ नहीं कर सके। हम यानि वह समाज जिसे अपने सिद्धांतों और मानवीय मूल्यों के रास्ते चलाने की कोशिश में ही बापू ने अपना बलिदान दे दिया। क्या तब उनकी हत्या रोकी जा सकती थी जैसा कि बापू को मारने की पहले भी कई कोशिशें की गई थी।

तात्कालिक सरकार को इस बात का अंदेशा तो था ही और उसने सुरक्षा व्यवस्था बढ़ाने जैसे प्रयास भी करने चाहे लेकिन बापू ने ही उस व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया। खुद से असहमत लोगों से संवाद करने के लिए वह सदैव खुला मन रखते थे इसलिए किसी भी तरह की सुरक्षा लेने से इंकार कर दिया।

गोडसे जैसों के मन में गांधी के खिलाफ बनी असहमति ने उनकी हत्या का जो रास्ता अपनाया उसे क्या हम ठीक कहेंगे? कम-से-कम मैं तो नहीं। यह असहमति सिर्फ गोडसे की थी ऐसा नहीं है बल्कि वह हिंदुत्व के नाम पर कट्टरवादी सांप्रदायिक सोच रखने वाले समूह का मोहरा बना।

इतिहास कहता है कि गांधी की हत्या किसी क्षणिक आवेश में की गई दुर्भाग्यपूर्ण कार्यवाही नहीं थी बल्कि लम्बे दौर में सोच-समझकर रचा गया वह षड्यंत्र था, जो पांच असफल प्रयासों के बाद जाकर सफल हो पाया था। इसमें से एक भी प्रयास ऐसा नहीं था जो हिंदुत्व की विचारधारा से ना जुड़े, किसी व्यक्ति या संगठन द्वारा ना किया गया हो। महात्मा गांधी ने अपने जीवन में तीन तरह की हिंसाओं का मुकाबला किया साम्राज्यवादी हिंसा, व्यापक जनक्रांति के नाम पर की जाने वाली छिटपुट हिंसा और सांप्रदायिक हिंसा।

भारतीय संस्कृति पर एक विनाशकारी हमला था गांधी की हत्या

30 जनवरी 1948 यानि 71 साल पहले जब महात्मा गांधी को गोली मारी गई तब उनकी उम्र 80 साल छूने जा रही थी। उन्हें क्यों मारा? सिर्फ इसलिए ना कि हममें से कुछ लोग उनसे सहमत नहीं थे। क्या हम ऐसा समाज चाहते हैं, जिसमें असहमति की सज़ा मौत हो? अगर ऐसा हो तो समाज में एक नया महाभारत मच जायेगा, महाभारत यानि विनाश।

महात्मा गांधी की हत्या भारतीय संस्कृति और सभी समाज की बुनियाद पर ऐसा ही विनाशकारी हमला था। जिस सांप्रदायिक सोच ने उनकी हत्या की उसमें किसी से असहमत होने पर संवाद करके आगे बढ़ने का विचार ही नहीं दिखाई देता। इस तरह का विचार हम सबके अन्दर से भी रिसता जा रहा है, जहां हम प्रत्येक असहमत बातों को लेकर उग्र और हिंसक होते जा रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के अंदर यह स्वभाव ना सिर्फ बढ़ा है बल्कि उसे निरंतर हवा दी जा रही है। इससे आखिर हिंसा करने वाली एक ऐसी भीड़ तैयार हो रही है जो गाय और संस्कृति रक्षा के नाम पर अपने से असहमत लोगों की सार्वजानिक हत्या कर रही है।

30 जनवरी का यह दिन हम सबके लिए असहमति से संवाद की ओर बढ़ने और साम्प्रदायिकता व हिंसा की विकृत सोच से बाहर निकलने के संकल्प का दिन है। ऐसा माने कि महात्मा गांधी का बलिदान ही हम सबको नींद से जगाने के लिए हुआ है।

साथियों, अपना समाज खुद ही बनाना पड़ता है, लगातार की मेहनत से उसे नया रखना पड़ता है और हमेशा सावधानी से उस नयेपन की रक्षा करनी पड़ती है। आज हम संकल्प करें कि आगे असहमति के नाम पर कोई हत्या नहीं होगी। हम भारतीय समाज की सहज भिन्नताओं को बोझ नहीं मानेंगे और इसकी विसंगतियों को दूर करने की हर कोशिश में हम साथ रहेंगे।

हम न भटकेंगे ना समाज को भटकने देंगे

यह महात्मा गांधी की 150वी जयंती वर्ष है, अतः इस मौके पर हमारा यह पक्का निश्चय होना चाहिए कि हम भारत के हर स्त्री-पुरुष के सम्मान के रक्षक बनेंगे और अपने इलाके में ऐसी कोई वारदात होने नहीं देंगे जो मानवीय मूल्यों और इंसानी गरिमा के खिलाफ जाती हो।

सवाल जाति-धर्म का नहीं इंसान का है। आज खतरा किसी एक व्यक्ति पर नहीं पूरे समाज पर ही मंडरा रहा है। देश इंसानों से बनता है और इंसान ही नया इंसान व नया देश बनाते हैं। महात्मा गांधी ने जीकर भी और मरकर भी हमें सिखाया है, इसलिए हम सभी नागरिक यह निश्चय करें कि अपने देश में न्याय की, बराबरी की, समता और समानता की हर कोशिश के साथ रहेंगे और इसके खिलाफ जाने वाली हर ताकत का मुकाबला करेंगे।

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