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क्या शाह फैसल का इस्तीफा सरकारी दबाव का नतीजा है?

शाह फैसल

शाह फैसल

बुधवार 9 जनवरी को शाह फैसल यानि 2009 बैच के यूपीएससी टॉपर और वर्तमान में कश्मीर में कार्यरत युवा आईएएस अधिकारी ने अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। इस मसले पर लोगों ने अपनी अलग-अलग प्रतिक्रियाएं पेश की।

मुझे याद है जब 2009 में शाह फैसल ने यूपीएससी टॉप किया था तब भी लोगों की प्रतिक्रियाएं आई थीं। उस वक्त प्रतिक्रियाओं के रूप में में कश्मीरियत पर लोगों का विश्वास जागा था और आज उनके इस्तीफा देने से लोग थोड़े दु:खी और निराश हुए हैं।

हमारे बिहार में आईएएस बनना बेहद गर्व की बात होती है। यहां के युवाओं में आईएएस बनने का गज़ब का क्रेज़ है। आईएएस मतलब आम भाषा में पावर की सबसे बड़ी निशानी। हर साल लाखों लोग देश के इस सबसे कठिन परीक्षा में शामिल होते हैं, जिनमें कुछ ही लोग इस परीक्षा को पास करते हुए आईएएस बनने का सपना साकार कर पाते हैं।

बहरहाल, 2009 के टॉपर शाह फैसल ने उस पद से इस्तीफा दे दिया है। 2009 में जब फैसल ने यूपीएससी टॉप किया था तब यह अपने आप में एक गर्व की बात थी। शाह फैसल के पिता को 2002 में आतंकवादियों ने मार डाला था। 2009 में उनका यूपीएससी टॉप करना कश्मीर घाटी में फैले आतंकवाद के प्रतिरोध के रूप में देखा जा रहा था।

अपने पद से इस्तीफा देते हुए उन्होंने कश्मीर घाटी में जारी पुलिस की अमानवीय कार्रवाई और हिंसा को इसका कारण बताया। वह पहले भी कई बार इस तरह की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई को रोकने के लिए आवाज़ उठा चुके थे। आखिरकार जब उनकी बातों को लगातार नज़रअंदाज़ किया जाता रहा तब उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

शाह फैसल। फोटो साभार: फेसबुक अकाउंट, शाह फैसल

कश्मीर घाटी के युवाओं के बीच फैसल को बुरहान वानी जैसे आतंकियों के प्रतीकात्मक विरोधाभास के रूप में देखा जाता है। ऐसे समय में अब कश्मीर घाटी के युवाओं के बीच कोई सकारात्मक उदाहरण देने के लिए भी नहीं बचा है क्योंकि अब तो युवाओं को यही लगेगा कि आईएएस बनकर भी कश्मीर का कोई भला नहीं होने वाला।

2019 में कश्मीर एक ऐसा राज्य बनकर उभरा है जहां के आईएस अफसर भी मजबूर और बेबस हैं। हर आदमी की इच्छा होती है कि जब वह कुछ बन जाए तब अपने क्षेत्र के लिए कुछ करे लेकिन आईएएस बनकर भी अगर कोई सिस्टम के हाथों मजबूर है, फिर क्या फायदा।भारतीय नौकरशाह व्यवस्था के लिए शाह फैसल का इस्तीफा एक सबक है जो इस लोकतंत्र के नेताओं के हाथ की एक कठपुतली बन कर रह गई है।

इतना ही नहीं, शाह फैसल का इस्तीफा केंद्र सरकार के मुंह पर एक कड़ा तमाचा है जो यह दावा करती है कि उन्होंने कश्मीर घाटी में अच्छा काम किया है। इसके पहले भी कई मानवाधिकार संगठनों ने कश्मीर समस्या पर केंद्र सरकार के रुख पर सवाल उठाया था। शाह फैसल का इस्तीफा दर्शाता है कि कश्मीरी आवाम किस तरह के माहौल में अपनी ज़िन्दगी गुजार रहे हैं। एक तरफ आतंकियों की तो दूसरी तरफ पुलिस की बंदूकें, अब सवाल यह है कि क्या इन बंदूकों के सहारे सरकार कश्मीर में शांति व्यवस्था बहाल कर पाएगी?


 

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