बातचीत के दौरान भावनाओं के इज़हार में हम सब मौलिक हैं, साथ ही कई बार हम पर अपने वातावरण और सामाजिकता का प्रभाव भी रहता है। अभिव्यंजना कौशल में जहां विभिन्न रोचक चीज़ें हैं, जो संवाद को सजा देती हैं, वहीं कुछ अभिव्यंजनाएं इतनी बेतुकी हैं कि इनको सिवाय द्वेष के और क्या कहें?
सबसे मज़ेदार है, इस द्वेष का इतना साधारण लिया जाना कि यह हमको भाषा की एक इकाई ही लगने लगता है। मैं किसकी बात कर रही हूं?
मैं गालियों की बात कर रही हूं। जी हां गालियां, वही गालियां जो हम आदतन देते हैं और किसी को कानों-कान भी शिकायत नहीं होती है, खबर होने के बावजूद।
मेरे कई दोस्त बड़े इत्मीनान से वाक्य के शुरू और अंत में दो-दो गालियां, विराम चिन्ह की तरह प्रयोग में लाते हैं। इस बीच आप उनको टोक नहीं सकते, टोकते ही उल्टा आपको अतिवादी कहकर वे बड़ी चालाकी से कन्नी काट लेंगे। हर उम्र की अपनी-अपनी गालियां हैं। संभ्रांत गालियां, भदेस गालियां, देसी गालियां और विदेशी गालियां भी।
इन दिनों तो गालियों का अपना एक बाज़ार है। स्टैंड-अप कॉमेडियन कहता है, ‘बाबाजी का ठुल्लू’ और इस भौंडे वाक्य को बच्चे और बूढ़े की ज़ुबान पर रख देता है। ‘सही पकड़े हैं!’ हमें अश्लील नहीं लगता। साला-साली भी स्त्री पक्ष के रिश्ते हैं, गाली कैसे हो सकते हैं?
आप सोच रहे होंगे आखिर मेरी आपत्ति है क्या? तो गालियों के विज्ञान को समझिए एक बार। हर गाली द्वेष या भेदभाव का अपना एक अलग ही व्याकरण रचती है। हर गाली स्त्री अंगों से निकलकर या किसी जाति को लपेटे में लेकर, वहीं खत्म हो जाती है।
गाली आपके घर की स्त्रियों को ज़लील करती है, गाली लैंगिक भेदभाव करती है, गाली वंचित का मज़ाक उड़ाती है, गाली निचले तबके का उपहास उड़ाती है, गाली सिर्फ कमज़ोर को ही लगती है। ढूंढिये ऐसी कोई गाली जिसमें स्त्री या स्त्री के अंग ना हो, कोई जातिगत शब्द ना हो, किसी वंचित का ज़िक्र ना हो। किसी प्रान्त विशेष से संबंध रखना भी गाली बना दिया गया है।
आप गाली कभी भी किसी बड़े को नहीं दोगे, प्रभावशाली को नहीं दोगे। गाली देने वाला स्वयं को अधिक ताकतवर समझ बैठता है। दोस्त गाली देंगे तो, एक से एक नए अविष्कार करेंगे। इसके अलावा आप जिन गालियों को बड़े इत्मीनान से भाषा और अभिव्यक्ति की एक मौलिक इकाई बनाकर उसकी ज़रूरत पर बहस कर लेते हैं, उन्हें आप अपने खून के रिश्तों पर नहीं अपनाते। अरे! दोस्त हैं, अरे! मज़ाक था, अरे! गुस्से में निकल गया!
इसके अलावा गाली बकना बड़प्पन ही हो गया है, जो समर्थ है, वह वंचित को गाली देकर बड़ा हो गया। खैर, यह एक कुटिल चाल है पितृसत्ता की, जहां बिना गाली दिए बात करना, बनावटी लगने जैसी फूहड़ बात, बहुत समझदार लोग भी कह देते हैं।
मैंने अपने आजतक के अनुभव में पाया है कि गाली हर समाज में अपनी तरह प्रचलित है। ‘साला-साली’, शब्द भी स्त्री पक्ष के वे रिश्तेदार हैं, जिन्हें गाली बना दिया गया है। स्त्री की योनि से पैदा होना भी गाली है, कामगर होना गाली है, सवर्ण ना होना गाली है, चमड़ी का रंग भी गाली है, काफिर होना गाली है। आपको सुनकर हंसी आएगी, ‘बेटी का बाप’ भी गाली है।
सोचकर देखिए, भाषा से सक्षम एक मात्र शक्तिशाली जीव मनुष्य क्यों इतने मनोवैज्ञानिक विकार से ग्रस्त है कि उसे, यह द्वेष सहज लगता है। सोचिए, सोचना भी ज़िंदा रहने की निशानी है।
________________________________________________________________________________नोट- मनीषा YKA की जनवरी-मार्च 2019 बैच की इंर्टन हैं।