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“BJP और RSS को मुसलमानों की कुर्बानी क्यों नहीं दिखती?”

मोहन भागवत और अमित शाह

मोहन भागवत और अमित शाह

भारत को ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी दिलाने में अनगिनत मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी जान की कुर्बानी दी लेकिन जब भी स्वतंत्रता आंदोलन की बात होती है, सिर्फ एक ही नाम सामने आते हैं। उस नाम से आप भली-भांति वाकिफ हैं।

जी हां, वह और कोई नहीं बल्कि ‘अशफाक उल्लाह खान’ हैं। मुद्दा यह है कि क्या सिर्फ ‘अशफाक उल्लाह खान’ ही भारत के स्वतंत्रा आंदोलन में शामिल थे? अगर गहन अध्यन किया जाए तब आप देखेंगे कि 1498 की शुरुआत से लेकर 1947 तक मुसलमानों ने विदेशी आक्रमणकारियों से जंग लड़ते हुए ना सिर्फ शहीद हुए बल्कि बहुत कुछ कुर्बान कर दिया।

फतवा राष्ट्रप्रेम का

‘मौलाना हुसैन अहमद मदनी’ ने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ फतवा दिया कि अंग्रेज़ों की फौज में भर्ती होना हराम है। अंग्रेज़ी हुकूमत ने मौलाना के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया। सुनवाई में अंग्रेज़ जज ने पूछा, “क्या आपने फतवा दिया है कि अंग्रेज़ी फौज में भर्ती होना हराम है?”

मौलाना ने जवाब दिया, ‘हां फतवा दिया है और सुनो, यही फतवा इस अदालत में अभी दे रहा हूं और याद रखो आगे भी ज़िन्दगी भर यही फतवा देता रहूंगा।’ इस पर जज ने कहा, “मौलाना इसका अंजाम जानते हो? सख्त सज़ा होगी।”

नोट: तस्वीर प्रतीकात्मक है। फोटो साभार: गूगल फ्री इमेजेज़

जज की बातों का जवाब देते हुए मौलाना कहते हैं कि फतवा देना मेरा काम है और सज़ा देना तेरा काम, तू सज़ा दे। मौलाना की बातें सुनकर जज क्रोधिए हुए और कहा कि इसकी सज़ा फांसी है। इस पर मौलाना मुस्कुराते हुए अपनी झोली से एक कपड़ा निकाल कर मेज पर रखते हैं।

अब जज पूछते हैं, “यह क्या है मौलाना?” मौलाना उनका जवाब देते हुए कहते हैं कि यह कफन का कपड़ा है। मैं देवबंद से कफन साथ में लेकर आया था। अब जज कहते हैं, “कफन का कपड़ा तो यहां भी मिल जाता।”

इस पर मौलाना जवाब देते हैं कि जिस अंग्रेज़ की सारी उम्र मुखालफत की उसका कफन पहनकर कब्र में जाना मेरे ज़मीर को गंवारा नहीं। गौरतलब है कि फतवे और इस घटना के असर में हज़ारों लोग फौज़ की नौकरी छोड़कर जंग-ए-आज़ादी में शामिल हो गए।

शाह अब्दुल अजीज़ का अंग्रेज़ों के खिलाफ फतवा

1772 मे शाह अब्दुल अजीज़ ने अंग्रेज़ों के खिलाफ जेहाद का फतवा दे दिया (हमारे देश का इतिहास 1857 की मंगल पांडे की क्रांति को आज़ादी की पहली क्रांति मान जाता हैं) जबकि सचाई यह है कि शाह अब्दुल अजीज़ ने 85 साल पहले हिन्दुस्तानियों के दिलों मे आज़ादी की क्रांति की लौ जला चुके थे। इस जेहाद के ज़रिए उन्होंने कहा कि अंग्रेज़ों को देश से निकालो और आज़ादी हासिल करो।

यह फतवे का नतीजा था कि मुसलमानों के अंदर एक शऊर पैदा होना शुरू हो गया कि अंग्रेज़ लोग सिर्फ अपनी तिजारत ही नहीं चमकाना चाहते बल्कि अपनी तहज़ीब को भी यहां पर ठूसना चाहते हैं।

हैदर अली और टीपू सुल्तान की वीरता                                                         

हैदर अली और बाद में उनके बेटे टीपू सुल्तान ने ‘ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी’ के प्रारम्भिक खतरे को समझा और उसका विरोध किया। टीपू सुल्तान भारत के इतिहास में एक ऐसे योद्धा भी थे जिनकी दिमागी सूझबूझ और बहादुरी ने कई बार अंग्रेज़ों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। अपनी वीरता के कारण ही वह ‘शेर-ए-मैसूर’ कहलाए।

अंग्रेज़ों से लोहा मनवाने वाले बादशाह टीपू सुल्तान ने ही देश में अंग्रेज़ों के ज़ुल्म और सितम के खिलाफ बिगुल बजाय था और जान की बाज़ी लगा दी मगर अंग्रेजों से समझौता नहीं किया। टीपू अपनी आखिरी सांस तक अंग्रेज़ों से लड़ते-लड़ते शहीद हो गए। टीपू की बहादुरी को देखते हुए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें विश्व का सबसे पहला रॉकेट आविष्कारक बताया था।

बहादुर शाह ज़फर

बहादुर शाह ज़फर (1775-1862) भारत में मुगल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह और उर्दू भाषा के माने हुए शायर थे। उन्होंने 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया। इस जंग में हार के बाद अंग्रेज़ों ने उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) भेज दिया जहां उनकी मृत्यु हुई।

1857 का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है, वह ब्रितानी शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ था परन्तु जनवरी मास तक इसने एक बड़ा रूप ले लिया। विद्रोह का अंत भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ और पूरे भारत पर ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष शासन आरंभ हो गया जो अगले 10 वर्षों तक चला।

गदर आंदोलन

गदर शब्द का अर्थ है विद्रोह, इसका मुख्य उद्देश्य भारत में क्रांति लाना था जिसके लिए अंग्रेज़ी नियंत्रण से भारत को स्वतंत्र करना आवश्यक था। गदर पार्टी का हेडक्वार्टर ‘सैन फ्रांसिस्को’ में स्थापित किया गया, भोपाल के ‘बरकतुल्लाह’ गदर पार्टी के संस्थापकों में से एक थे जिन्होंने ब्रिटिश विरोधी संगठनों से नेटवर्क बनाया था।

गदर पार्टी के ‘सैयद शाह रहमत’ ने फ्रांस में एक भूमिगत क्रांतिकारी रूप में काम किया और 1915 में असफल गदर (विद्रोह) में उनकी भूमिका के लिए उन्हें फांसी की सज़ा दी गई। फैज़ाबाद (उत्तर प्रदेश) के अली अहमद सिद्दीकी ने जौनपुर के सैयद मुज़तबा हुसैन के साथ मलाया और बर्मा में भारतीय विद्रोह की योजना बनाई और 1917 में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया।

खुदाई खिदमतगार मूवमेंट 

‘लाल कुर्ती आंदोलन’ भारत में पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत में खान अब्दुल गफ्फार खान द्वारा भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के समर्थन में खुदाई खिदमतगार के नाम से चलाया गया जो कि एक ऐतिहासिक आंदोलन था। विद्रोह के आरोप में उनकी पहली गिरफ्तारी 3 वर्ष के लिए हुई थी।

उसके बाद उन्हें यातनाएं झेलने की आदत सी पड़ गई। जेल से बाहर आकर उन्होंने पठानों को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ने के लिए ‘खुदाई खिदमतगार’ नामक संस्था की स्थापना की और अपने आंदोलनों को और भी तेज़ कर दिया।

अलीगढ़ आंदोलन

सर सैय्यद अहमद खां ने ‘अलीगढ़ मुस्लिम आंदोलन’ का नेतृत्व किया। वे अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारम्भिक काल में राजभक्त होने के साथ-साथ कट्टर राष्ट्रवादी थे। उन्होंने हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के विचारों का समर्थन किया।

1884 ई. में पंजाब भ्रमण के अवसर पर हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल देते हुए सर सैय्यद अहमद खां ने कहा था कि हमें (हिन्दू और मुसलमानों को) ‘एक मन एक प्राण’ हो जाना चाहिए और मिल-जुलकर कार्य करना चाहिए।

यदि हम संयुक्त हैं, तब एक-दूसरे के लिए बहुत अधिक सहायक हो सकते हैं। यदि नहीं तो एक का दूसरे के विरूद्ध प्रभाव दोनों का ही पूर्णतः पतन और विनाश कर देगा। इसी प्रकार के विचार उन्होंने केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में भाषण देते समय व्यक्त किए। एक अन्य अवसर पर उन्होंने कहा था कि हिन्दू एवं मुसलमान शब्द केवल धार्मिक विभेद को व्यक्त करते हैं, परन्तु दोनों एक ही राष्ट्र हिन्दुस्तान के निवासी हैं।

सर सैय्यद अहमद खां। फोटो साभार: सोशल मीडिया

सर सैय्यद अहमद खां द्वारा संचालित ‘अलीगढ़ आंदोलन’ में उनके अतिरिक्त अन्य प्रमुख नेता भी थे। जैसे- नज़ीर अहमद, चिराग अली, अल्ताफ हुसैन और मौलाना शिबली नोमानी।

यह तो अभी चुनिंदा लोगों के नाम हमने आपको बातए हैं। ऐसे सैकड़ों मुसलमान थे जिन्होंने भारत की आज़ादी की लड़ाई में अपने जीवन को कुर्बान कर देश को आज़ाद कराया। इतना ही नहीं मुस्लिम महिलाओं में बेगम हज़रत महल, अस्घरी बेगम और बाई अम्मा ने ब्रिटिश के खिलाफ स्वतंत्रता के संघर्ष में योगदान दिया है।

अफ़सोस यह है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में इतने मुसलमानों के शहीद होने के बाद भी हमको मुसलमानों के योगदान के बारे में नहीं बताया जाता।

अंग्रेज़ों के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले मुसलमान

नवाब सिराजुद्दौला, अशफाक उल्लाह खान, खान अब्दुल गफ्फार खान, शेरे-मैसूर टीपू सुल्तान, शहज़ादा फिरोज़ शाह, बेगम हज़रत महल, मौलाना अहमदुल्लाह शाह और मौलाना ज़फर अली खान जैसे कई मुसलमानों ने स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी अहम भूमिका निभाई।

अफसोस यह है कि जिन मुसलमानों के बदौलत हमें आज़ादी नसीब हुई, बीजेपी और आरएसएस जैसे संगठनों को आज उन मुसलमानों की कुर्बानी बिल्कुल भी याद नहीं है। यह संगठन उस ज़माने में अंग्रेज़ों के दोस्त थे और भारत के दुश्मन। आज के वक्त में इन मुठ्ठी भर लोगों ने बहुसंख्यक हिन्दू वर्ग में यह भ्रम फैला रखा है कि मुसलमानों ने इस देश की आज़ादी के लिए कुछ नहीं किया। ऐसे में उन्हें यह जान लेना चाहिए कि हिन्दुस्तान के लिए मुसलमान कुर्बानियां देतें आएं हैं और आगे भी देते रहेंगे।

नोट: तसवीर प्रतीकात्मक है। फोटो साभार: Flickr

इसलिए एक अपील अपने उन तमाम मुस्लिम भाइयों-बहनों से जहां-जहां तक मेरा यह लेख पहुंचे अपने बच्चों को इसलामी तारीख पढ़ाओ, उलामा-ए-दीन के कारनामे सुनाओ। जो चीज़ इस मुल्क के इतिहास से गायब कर दी गई है उसे तुम खुद अपने बच्चे-बच्चियों को बताओ।

मैं एक लेखक हूं और आप इतना जान लीजिए कि कुछ लिखता रहता हूं। इस संकल्प एवं आकांक्षा के साथ कि मेरे विचार समाजोपयोगी – मानवोपयोगी बन सकें।

इस क्रम में ‘Youth Ki Awaaz’ आपके समक्ष है जिसका उद्देश्य किसी पर भी आघात एवं आलोचनात्मक प्रहार करना तथा किसी को भी नीचा दिखाना नहीं है। साथ ही साहित्य प्रवाह को अवरुद्ध करना भी नहीं है। मैं अपने बारे में यह बताता चलूं कि मैं लगभग 5 वर्षों से पत्रकारिता और साहित्य की सेवा में संलग्न हूं और मुझे भारतीय होने पर गर्व है।

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