2019 के चुनावी घोषणा होने से पहले ही तमाम राजनीतिक दल लोकसभा चुनावों के लिए गठजोड़ की राजनीति के साथ-साथ चुनावी एजेंडा बनाने की राजनीति में मशरूफ हो रहे हैं, इसलिए बार-बार राम-हनुमान और किसानों की कर्ज़माफी का मुद्दा चुनावी राजनीति के केंद्र में लाया जा रहा है।
जिस तरह से धर्म सभाओं में रोटी से ज़्यादा ज़रूरी मंदिर को बताने की कोशिश की जा रही है, साफ ज़ाहिर है कि हनुमान के जाति विमर्श और राम मंदिर के मुद्दे को जीवित करके मज़हब की राजनीति को मूल समस्याओं पर हावी करने की पुरज़ोर कोशिश हो रही है। वहीं दूसरी तरफ विपक्ष का खेमा भी मंदिरों में जाते हुए भी किसानों की कर्ज़माफी को मुख्य मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहा है।
आने वाले लोकसभा चुनाव में इस बार खास बात यह है कि एजेंडा धर्म बनाम किसान होने जा रहा है जबकि इसके पहले गरीबी हटाओ, भष्टाचार, आरक्षण, दलित-अल्पसंख्यक तुष्टिकरण, पाकिस्तान चुनावी एजेंडा हुआ करते थे।
मौजूदा केंद्र सरकार के गठन के बाद समय-समय पर किसानों ने अपनी समस्याओं के लिए दिल्ली आकर सरकार का दरवाज़ा खटखटाने की कोशिश हमेशा की है। जिसकी शुरुआत 2016 में तमिलनाडु के किसानों ने जंतर-मंतर पर आकर सबसे पहले की। उसके बाद मध्यप्रदेश के किसान संगठन भी आए।
किसानों की शक्लों से अपरिचित मुबंई महानगर के लोगों ने एक नहीं दो बार किसानों का जुलूस ही नहीं देखा, बांहे फैलाकर स्वागत भी किया। इस साल अक्टूबर में यूपी के किसान संगठन भी दिल्ली पहुंचे, नवंबर में तमाम वामपंथी संगठन छोटे किसानों और खेतिहर मज़दूरों के साथ दिल्ली आए, जिससे इतना तो ज़रूर हुआ कि किसानों का मुद्दा सत्ता के केंद्र में आ गया।
रही सही कसर हिन्दी हार्टलैंड में नई सरकारों के बनते ही कर्ज़माफी की राजनीति ने लोकसभा चुनाव से पहले किसानों का मुद्दा हर राजनीतिक दलों के लिए खास बना दिया। मौजूदा केंद्र सरकार इस समस्या को समझती है पर अब लोकसभा चुनावों के लिए वक्त इतना कम बचा है कि अगर मौजूदा सरकार योजनाओं की झड़ी भी लगा दें तो उसे असली जामा नहीं पहनाया जा सकता है।
मौजूदा सरकार की समस्या यह रही कि किसानों के मुद्दों पर उसने कॉंग्रेस की गलतियों से कोई सीख नहीं ली। वह नेहरू, इंदिरा, राजीव, सोनिया, मनमोहन और राहुल गांधी पर ही निशाना बनाती रही। यूपी में इतनी बड़ी सफलता मिलने के बाद किसानों का कर्ज़माफ किया भी तो वह कागज़ों पर ही बना रहा। कहीं किसानों को दस रुपया, सौ रुपया तो कहीं पांच सौ रुपया माफ हुआ। आज विभिन्न विभागों में किसानों की नौ लाख के आस-पास अर्ज़ियां धक्के खा रही हैं।
मौजूदा सरकार को पता है कि किसानों की समस्याओं पर वह बैकफुट पर है इसलिए राम मंदिर का मुद्दा धर्म सभाओं में उछाला जा रहा है। अध्यादेश लाने की बात कही जा रही है, यही नहीं लोगों के मुंह बुलवाया जा रहा है कि “रोटी-रोज़ी आती रहेगी, पहले मंदिर चाहिए”, धर्म का मुद्दा को भुनाकर खेती-बारी को पीछे ढकेलने की साजिश हो रही है।
यह मात्र संयोग नहीं है हिन्दी हार्टलैंड में कर्ज़माफी की घोषणाओं के बाद धर्म संसद आयोजित हो रही है और सत्ता पक्ष के नेता विधायक-सांसद हनुमान की जाति पर बहस कर रहे हैं और हर रोज़ हनुमान की नई जाति सामने आ रही है।
इससे यह साफ स्पष्ट हो जाता है कि चार महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में जनता के सामने दो ही विकल्प होने वाले हैं उसे धर्म प्यारा है या रोज़ी-रोटी वाला किसान। मतदाताओं को ठहर कर सोचना होगा कि धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय है और किसान एक बड़े सरोकार से जुड़ता है। 2019 में मतदाताओं को यह तय करना ही होगा कि वह किस ओर खड़ा है, मज़हब बनाम किसान के चुनावी एजेंडे में मतदाता जो तय करेगा वह देश की तस्वीर बदल देगी।