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“क्या धर्म और जाति आधारित राजनीति ने भीड़ को उन्माद बना दिया है?”

मॉब लिंचिंग

मॉब लिंचिंग

एक समान्य सी बात जनसामान्य में धीरे-धीरे पैठ बनाती जा रही है कि सोशल मीडिया या व्हाट्सएप्प पर गलत सूचनाएं लोगों के बीच फैलाई जा रही है, जो भारतीय समाज की सामासिक संस्कृति के संवेदनाओं को तार-तार कर रही है। इस बात को इंकार नहीं किया जा सकता है कि ऐसा नहीं हुआ है। हाल के दिनों में यह प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है जिसे लेकर सोशल मीडिया के आलाकमान भी सक्रिय हुए हैं और लोगों को जागरूक करने की कोशिश कर रहे है कि कोई भी सूचना फाॉरवर्ड करने से पहले उसकी सत्यता को ज़रूर परख लें।

मुख्यधारा की उन मीडिया संस्थानों का क्या, जो सामाजिक समरता को विभाजित करने वाली खबरों को प्रमुखता से ब्रेकिग न्यूज़ का हिस्सा बनाकर सनसनी तो फैलाते हैं मगर जब वही समाज जब सामासिक समरता को मज़बूत करने की पहल करता है, तब लोगों की घिग्घी बंध जाती है। क्या मुख्यधारा की मीडिया की यह ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह समाज में साप्रदायिक सौहार्द को बनाए रखें?

नोट: तस्वीर प्रतीकात्मक है। फोटो साभार: Flickr

हाल के दिनों में पार्क में इबादत करने की पाबंदी पर मुख्यधारा की मीडिया ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया पर भी बहस का सिलसिला ज़ोर पकड़ता दिखा। मुस्लिम समाज के लोग पार्क में इबादत नहीं कर सके इसे लेकर पार्क में पानी भी छोड़ दिया गया और सुरक्षा के लिए तैनाती भी कर दी गई।

पार्क के आस-पास के लोगों ने मुस्लिम समाज के इबादत के लिए अपने घरों के छतों को खोल दिया और लोगों ने छतों पर जाकर अपनी इबादत पूरी की। यही सामासिक संस्कृति भारतीय समाज की पहचान है, जो यह दिखाता है कि तमाम विसंगतियों की परिस्थितियों में उनको सामाजिक ताने-बाने या भाईचारे को मज़बूत करना आता है। इस घटना का प्रसारण मुझे मुख्यधारा के किसी टीवी चैनलों या मुख्यधारा के अखबारों में नहीं दिखा। सोशल मीडिया और कुछ व्हाट्सएप्प ग्रुप पर इसकी सूचना ज़रूर मिली।

वास्तव में हमें और समाज को यह समझना अधिक ज़रूरी है कि समाज में असहिष्णुता का प्याला छलकाने की पुरज़ोर कोशिश हो रही है जिसकी छीटें बीते हुए सालों में देखने को मिलती रही है। आने वाले नव वर्ष में चुनावी राजनीति में स्थिति समान्य रहे इसकी उम्मीद कम ही है।

मौजूदा वक्त में किसी भी विषय पर सामासिक सस्कृति को ध्वस्त करने वाली कोई भी प्रतिक्रिया राजनीतिक-सामाजिक टकरावों के गर्भ-नाल से निकल रही है जिसपर वोटों के हिसाब से राजनीतिक फैसला लिया जा रहा है। लव-जिहाद से तीन तलाक जैसे तमाम विषय राजनीतिक वोट बैक से जुड़े हुए हैं जिनसे समाज को अलग करके देखने की प्रवृत्ति खत्म हो रही है।

समाजवादी चितंक राममनोहर लोहिया का मानना था कि राजनीति अल्पकालिक धर्म है, जबकि धर्म दीर्घकालीन राजनीति। मौजूदा राजनीति के रफ्तार में धर्म अब राजनीति का उपकरण बन चुका है जिसकी बेदी पर दूसरी धार्मिक मान्यताएं तुच्छ हैं और सामासिक संस्कृति की खूबसूरती उदाहरण पेश करने की मिसाल। सामासिक संस्कृति के जीने के जज़्बे की प्रासंगिकता पर राजनीतिक संस्कृति का वर्चस्व हावी होता जा रहा है। इसलिए इसे बचाए रखने की तमाम कोशिशों को हाशिए पर ढकेला जा रहा है।

बुलंदशहर हिंसा में भीड़ के हाथों मारे गए इंस्पेक्टर सुबोध कुमार। फोटो साभार: सोशल मीडिया

जबकि इसे बचाए रखने कि ज़िम्मेदारी सामाजिक संस्थाओं पर सबसे अधिक है। खासकर तब जब सोशल मीडिया पर रोज़ अफवाह की संस्कृति मज़बूत होती जा रही है। पहले इसका खामियाज़ा आम जनता को भुगतना पड़ रहा था और अब सुरक्षा व्यवस्था की ज़िम्मेदारी उठाने वाले पुलिस भी निशाने पर हैं।

ज़ाहिर है धर्म और जाति की वर्चस्वशाली दीर्घकालीन राजनीति ने भीड़ को इतना उन्मादी बना दिया है कि वह किसी की भी जान ले सकता है। चाहे वह दस साल की स्कूल से आती बच्ची हो, अपनी नौकरी से वापस लौटता पुलिसकर्मी हो या गाय ले जा रहा व्यक्ति हो या घर में मांस पका रहा व्यक्ति हो। चूंकि आने वाला साल चुनावी राजनीति का होने वाला है इसलिए समाज के साथ-साथ हमें भी आ रही तमाम सूचनाओं को चाहे वह किसी भी माध्यम से आ रही हो उनके प्रति सर्तक होना ही पड़ेगा, तभी हम अपने देश की महान समासिक संस्कृति को बचा सकेंगे।

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