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“क्या नरेन्द्र मोदी ‘सरदार पटेल’ को राजनीतिक संपत्ति समझते हैं?”

नरेन्द्र मोदी और सरदार पटेल की मुर्ति

नरेन्द्र मोदी और सरदार पटेल की मुर्ति

वर्तमान समय में महापुरुषों को हथियाने की जो होड़ लगी है, उन महापुरुषों के विचार आपको मूर्ति निर्माणकर्ताओं से अलग मिल जाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी ने बीते कुछ वक्त में जैसे सरदार पटेल को खुद तक और एक भारतीय से ज़्यादा एक गुजराती बना कर रखने की जो कोशिश की है वह सरदार पटेल के विचार नहीं हो सकते।

अपनी छवि सुधारने के लिए सरदार पटेल को काम में लाना और उन्हें अपनी राजनीतिक संपत्ति के तौर पर इस्तेमाल करना, यह उनके विचारों का अपहरण मात्र है।

गाँधी का बहिष्कार करने वाले, उनके हत्यारे का मंदिर बनाने वाले, धर्मनिरपेक्षता के विरोधी और भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के पैरोकार बीजेपी के कोर वोटर्स माने जाते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इन लोगों के पसंदीदा नेता हैं। ऐसे में पीएम मोदी का यह पूरा प्रकरण उनके सरदार भक्ति पर गहरा शक पैदा करता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार: Getty Images

सरदार पटेल किसी शाखा के सदस्य नहीं थे परन्तु एक गाँधी प्रेमी और पंडित नेहरू के मित्र ज़रूर थे, जिन्होंने हमेशा भारत की एकता, अखंडता, सामाजिक और धार्मिक समानता पर बल दिया। ऐसे में नरेन्द्र मोदी का सरदार पटेल के प्रति प्रेम उमरना किसी  विडम्बना से कहीं ज़्यादा चापलूसी का एहसास कराता है। ऐसा करके मोदी उनकी साफ छवि तले खुद को स्थापित कर अपने व्यक्तित्व को भी थोड़ा रौशन करना चाहते हैं।

मज़े की बात तो यह है कि उनका पूरा प्रकरण कामयाब होता दिखाई पड़ता है। उनकी इस कामयाब कोशिश के पीछे एक कारण यह भी है कि हमारे देश की अधिकांश जनता अपने क्रांतिकारियों और महापुरुषों के नाम के अलावा कुछ खास जानती नहीं है।

महात्मा गाँधी की हत्या के बाद जिस सरदार पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाये थे, उसी आरएसएस के एक समर्पित सदस्य द्वारा उनकी विशालकाय मूर्ति का अनावरण सरदार पटेल के प्रति उनके स्नेह से ज़्यादा उनके नाम को किसी साबुन की तरह प्रयोग करने की कोशिश मात्र दिखाई पड़ता है।

महात्मा गाँधी का नाम प्रधानमंत्री मोदी बार-बार जनसभाओं में लेते हैं। राजनीतिक मेहमानों को उनका ‘साबरमती आश्रम’ दिखाने ले जाते हैं और उन्हीं की पार्टी के प्रवक्ताओं को आप बापू की हत्या करने वाले का बचाव करते भी न्यूज़ चैनल्स में देख सकते हैं।

महात्मा गाँधी। फोटो साभार: सोशल मीडिया

महात्मा गाँधी अहिंसा के पर्याय थे, इसलिए प्रधानमंत्री मोदी का गाँधी प्रेम हमें असमंजस में डाल देता है। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते दंगों के समय दिया उनका वह बयान “हर क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती है” धार्मिक उन्मादियों में जोश भरने का काम करता है। दंगाइयों को मानसिक बल देता है। ऐसे में बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या उनका यह बयान और ऐसी मानसिकता गाँधी के सिद्धांतों से दूर-दूर तक इत्तेफाक भी रखती है?

हिंदू संगठन ‘अखिल भारतीय हिंदू महासभा’ की उपाध्यक्ष साध्वी देवा ठाकुर एक शादी के दौरान जब हवा में गोलिायां चलाती हैं तब दुल्हे के रिश्तेदार की मौत हो जाती है। साध्वी जब एक वीडियो साझा करती हैं तब तस्वीर और शर्मनाक हो जाती है। अपने विरोधियों को गाली-गलौच और हिंसा से भरे संदेशों के ज़रिए लोगों के सर तक काटने की बात करने वाली साध्वी ‘भारत माता की जय’ के साथ अपनी बात खत्म करती है।

वर्तमान समय में राष्ट्रवाद जैसे एक बहुउद्देशीय चादर के समान हो गया है जिसे यहीं के राजनेताओं द्वारा लोगों को भड़काने के लिए प्रयोग किया जा रहा है। पिछले साल जम्मू में हिंदुस्तान की ही एक बेटी के बलात्कारियों के पक्ष में निकाली गई तिरंगा यात्रा इस बात का प्रमाण है कि ‘राष्ट्रवाद’ पाखंडी राष्ट्रवादियों का पसंदीदा हथियार बन चुका है।

सरदार भगत सिंह, जिन्होंने जेल में एक किताब तक लिख डाली जिसका नाम है “मैं नास्तिक क्यों हूं।” जिन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ते हुए भी उन्हें अपना दुश्मन नहीं माना। आज राष्ट्रवाद के नाम पर नफरत और हिंसा फैलाने वाले ‘कट्टर धार्मिक संगठन’ अपार बेशर्मी के साथ उनकी तस्वीरों का इस्तेमाल करते हैं।

अमित शाह और नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार: Getty Images

यह बेहद निराशाजनक है कि हमारे देश के लोग अपने क्रांतिकारियों और महापुरुषों को सिर्फ नाम से जानते हैं, उनके कामों और कही गई बातों से नहीं। सरदार पटेल, महात्मा गाँधी या भगत सिंह को खुद की या किसी और की मूर्ति बनाने से पहचान नहीं मिली बल्कि अपने कामों के ज़रिए उन्होंने यह संभव किया।

एक विद्वान को कभी अपनी तारीफ हजम नहीं होती और ना ही वह इसकी उम्मीद रखता है। समाज के लिए उनका योगदान कोई बाज़ारू वस्तु नहीं है जिसके बदले में वह प्रशंसा या मूर्ति निर्माण की लालसा रखें। अगर हम अपने महापुरुषों के विचारों को पालन करने से ज़्यादा केवल मूर्ति निर्माण का ही लक्ष्य लेकर चलेंगे तब आने वाली नस्लें खुद को उनके विचारों से वंचित उनके मृत इमारतों के नीचे पाएंगे

अगर आप उनके मौखिक प्रशंसक हैं लेकिन अपने कर्मों से उनके विरोधी हैं तब उनके कामों का क्रेडिट लेने से ज़्यादा आप कुछ नहीं कर सकते। कोई भी महान व्यक्तित्व अपनी मृत्यु के बाद भी अपने दिए विचारों से जीवंत माना जाता है। केवल मूर्ति निर्माण और जन-सभाओं में उनकी प्रशंसा के बाद जब आप ज़मीन पर ठीक उनसे उलट काम करते हैं तब यह पाखंड और उनकी आत्माओं का अपहरण मात्र है।

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