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कविता: “मेरे कलम! मेरे हाथ जकड़े और होठ सिले हुए हैं”

आज कलम ने मुझसे पंगा कर दिया,

मैं मजबूर, मायूस सिसकता रहा,

और उसने मुझे नंगा कर दिया।

 

मैं लाचार और बेबस,

कुछ बोल ना पाया,

क्योंकि हाथ मेरे जकड़े हुए हैं,

और होठ मेरे सिले हुए हैं।

 

लेकिन वो दहाड़ता रहा,

बोलो तो सही क्या लिखू,

पहाड़ की ऊंचाई लिखू

या समंदर की गहराई लिखू,

धरती लिखू या आकाश लिखू,

टिमटिमाता सितारा लिखू

या ब्रह्माण्ड का किनारा लिखू,

दिन लिखू या रात लिखू

या दुल्हन की लौटती बारात लिखू,

बुर्का लिखू या घूंघट लिखू

या नदी किनारे पनघट लिखू?

 

मगर मजबूर हूं मैं,

हाथ कांपते हैं मेरे,

और कलम है कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे हैं,

रोज़ लड़ते हैं मुझसे,

कोसते हैं मुझे,

कि तुमने अपने स्वार्थ में मुझे निकम्मा बना दिया,

गाला घोंट दिया मेरी जज्बातों का।

 

एक बार बोलो तो सही क्या लिखू,

मजनू का प्यार लिखू,

या यशोदा का दुलार लिखू,

शर्म लिखू या बेहयाई लिखू,

धूप लिखू या परछाई लिखू,

गरीबों की काया लिखू,

या अमीरों की माया लिखू,

मजलूमों पर अत्याचार लिखू,

या मासूमों का बलात्कार लिखू?

 

चुप क्यों हो? कुछ तो बोलो,

सुख लिखू या दर्द लिखू,

दुष्ट लिखू या हमदर्द लिखू,

आग लिखू या पानी लिखू,

या शहीदों की कुर्बानी लिखू?

 

वो चीखता रहा चिल्लाता रहा,

लेकिन मैं फिर भी खामोश रहा,

क्योंकि हाथ मेरे जकड़े हुए हैं,

और होठ मेरे सिले हुए हैं।

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