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क्यों प्रियंका वाड्रा का इंदिरा गाँधी होना आसान नहीं?

प्रियंका गाँधी और इंदिरा गाँधी

प्रियंका गाँधी और इंदिरा गाँधी

2019 लोकसभा चुनाव के शोर के बीच बुधवार को राजनैतिक माहौल एक बार फिर गर्म हो गया जब सोनिया गाँधी की पुत्री और राहुल गाँधी की बहन प्रियंका वाड्रा को पार्टी द्वारा राष्ट्रीय महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया।

प्रियंका वाड्रा यूं तो पहले भी राजनीति में अक्सर कभी अपनी माँ सोनिया गाँधी तो कभी अपने भाई राहुल गाँधी के संसदीय क्षेत्र में प्रचार करती नज़र आई हैं। इस बार उनके सक्रीय राजनीति में आते ही कार्यकर्ताओं से लेकर मीडिया के एक वर्ग में उनकी तुलना पूर्व प्रधानमंत्री व उनकी दादी इंदिरा गाँधी से होनी शुरू हो गई।

प्रियंका वाड्रा अपनी दादी की तरह ही वाक्पटुता और हाज़िर जवाबी में माहिर हैं। इंदिरा और प्रियंका में सबसे बड़ा अंतर दोनों की शिक्षा, सोच और राजनैतिक गुरू का रहा है। महात्मा गाँधी जैसे व्यक्तित्व की छत्रछाया इंदिरा गाँधी को काफी विशिष्ट बना देती है।

इंदिरा गाँधी। फोटो साभार: सोशल मीडिया

इंदिरा गाँधी के प्रारंभिक राजनैतिक जीवन में लोहिया अक्सर उन्हें ‘गूंगी गुड़िया’ कहा करते थे, जो उस वक्त काफी हद तक सही इसलिए भी था क्योंकि 1966 से पहले वाली इंदिरा सौम्य स्वभाव की थीं। उनकी ज़्यादातर सामाजिक गतिविधियां भी प्रधानमंत्री पिता की छत्रछाया में ही सीमित थी और वह भाषण भी प्रायः ना के बराबर ही देती थीं।

इंदिरा गाँधी को बचपन से ही नेहरू ने एक विद्यार्थी की तरह पाला था। नेहरू-इंदिरा का सम्बन्ध एक पिता-पुत्री से ज़्यादा एक गुरू-शिष्य का ही रहा था। दूर रहकर भी नेहरू अक्सर इंदिरा को पत्र लिखा करते थे और इंदिरा का बचपन केवल नेहरू ही नहीं बल्कि महात्मा गाँधी से लेकर सरदार वल्लभ भाई पटेल सहित अन्य प्रेरणादायी स्वतंत्रता सेनानियों के बीच गुज़रा था।

वंशवाद के खिलाफ थे नेहरू

वरिष्ठ पत्रकार वीर संघवी अपनी किताब ‘मैंडेट: विल ऑफ द पीपल’ में लिखते हैं कि नेहरू हमेशा से वंशवाद के खिलाफ थे। यही कारण था कि अपने जीवन काल में तो नेहरू ने इंदिरा को ‘पीएम मटेरियल’ या फिर संगठन का नेता बनाने के बजाए एक अच्छा नागरिक बनने पर ज़्यादा ज़ोर दिया।

तीन मूर्ति भवन में साथ रहने के बावजूद भी 1950 में काँग्रेस के अध्यक्ष पद को छोड़कर इंदिरा गाँधी का नेहरू के लोकतांत्रिक मूल्यों में कोई दखल नहीं था, वही हाल नेहरू के दामाद फिरोज़ गाँधी का भी रहा है।

भारत सरकार में सर्वप्रथम इंदिरा गाँधी की मुख्य भूमिका नेहरू के दिवंगत होने के बाद ही प्रारम्भ हुई। पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के सरकार में उन्हें ‘इनफॉर्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग’ मंत्रालय की ज़िम्मेदारी दी गई।

जवाहरलाल नेहरू। फोटो साभार: गूगल फ्री इमेजेज़

नेहरू के करीबी नटवर सिंह ने भी नेहरू के दिवंगत होने के बाद कहा था, “नेहरू चाहते थे कि इंदिरा सक्रिय राजनीति में ज़रूर आएं लेकिन इंदिरा को नेहरू ने कभी भी वंश आधारित राजनीति के नेता के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किया। हालांकि नेहरू यह भी कहते थे कि इंदिरा में बड़े नेता बनने के सारे गुण हैं लेकिन वह कभी उन्हें आगे नही बढ़ाएंगे।”

बहरहाल, लाल बहादुर शास्त्री के अकस्मात मृत्यु के बाद गाँधीवादी मोरारजी देसाई की छत्रछाया में इंदिरा गाँधी को उस वक्त के काँग्रेस सिंडीकेट ने ही प्रधानमंत्री बनाया। इंदिरा युग के प्रारम्भ में इंदिरा भी नेहरू की तरह ही वंशवाद की राजनीति के खिलाफ थीं लेकिन इमरजेंसी के दंश और उनके पुत्र संजय गाँधी की अकस्मात मृत्यु तथा करीबी पीएन हक्सर की असक्रियता ने इंदिरा युग के साथ-साथ वंशवाद के नए युग की शुरुआत कर दी।

वहीं, राजीव गाँधी की निर्मम हत्या ने गाँधी परिवार को दशकों तक राजनीति से दूर ही रखा। इस बीच एक दशक तक समाजवादी नेताओं और भाजपा सहित अन्य क्षेत्रीय दलों को अपनी राजनीति को प्रभावी तरीके से फैलाने का अवसर मिला।

सोनिया गाँधी का राजनीति में प्रवेश

अटल युग की राजनीति में सोनिया गाँधी का प्रवेश होता है और एक बार फिर से नए गाँधी युग की शुरुआत राहुल गाँधी के सक्रीय राजनीति में प्रवेश से होती है। सोनिया गाँधी या राहुल गाँधी सरकार का तो हिस्सा नहीं बनते हैं लेकिन संगठन के सर्वोच्च पदों का भार लेते हैं।

इस बीच सोनिया गाँधी पर अक्सर ही सरकार के मामलों में हस्तक्षेप के आरोप लगते रहे हैं। इसका ज़िक्र संजय बारू ने भी अपनी किताब “द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर” में किया है।

अब राहुल गाँधी के बाद सोनिया गाँधी की बेटी प्रियंका वाड्रा को भी संगठन में राष्ट्रीय महासचिव बना कर एक बार फिर वंशवाद की राजनीति के मुद्दे को गर्म कर दिया है।

प्रियंका गाँधी और इंदिरा गाँधी के बीच तुलना संभव नहीं

एक बड़ा अंतर जो प्रियंका वाड्रा और इंदिरा गाँधी में है वो यह कि इंदिरा गाँधी ने शुरू से ही ज़मीनी स्तर पर काम किया है। उन्हें केवल नेहरू, गाँधी और पटेल ही नहीं बल्कि फिरोज़ गाँधी जैसा योग्य वक्ता और राजनैतिक समझ वाला साथी मिला था। जबकि प्रियंका वाड्रा का मुख्य अनुभव केवल अपनी माँ या फिर अपने भाई के चुनावी सारथी तक ही सीमित रहा है।

सोनिया गाँधी और प्रियंका गाँधी। फोटो साभार: Getty Images

प्रियंका वाड्रा का सक्रिय राजनीति में आना एक स्वागत योग्य कदम है लेकिन जिस तरह से इसे भी विशिष्ट बनाया जा रहा है, क्या यह नेहरू युग के लोकतंत्र और संविधान की बातें करने वालों के लिए अपचनीय होगा?

खैर, भारत के हर नागरिक की तरह और विशेष रूप से महिला होने के नाते केवल प्रियंका वाड्रा ही नहीं बल्कि देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को सक्रिय राजनीति में आना चाहिए। प्रियंका वाड्रा का स्वागत भी उसी रूप में होना चाहिए जैसे हमने अतित में अन्य महिलाओं को राजनीति में आते देखा है।

गाँधी परिवार पर ही वंशवाद के आरोप क्यों?

नेहरू-गाँधी परिवार पर वंशवाद के आरोप अक्सर ही लगते रहते हैं, जबकि उनके आलावा देश में 100 से भी ज़्यादा ऐसे परिवार (नेता) हैं, जो कि समय-समय पर अपनी राजनैतिक विरासत अपने परिवार के अन्य सदस्यों को सौपतें रहे हैं।

आंध्रप्रदेश की बात करें तो नरसिंह राव परिवार, रेड्डी परिवार, मारी परिवार, नंदमुरी परिवार, नारा परिवार, कोटला परिवार, येदुगिरी परिवार, कालवाकुन्तला परिवार, बिहार में यादव परिवार, जगजीवन राम परिवार, ललित नारायण मिश्र का परिवार, पासवान परिवार, आज़ाद और सिन्हा जैसे परिवारों में राजनैतिक विरासत पारिवारिक सदस्यों को सौपीं गई है।

वहीं, उत्तर प्रदेश में ही भद्री, चौधरी चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव, खुर्शीद, अंसारी और सुल्तानपुर अमेठी के वंशवादी राजनैतिक परिवार भी वंशवाद की राजनीति के पेड़ के ही हिस्से हैं।

यहां तक कि पश्चिम बंगाल में ही सुभाष चंद्र बोस के भाई शरत चन्द्र बोस से शुरू होकर लोकसभा के सदस्य रहे भतीजे शिशिर, शरत के बेटे जो कि अपने पिता के बाद सासंद रहे, शरत की माँ कृष्णा भी सांसद रहीं, जबकि वर्तमान में बोस परिवार से अमित मित्रा पश्चिम बंगाल की वित्त मंत्री हैं। उसी तरह पश्चिम बंगाल में अभी भी नायडू, मुखर्जी और दासमुंशी परिवार के वंशानुगत राजनीति की परिपाटी चल रही है।

वसुंधरा राजे। फोटो साभार: Getty Images

तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार, रामचंद्रन परिवार, रामदॉस परिवार, राजगोपालचारी, राजमंगलम, मूपनार और वाइको परिवार के सदस्यों की अभी भी सक्रिय भागीदारी है।

राजस्थान में वसुंधरा राजे परिवार, राजेश पायलट परिवार, मदरेणा परिवार, मीना परिवार, विश्नोई परिवार और मिर्धा परिवार के सदस्यों की सक्रीय भागीदारी है। जबकि पंजाब में बादल परिवार, बेयन्त सिंह परिवार, रॉयल फैमिली ऑफ पटियाला, बरनाला परिवार, सिद्धू परिवार, ढिल्लन परिवार, मजीठिया परिवार, बंजवा परिवार, भट्टल परिवार और गुप्ता परिवार के सदस्य अभी भी राजनीति में हैं।

छत्तीसगढ़ में अजित जोगी परिवार, रवि शंकर शुक्ल परिवार, कश्यप परिवार और रमन सिंह के परिवार के सदस्य भी राजनीति से ताल्लुक रखते हैं। वहीं, गुजरात में केशुभाई पटेल का परिवार, गायकवाड़ परिवार, कोरट परिवार तथा सोलंकी परिवार के तमाम सदस्य अब भी राजनीतिक जीवन में हैं।

इन परिवारों के अलावा भी कल्याण सिंह, लालजी टंडन, राजनाथ सिंह और सिंधिया आदि भी राजनीति की अपनी विरासत परिवार के अनुजों को सौपतें जा रहे हैं।

राहुल गाँधी की राजनीति को सहारा देंगी प्रियंका

प्रियंका वाड्रा का एक महिला के नाते सक्रिय राजनीति में आना प्रेरणादायी है लेकिन यह प्रश्न भी पूछना जाएज़ है कि क्या उन्हें उनकी व्यक्तिगत योग्यता के बजाय पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गाँधी की पुत्री होने के नाते या फिर सोनिया गाँधी या राहुल गाँधी के पारिवार से होने के कारण अगर यह दायित्व दिया गया है। ऐसे में प्रियंका वाड्रा को इंदिरा कहने वालों को इंदिरा गाँधी के जीवन के बारे में अध्ययन करने की ज़रूरत है।

इंदिरा के राजनैतिक सफर में वह दौर भी आया जहां एक वक्त ‘इंदिरा इज़ इंडिया’ का नारा लगने लगा। इंदिरा के संघर्षों की दास्तां आसान नहीं थी। पिता की मृत्यु के बाद अकेली पड़ी इंदिरा ने बड़ी सूझबूझ से केवल स्वयं को ही नहीं बल्कि देश की राजनीति को भी नई दिशा दी।

सरकार में रहकर कभी विपक्षी दल तो कभी पड़ोसी मुल्क तक के दांत खट्टे कर दिए। काँग्रेस से जुड़े जानकारों की माने तो इंदिरा गाँधी विपरीत परिस्थितियों में देश को दिशा देने वाली नेता थीं जबकि प्रियंका वाड्रा का किरदार सम्भवतः केवल भाई राहुल गाँधी की राजनीति को सहारा देना ही होगा।

राहुल गाँधी। फोटो साभार: Getty Images

राजनीति में व्यक्ति विशेष की असीमित सम्भावनाएं होती हैं। साल 2002 तक शायद ही किसी ने कभी सोचा होगा कि साल 2014 में नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे। यह भी किसी ने नहीं सोचा था कि साल 2004 के बाद से लाल कृष्ण आडवाणी सरकार से कभी नहीं जुड़ पाएंगे।

राजनीति में कुछ भी हो सकता है लेकिन जानकारों की माने तो प्रियंका वाड्रा की संगठन में स्वीकार्यता और वाक्पटुता में माहिर होने के बावजूद भी इंदिरा गाँधी से तुलना नहीं की जा सकती है। हालांकि उनमें भी अन्यों की तरह संभावनाएं अनन्त हैं।

नोट: लेख में प्रयोग किए गए तथ्य संजय बारू की किताब ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ और वरिष्ठ पत्रकार वीर संघवी की किताब ‘मैंडेट: विल ऑफ द पीपल’ से लिए गए हैं।

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