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क्या महागठबंधन के पास मोदी का सामना करने के लिए कोई चेहरा है?

नरेन्द्र मोदी, मायावती और अखिलेश यादव

नरेन्द्र मोदी, मायावती और अखिलेश यादव

लोकसभा चुनाव के लिए कुछ महीने ही शेष रह गए हैं। अभी हाल ही में ‘समाजवादी पार्टी’ और ‘बहुजन समाजवादी पार्टी’ के बीच हुए गठबंध से देश का चुनावी माहौल कुछ अलग ही है। वही बीजेपी ने भी चुनाव अभियान तेज़ कर दिया है।

इस चुनावी समर के बीच एक बात ज़ोर से सुनाई दे रही है कि नरेन्द्र मोदी के सामने कौन है? भाजपा के कार्यकर्ता, प्रवक्ता और यहां तक कि कुछ पत्रकार भी इस बात पर नज़र बनाए हुए हैं। उनका कहना है कि महागठबंधन के पास ना तो कोई चेहरा और ना ही देश के लिए कोई विज़न है।

एक विचारधारा के साथ बीजेपी का समर्थन करने वाले लोग तो यही चाहेंगे कि बीजेपी फिर से 2019 में जीत दर्ज करे। खैर, महागठबंधन में मोदी का सामना करने के लिए किसे तैयार किया गया है, इस पर भी चर्चा होनी चाहिए।

ऐसे में आपको इतिहास जानना ज़रूरी है कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू एक लोकप्रिय छवि के नेता थे। उनके देहांत के बाद भी कोई विकल्प नज़र नहीं आ रहा था, फिर भी देश की कमान लाल बहादुर शास्त्री के हाथ में चली गई।

ऐसा कहना गलत होगा कि लाल बहादुर शास्त्री अच्छे नेता नहीं थे। वह तो देश का दुर्भाग्य था कि वह ज़्यादा वक्त तक प्रधानमंत्री नहीं रहे। ऐसे में हमें उनके ‘जय-जवान-जय-किसान’ वाले नारे को याद करना चाहिए।

इंदिरा गाँधी। फोटो साभार: सोशल मीडिया

आपातकाल के बाद इंदिरा गाँधी चुनाव हार गईं तब भी उनके सामने कोई चेहरा चुनौती देता नज़र नहीं आया। उस वक्त तमाम राजनीतिक दल साथ आए थे जिसके कारण इंदिरा गाँधी को हार का सामना करना पड़ा। इंदिरा गाँधी के लोकप्रिय होने का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस हार के बाद भी वह एक बार फिर चुनाव जीतते हुए प्रधानमंत्री बनीं।

राजीव गाँधी 1984 का चुनाव 415 सीटों से जीते थे फिर भी बोफोर्स के कथित घोटाले की वजह से अगला चुनाव हार गए। उस समय भी राजीव गाँधी को चुनौती देने वाला कोई चेहरा राजनीति में नहीं था। इतना बड़ा बहुमत होते हुए भी राजीव गाँधी चुनाव हार गए।

2004 में अटल बिहारी वाजपेयी को जब हार का सामना करना पड़ा था तब भी उनके सामने कोई चेहरा नहीं था। ऐसे में हमें इस इतिहास से सीखने की ज़रूरत है। यह भी कहा जाता है कि लोगों ने 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को देख कर ही वोट किया था लेकिन यह एक अर्ध सत्य है।

मनमोहन सिंह। फोटो साभार: Getty Images

दरअसल, 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले जब देश में यूपीए की सरकार थी तब जनता में भ्रष्टाचार को लेकर काफी आक्रोश था। 2जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेल और कोयला घोटालों से जनमानस में एक नकारात्मक छवि बन गई थी। अन्ना और स्वामी रामदेव के आंदोलनों के ज़रिए भी सरकार के प्रति लोगों की नाराज़गी बढ़ी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस चीज़ का काफी फायदा उठाया।

बहरहाल, उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन हो गया है। महाराष्ट्र में काँग्रेस और राष्ट्रवादी काँग्रेस एक साथ चुनाव लड़ने की बात कह रहे हैं। वही दक्षिण भारत में बीजेपी के लिए कोई खास राजनीतिक ज़मीन नहीं दिखाई पड़ रही है।

पश्चिम बंगाल में भी कांटे की टक्कर हो सकती है। ऐसे में क्या देश खंडित जनादेश की तरफ इशारा कर रहा है? यह कोई नई बात नहीं है क्योंकि देश में बहुत कम ऐसे मौके आए हैं जब किसी को बहुमत प्राप्त हुआ है। 2014 में 30 साल बाद किसी पार्टी को बहुमत मिला था। यानि कि तीस सालों तक देश बिना बहुमत के चलता रहा।

बहरहाल, सपा और बसपा गठबंधन को अवसरवादी कहने वाली बीजेपी को यह सोचना चाहिए कि वह खुद क्या है? खैर,सभी पार्टियां सत्ता पाने के लिए ही राजनीति करती है। असली तस्वीर तो लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद ही सामने आएगी।

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