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कविता: “वो औरत है, कोई गोश्त की दूकान नहीं”

औरत, एक ऐसा शब्द है जो आधी कायनात की नुमाइंदगी करता है, ऐसी आधी कायनात जो अपने आप में पूरी तरह स्वतंत्र है मगर वो स्वतंत्र सिर्फ किताबों के उन पन्नों में है जो कभी पढ़े नहीं जाते। क्योंकि जो दूसरी आधी कायनात उर्फ आदम है उसके लिए यह एक संभोग का सामान है, जिससे उसे अपनी हवस की आग शांत करनी है। चाहे वह उसकी इजाज़त से हो या फिर बिना इजाज़त के। अव्वल तो यहां पर इजाज़त जैसा कुछ है ही नहीं क्योंकि इस विषय पर पुरुष का पूर्ण स्वामित्व है ।

अतः पुरुष को पुरुष द्वारा ही एक अधिकार मिला हुआ है जिसके तहत पुरुष के डीएनए में यह बात समाहित हो चुकी है कि औरत एक चलता फिरता हवस बुझाने का संसाधन मात्र है। इसी विषय पर कटाक्ष करती हुई मेरी यह कविता आदम को समर्पित है-

यह नहीं कहता मैं कि औरत की तुम पूजा करो,

मगर महज़ संभोग की वस्तु समझने की ना खता करो।

 

 कब तक अपनी हवस तौलते रहोगे आंखों से तुम,

कभी सिर्फ देखने की नज़र से भी उन्हें देखा करो।

 

बदन के अलावा कुछ और भी है उनमें आदम,

सिर्फ जिस्म की बनावट में ना तुम उलझा करो।

 

उस पाक शरीर के अंदर इक रूह भी रहा करती है,

हर बार इश्क के नाम पर तुम उसको ना जूठा करो।

 

महज़ औरत की सीने पर नज़र गड़ाए बैठे हो,

आंखे भी तो हैं वहां कभी बस उन्हीं में डूबा करो।

 

वो इक औरत है कोई गोश्त की दुकान नहीं,

जिसे आते जाते तुम बस कुत्तों सा घूरा करो।

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