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“क्या एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर में मनमोहन सिंह को कमज़ोर दिखाना साज़िश है?”

मनमोहन सिंह और अनुपम खेर

मनमोहन सिंह और अनुपम खेर

2004 और 2014 के दौरान जब मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री थे तब जब भी तेल के दाम आसमान छू रहे होते थे, तब अक्सर पेट्रॉल पंप पर पेट्रॉल भरवाते समय अजनबी वाहन चालक मुझे यह कहते थे, “सरदार जी, मनमोहन सिंह को बोलो पेट्रॉल के दाम कम करे।” मेरी केशधारी सिख की छवि अक्सर मनमोहन सिंह की सिख की छवि के इतना पास ले आती थी जैसे हम एक दूसरे को बहुत करीब से जानते हैं।

इसी सिलसिले में मुंबई 26/11 का आंतकवादी हमला, सारे सरकारी घोटाले, अन्ना के नाम से मशहूर हुआ जन-लोकपाल आंदोलन, निर्भया के संदर्भ में जब सड़कों पर भारत उतरा था और हर समय जब प्रधानमंत्री के तौर पर लोग मनमोहन सिंह का विरोध कर रहे थे तब अक्सर अजनबी निगाहें मुझसे सवाल किया करती थी।

साल 2004 में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद तुरंत शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में हर जगह ज़मीन ज़ायदाद की कीमतों में आया बेमिसाल उछाल, देश की कंपनियों के शेयर इतने मंहगे हो गए कि कई कंपनियां दुनिया की नजऱ में खुद को बयान कर रही थी। वही नोकरियों का भी अंबार लग रहा था जिसका मैं भी लाभार्थी बना था।

यही नहीं घर की होम लोन का ब्याज़ दर भी काफी सस्ता हो गया जिससे अपनी छत का स्वपन भी साकार होने लगा। बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कार्यकाल ज़रूर कुछ विवादों में रहा लेकिन उस दौरान देश ने जो विकास की उड़ान भरी है, इसे कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है।

द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर का पोस्टर। फोटो साभार: Nuclear Entertainment YouTube

अब इसी तर्क के साथ एक बार फिर 14 जनवरी को आ रही ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ फिल्म के ट्रेलर को फिर से देखने की ज़रूरत है जहां मनमोहन सिंह इतने कमज़ोर दिखाई देते हैं कि इनसे ज़्यादा आत्मविश्वास तो एक समय मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारु में दिखाई देता है, लेकिन ऐसा क्यों है इसे बहुत गहराई से समझने की ज़रूरत है।

अनुपम खेर, जिन्होंने साल 1984 में एक्टिंग करियर की शुरुआत में ही महेश भट्ट निर्देशित फिल्म ‘सारांश’ में अपने किरदार और अभिनय का लोहा मनवा दिया था। वही समय-समय पर अनुपम खेर अक्सर अपने अभिनय की छवि को दर्शकों की कसौटी पर प्रमुखता दिलवाते रहे हैं।

अब अनुपम खेर ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के रूप में अभिनय कर रहे हैं। फिल्म में इनके अभिनय पर तो कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है लेकिन जिस तरह से 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद अनुपम खेर सार्वजनिक तौर पर कई बार भाजपा की विचारधारा का समर्थन कर चुके हैं, इसे समझने की ज़रूरत है।

अनुपम खेर जो कई दफा काँग्रेस की विचारधारा के विरोध में बोलते रहे हैं, वह कैसे मनमोहन सिंह के किरदार के ज़रिए से एक कलाकार के रूप में प्रमाणिकता और ईमानदारी दिखा सकते है?

बतौर एक्टर भले ही अनुपम खेर के किरदार पर शक नहीं किया जा सकता लेकिन ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में मनमोहन सिंह के ढीले- ढाले किरदार, बोले गए संवाद, चलने के अंदाज़ और यहां तक कि देखने के तौर-तरीके में भी हर जगह मनमोहन सिंह को कमज़ोर दिखाया जाना वास्तव में साज़िश का ही प्रतीक दिखाई दे रहा है।

समाज में प्रचलित सिख समाज के रूप में चुटकलों का उभर कर आना ही दिखाया जाना, बोलने की आज़ादी के माध्यम से इसे अस्वीकार भी नहीं किया जाना, वास्तव में अध्ययन का विषय ज़रूर है।

सोनिया गाँधी और मनमोहन सिंह। फोटो साभार: Getty Images

साल 2004 के आम चुनाव में भाजपा के ‘शाइनिंग इंडिया अभियान’ की हवा निकल गई थी और सोनिया गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेस यूपीए गठबंधन सरकार बनाने जा रहा था। उस दौरान सोनिया गाँधी के विदेशी होने को बहुत उग्रता से भाजपा के नेता विरोध कर रहे थे और मीडिया में खबरों का प्रसारण शुरू हो गया था कि गाँधी परिवार के अलावा ऐसा कौन सा नेता है जिसे काँग्रेस और गाँधी परिवार देश का प्रधानमंत्री बना सकते हैं।

कई दिनों तक चल रहे ड्रामे को तब विराम लग गया जब देश के प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के नाम पर मुहर लगा दी गई और तभी से अमूमन हर सार्वजनिक जगहों पर भाजपा के शीर्ष नेता खासकर लालकृष्ण आडवाणी मनमोहन सिंह को देश का सबसे कमज़ोर प्रधानमंत्री बताने में अग्रसर होने लगे और इसी कमज़ोर प्रधानमंत्री की रूप रेखा में अनुपम खेर का अभिनय ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस फिल्म की कहानी लालकृष्ण आडवाणी से पूछकर बनाइ गई है।

मोरारजी देसाई, वी पी सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा, आई के गुजराल और अटल बिहारी वाजपेयी यह सभी अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल को पूरा करने में नाकामयाब रहे हैं लेकिन कभी भी इन्हे कमज़ोर प्रधानमंत्री नहीं कहा गया। वही 10 साल तक लगातार प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह को लालकृष्ण आडवाणी द्वारा उन्हें लगातार कमज़ोर प्रधानमंत्री कह कर संबोधित करना वास्तव में बहुताय समाज की कट्टर विचारधाार की ईर्ष्या का ही प्रतीक है, जो मनमोहन सिंह के रूप में एक अल्पसंख्यक समुदाय के नेता को प्रधानमंत्री के पद पर मौजूद होने को स्वीकार नहीं कर पा रहा था।

मनमोहन सिंह। फोटो साभार: Getty Images

मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते कई ऐसे अपवाद हो सकते हैं जो अक्सर उनकी छवि को जनता के सामने उभर कर आने से रोकते हैं लेकिन समाज के किसी भी कमज़ोर वर्ग, अल्पसंख्यक समुदाय, दलित समुदाय इत्याद के साथ अत्याचार नहीं हुआ है, जिस पर चर्चा नहीं होती है। हां, मुज़फ्फरनगर का दंगा एक अपवाद ज़रूर है। इस संदर्भ में तत्कालीन 2014 के चुनाव, उत्तर प्रदेश में मौजूद तत्कालीन समाजवादी पार्टी की सरकार और तत्कालीन भाजपा उत्तर प्रदेश इकाई के प्रमुख के रूप में मौजूद अमित शाह की मौजूदगी का भी अध्ययन बहुत ज़रूरी है।

मसलन, किसी भी तरह की उग्रता, ऊंची आवाज़ में बोलना, बहुत से वादों को जनता के साथ करना और धार्मिक कट्टरता की छवि, इन सब के बिना भी एक आम नागरिक अपनी योग्यता के आधार पर प्रधानमंत्री बन सकता है, जिसका उदाहरण मनमोहन सिंह हैं। वास्तव में यह हमारे देश के लोकतंत्र की बहुत बड़ी खूबसूरती है।

वही आडवाणी द्वारा मनमोहन सिंह को लगातार कमज़ोर कहना और 2009 के चुनाव में भारत की जनता द्वारा मनमोहन सिंह के नाम पर मुहर लगाना, वास्तव में मनमोहन सिंह के रूप में मौजूद लोकतंत्र की एक ताकत की छवि को और निखार देता है। वही धार्मिक कट्टरता की छवि में मौजूद आडवाणी की इस चुनाव में हार, वास्तव में आडवाणी की कट्टरता की छवि को लोकतंत्र के कटघरे में बहुत कमज़ोर साबित करता है।

मनमोहन सिंह के 2004 से 2009 तक बतौर प्रधानमंत्री कार्यकाल अमेरिका के साथ हुई परमाणु संधि के बाद वामपंथी दलों ने यूपीए से अपना समर्थन वापस ले लिया लेकिन फिर भी मनमोहन सिंह की सरकार लोकसभा में अपना बहुमत साबित करने में कामयाब हो गई। परमाणु संधि पर मनमोहन सिंह की ज़िद्द इस बात का सबूत है कि एक अर्थशास्त्री के रूप में देश के विकास के लिए उनकी दूर अंदाज़ी अपने आप में उन्हें ताकत की छवि में दर्शाती है।

मुंबई ब्लास्ट। फोटो साभार: Flickr

वही 2008 के मुंबई आंतकवादी हमले ने लगातार देश को तीन दिनों तक टीवी चेनलों से जोड़कर रखा जहां इस घटना का इतना गहरा प्रभाव था कि देश की जनता और किसी भी घटना पर अपनी मौजूदगी का एहसास नहीं करवा रही थी। मसलन, इसी दौरान आई फिल्म ‘ओय लक्की ओय’ भी दर्शकों को अपनी ओर खींचने में बहुत बुरी तरह से नाकामयाब रही।

इसके बावजूद देश में कहीं भी हिंदू-मुसलमान के रूप में दंगे नहीं हुए। देश की एकता, धर्मनिरपेक्ष वातावरण और आपसी स्वभाव का व्यवहार यह सभी मनमोहन सिंह की सरकार की ताकत के रूप में देखा जा सकता है। मुंबई हमलों के कुछ महीनों बाद हुए आम चुनाव में काँग्रेस ने अपनी नीतिगत छवि के विपरीत शायद पहली बार चुनाव से पहले मनमोहन सिंह के रूप में अपने प्रधानमंत्री उम्मीदवार की सार्वजनिक रूप से घोषणा कर दी थी।

मनमोहन सिंह के नाम से लड़ा गया यह चुनाव और जनता द्वारा देश के प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के नाम पर मुहर लगाना, जनता के बीच उनकी लोकप्रियता को दर्शाती है।

बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल (2009-2014) के बीच कई सरकारी घोटाले हुए। जैसे- 2जी, कॉमन वेल्थ गेम्स, कोयला स्कैम आदि को मीडिया ने बहुत ज़्यादा तवज्जो दी जिसके कारण मनमोहन सिंह की सरकार की छवि के खिलाफ देश की जनता में विरोध का माहौल बनने लगा।

इसी दौरान देश में दो बड़े आंदोलन हुए जहां देश के अलग-अलग इलाकों से लोग एकजुट हुए। पहला आंदोलन दिल्ली के रामलीला मैदान में कालेधन के खिलाफ बाबा रामदेव का था और दूसरा दिल्ली के जंतर-मंतर पर समाजसेवी अन्ना हज़ारे का जन-लोकपाल के खिलाफ आंदोलन। इन दोनों जगहों पर तिरंगा लहराया जा रहा था और  भारत माता की जय के नारे लग रहे थे। ऐसा प्रतित हो रहा था जैसे अचानक से देश 1947 से पहले के माहौल को जीवित कर रहा था।

मसलन, घोटालों के बाद मनमोहन सरकार हर तरफ से घिर गई और इसी संदर्भ में जनता के आक्रोश को अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव का आंदोलन और हवा दे रहा था। यहां इन आंदोलनों के संदर्भ में राजनीतिक विशेषज्ञ 2014 में होने वाले आम चुनाव के सिलसिले में एक राजनीतिक साज़िश ज़रूर समझ रहे थे।

वही मीडिया में यह कयास लगाया जाने लगा कि काँगेस के आला कमान कभी भी मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी से बर्खास्त कर सकते हैं। साल 2009 से 2014 के कार्यकाल में बतौर प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह हर तरह से जनता, मीडिया, पार्टी और विरोधी दलों के निशाने पर होने के बावजूद भी अपने कार्यकाल को सफलतापूर्वक पूरा करने में कामयाब रहे। ये तमाम उदाहरण किसी भी तरह से मनमोहन सिंह को एक कमज़ोर प्रधानमंत्री साबित नहीं करता है।

10 सालों तक देश का प्रधानमंत्री बने रहना और इस कार्यकाल में जहां किसी भी प्रकार से व्यक्तिगत भृष्टाचार के आरोपों मुक्त रहना, किसी भी तरह से धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक कट्टरता की स्थिति को उभरने ना देना, वास्तव में मनमोहन सिंह के रूप में एक ताकत का ही परिचय देता है। जहां अर्थशास्त्री के रूप में इनकी दूरदर्शी सोच देश का विकास कर रही थी, जो 2008 में आई बाज़ार की मंदी से भी नहीं घबराया और सुरक्षा, शिक्षा, मनरेगा जैसी योजनाओं से गरीब तबकों को भी लाभार्थी बनाया।

व्यक्तिगत रूप से एक सिख होने के नाते मैं मनमोहन सिंह से ज़्यादा खुश नहीं हूं। साल 2005 में 1984 सिख कत्लेआम पर पेश की गई नानावटी कमीशन की रिपोर्ट के संदर्भ में मनमोहन सिंह ने बतौर प्रधानमंत्री ज़रूर देश से माफी मांगी थी लेकिन कई बार सार्वजनिक सभाओं में खासकर पंजाब में मनमोहन सिंह ने सिख समुदाय को 1984 के सिख कत्लेआम को भूलने की नसीहत दी थी।

मनमोहन सिंह। फोटो साभार: Getty Images

मसलन, मनमोहन सिंह लिबाज़ से एक सिख की भूमिका में ज़रूर थे, व्यक्तिगत रूप से सिख धर्म में उनकी श्रद्धा ज़रूर हो सकती है लेकिन उन्होंने अपने कार्यकाल में 1984 के कत्लेआम के दोषियों के संदर्भ में कभी भी कठोर कानून पर विचार नहीं किया। अब उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया इसका जवाब तो वह खुद ही दे सकते हैं और सिख समाज अलग-अलग कयास लगा सकता है।

इसका एक पहलू यह भी है कि बतौर सिख प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 1984 के सिख कत्लेआम में अपनों को खो चुके लोगों को इंसाफ नहीं दिला पाए। वही इसका दूसरा पहलू यह है कि मनमोहन सिंह ने अपने निजी जीवन, श्रद्धा, भाषा, धर्म इत्याद से ऊपर उठ कर देश के प्रधानमंत्री के रूप में देश के सभी वर्गों के लिए कार्य किया है और वह इसी के लिए अग्रसर और चिंतित रहे हैं। यह वास्तव में प्रधानमंत्री के रूप में देश के प्रति मनमोहन सिंह की ईमान और सेवा भाव को भी प्रगट करता है।

मनमोहन सिंह ने अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल में ताकत, ईमान, सेवा इत्याद सभी उच्च व्यवहारों का व्यक्तिगत रूप से परिचय दिया है। इसके बावजूद जनता के दरबार में कुछ शिकायतें मनमोहन सिंह के संदर्भ में ज़रूर मौजूद होगी लेकिन ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में अनुपम खेर द्वारा मनमोहन सिंह की कमज़ोर, ढीली-ढाली, आत्म विश्वास में भारी कमी, दु:खी, चिंतित और हर तरह से एक हारे हुए व्यक्ति के तौर पर पेश की गई छवि पर जनता क्या मुहर लगाती है, वह तो फिल्म के सिनेमा में आने के बाद ही कहा जा सकेगा।


 

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