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क्या भाजपा के पास विरोधी गठबंधनों का काट है?

नरेन्द्र मोदी

नरेन्द्र मोदी

बीते दिनों भारत की राजनीति में एक असामान्य घटना घटित हुई है। भारत की दो बड़ी राजनीतिक पार्टी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जो एक दूसरे की सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी है, उसने 25 सालों से चली आ रही कड़वाहट को भुलाकर गठबंधन कर लिया है।

गौरतलब है कि 1993 में सपा-बसपा गठबंधन ने उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई थी लेकिन 1 साल के अंदर ही दोनों के बीच रिश्ते खराब हो गए। बसपा की भाजपा से बढ़ती नज़दीकियों के कारण सपा के कार्यकर्ताओं ने एक दिन गेस्ट हाउस में चल रही मायावती की बैठक के बीच में ही उन पर हमला कर दिया।

इस घटना को ‘गेस्ट हाउस कांड’ के नाम से जाना जाता है जिसके बाद बसपा ने सपा से गठबंधन तोड़ लिया और भाजपा के समर्थन से सरकार बना ली।

ढाई दशक के बाद समय ने फिर करवट ली है। एक बार फिर सपा-बसपा ने गठबंधन किया है लेकिन इस बार परिस्थितियां कुछ और हैं। इस बार दोनों पार्टियों के सामने अस्तित्व की लड़ाई का सवाल है।

भारतीय राजनीति में उत्तर प्रदेश को बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। इस राज्य ने देश को कई प्रधानमंत्री दिए हैं। इसकी विशालता ही इसकी खूबसूरती है। 80 लोकसभा सीटों वाला यह राज्य अकेले ही भारतीय राजनीति की दिशा बदलने के लिए काफी है। हिंदी पट्टी के राज्यों में सबसे प्रभावशाली राज्य उत्तरप्रदेश ही है।

अमित शाह और नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार: Getty Images

भाजपा ‘नरेंद्र मोदी’ और ‘अमित शाह’ के नेतृत्व में चुनावों में लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रही है और वर्तमान में करीब 18 राज्यों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार चल रही है। 2014 के आम चुनावों के बाद से ही देश में भाजपा का विजय रथ चल रहा है और मोदी का करिश्माई चेहरा सभी को पीछे छोड़ता हुआ आगे बढ़ रहा है।

काफी समय से ही मोदी की काट के तौर पर गठबंधन बनाने की कवायद चल रही है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव और आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू कई महीनों से एनडीए के बरक्श एक मज़बूत गठबंधन बनाने की कवायदों में लगे हुए हैं लेकिन अभी तक वह सफल नही हो पाए हैं। ऐसे में सपा-बसपा का गठबंधन भाजपा और उसके सहयोगियों के लिए एक बड़ी चुनौती लेकर आया है।

आखिर क्यों ज़रूरत है गठबंधन की

सपा-बसपा के बीच हुए गठबंधन के कई मायने हैं। पहला, बसपा लगातार उत्तरप्रदेश में अपना जनाधार खो रही है। 2014 के लोकसभा चुनावों में बेहतरीन सोशल इंजीनियरिंग के बावजूद मायावती की पार्टी को एक भी सीट नहीं मिल पाई थी। वहीं, 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में भी बसपा 19 सीट ही जीत पाई थी। ऐसे में मायावती के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी पार्टी को उत्तरप्रदेश में फिर से खड़ा करना है। मायावती को इस काम के लिए सपा से गठबंधन करने के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं था।

दूसरा, राष्ट्रीय राजनीति के मद्देनज़र सपा-बसपा गठबंधन भाजपा और उनकी सहयोगी पार्टियों के लिए एक चुनौती है। माया-अखिलेश के एक होने के बाद देश के अनेक राज्यों में एक संदेश गया है कि अगर राज्यों के छत्रप एक साथ मिल जाएं तो वह मोदी जैसे मज़बूत विपक्षी का सामना कर सकते है।

तीसरा, मौजूदा स्तिथि ऐसी है कि विचारों और मतों में भिन्नता के बाद भी मोदी विरोध में विपक्षी पार्टियां एक साथ आने को तैयार हैं। वर्तमान में तो यही लगता है कि उनका एकमात्र उद्देश्य मोदी को अगले चुनाव में प्रधानमंत्री बनने से रोकना है। 2019 के लोकसभा के मद्देनज़र माया-अखिलेश के इस गठबंधन को बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा है।

बीएसपी सुप्रीमो मायावती। फोटो साभार: Getty Images

गौरतलब है कि सपा-बसपा ने लोकसभा चुनाव को लेकर सीटों का बटवारा भी कर लिया है। सपा-बसपा 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और 4 सीट उन्होंने अपने सहयोगियों के लिए छोड़ी है। काँग्रेस ने इस गठबंधन से अलग रहते हुए यूपी के सभी लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है।

लोकसभा चुनाव को मात्र 3 महीने बचे हैं। अगर उत्तरप्रदेश की तरह ही और भी राज्यों में गठबंधन बनता है या राष्ट्रीय पटल पर कोई मज़बूत गठबंधन आकार लेता है तब एनडीए के लिए आगामी आम चुनावों में परेशानी हो सकती हैं।

दिलचस्प है कि सत्ता पक्ष की तरफ से अभी तक इस गठबंधन की काट के तौर पर कोई कदम नहीं उठाया गया है। भाजपा के सामने भी अपने सहयोगियों को एक-साथ रखना बड़ी चुनौती है। चंद्रबाबू नायडू और असम गण परिषद पहले से ही एनडीए से अलग हो चुके हैं। सबसे पुरानी सहयोगी शिवसेना भी आए दिन भाजपा को आंखे दिखाती रहती है। ऐसे में मोदी-शाह के सामने नई समीकरण बनाने की चुनौती है जिससे उनके विरोध में बन रहे गठबंधनों की काट निकल सके।

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