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वंचितों और महिलाओं की नायिका सावित्रीबाई, जिन्होंने शिक्षा को बनाया हथियार

आज हम जिस प्रकार का समाज देख रहे हैं, इसमें अनेक महान स्त्रियों और पुरुषों का योगदान है। ऐसी ही प्रथम महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी  सन् 1831 को हुआ। उन्होंने  अपने जीवन को वंचित तबकों के उत्थान में, विशेष तौर पर महिलाओं और दलितों को सशक्त बनाने में लगा दिया।

सावित्रीबाई फुले मानती थीं कि महिलाओं और शोषितों को शोषण मुक्ति और विकास के लिए आत्मनिर्भर होना आवश्यक है, जिसमें शिक्षा अहम भूमिका अदा करती है। फुले दंपत्ति इसी सोच को लेकर जीवनभर बिना किसी वर्ग, जाति और नस्ल का भेदभाव किए महिलाओं, शोषितों, पीड़ितों, दलितों, विधवाओं और बच्चों के उत्थान को लेकर कार्य करते रहें।

सावित्रीबाई फुले

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं और शूद्रों को अधिकारों से वंचित रखा गया है। धार्मिक ग्रंथों में साजिश के तहत अनेक जगहों पर वर्णित कर उनके अधिकारों पर प्रतिबंध लगाए गए हैं। तुलसी कृत रामचरित मानस में, “ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब है तारन के अधिकारी”, जिसमें शूद्रों और महिलाओं को प्रताड़ित करने की बात प्रसिद्ध है।

सावित्रीबाई फुले के समय में, इन्हीं धार्मिक एवं रूढ़िवादी परंपराओं की मान्यताओं के चलते, महिलाओं और दलितों की स्थिति अमानवीय थी, जो कमोबेश आज भी मौजूद है। समकालीन समाज में स्त्रियों की शिक्षा पर प्रतिबंध, विधवा मुंडन, सती प्रथा, बाल विवाह, देवदासी प्रथा, विधवा महिलाओं का शारीरिक और मानसिक शोषण एवं शूद्रों की शिक्षा पर प्रतिबंध, शूद्रों को सार्वजानिक जगहों का उपयोग ना करने देना तथा उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित करना आदि रूढ़िवादी परंपराए विद्यमान थीं।

रूढ़िवादी सामाजिक परंपराओं को तोड़ने एवं स्त्रियों और अतिशूद्रों, शूद्रों के जीवनस्तर में सुधार का बीड़ा सावित्रीबाई फुले ने उठाया। उन्होंने अपने पति के सहयोग से सन 1852 में महिला मंडल का निर्माण किया। महिलाओं और शूद्रों को शिक्षा देने के लिए 1 जनवरी सन 1848 में पुणे के बुधवार पेठ में प्रथम बालिका विद्यालय खोला, जिसमें बतौर शिक्षिका के रूप में  शिक्षण कार्य प्रारंभ किया।

यह सब उन्होंने उस दौर में किया जब स्त्रियों और शूद्रों को शिक्षा देने पर प्रतिबंध था। इनके कार्यों का समाज ने पुरजोर विरोध किया लेकिन वो सामाजिक कार्य में जुटी रहीं। उन्हें धर्म को डूबोने वाली, अश्लील गालियां दी गईं। उनके ऊपर गोबर, मिट्टी और पत्थर फेंके गए लेकिन उन्होंने सामाजिक कार्य बंद नहीं किया। वो अपने साथ विद्यालय जाते समय एक साड़ी साथ में लेकर चलती थीं ताकि गोबर लगी हुई साड़ी को विद्यालय जाकर बदला जा सके। उन्होंने सामाजिक कार्य को बड़े स्तर पर करने के लिए सन 1849 में पूना, सतारा, अहमद नगर कुल मिलकर 18 विद्यालयों की स्थापना की। वो स्वरचित कविता में शूद्रों और स्त्रियों को संबोधित करते हुए लिखती हैं –

जागो जागो शूद्र भाई बहनों

नींद से जागो

थोपी हुई गुलामी को उतार फेंकने

डटकर खड़े हो जाओ,

डटकर खड़े हो जाओ

षड्यंत्रकारी प्रतिबंधों की बेड़ियों

को तोड़ डालें, ज्ञान प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करें

शिक्षा हेतु ले दृढ़ संकल्प

जागरूक हो उठें खड़े हो जाए

हार बाधा के सामने, सीना तान के।

रूढ़िवादी परंपराओं एवं धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध, सामाजिक सुधार के विचार रखना एवं अंजाम देना आसान नहीं होता। सदैव कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है एवं जोखिम भी बना रहता है। हालांकि सफलता मिलने पर सराहा भी जाता है। फुले दंपत्ति को भी सामाजिक कार्यों के चलते अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। समाज के दबाव में आकर ससुर ने अपने घर से निकाल दिया। सामाजिक कार्यों के चलते उनके विरोधियों ने जान से मारने के प्रयत्न किए गए लेकिन वो अपने कार्यों को लेकर अडिग रहीं।

सावित्रीबाई फुले

महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबंध के अलावा तात्कालिक समाज में विधवा महिलाओं को तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता था। विधवाओं को मुंडन के लिए बाध्य किया जाता था। उन्हें हर्ष-उल्लास एवं सांस्कृतिक कार्यों में भाग लेने से मनाही थी। घर के सदस्यों द्वारा उनका शारीरिक शोषण किया जाता था। गर्भवती होने पर भ्रूण हत्या या उसे लोक-लाज की वजह से आत्महत्या तक करनी पड़ती थी या हत्या कर दी जाती थी। उन्हें पुनर्विवाह नहीं करने दिया जाता था, इस तरह की समस्या वर्तमान समाज में कुछ जगहों पर आज भी मौजूद हैं। विधवाओं की मुंडन प्रथा रोकने के लिए उन्होंने नाइयों से सहयोग की अपील की, इस प्रकार से नाइयों ने विधवाओं का मुंडन करना बंद कर दिया।

समाज में महिलाओं की समस्याओं से दुखित होकर सावित्रीबाई फुले ने स्त्रियों और नवजात बच्चों की सुरक्षा की दृष्ठि से 28 जनवरी सन 1853 को शेल्टर होम प्रसूति-गृह खोला उसका नाम बाल-हत्या प्रतिबंध गृह रखा एवं आगे चलकर उन्होंने अनाथ आश्रम की स्थापना की। प्रसूति गृह में उन्होंने 66 महिलाओं की प्रसूति करवाई थी।

विधवा महिला, गर्भवती होने पर आत्महत्या करने जा रही ब्राह्मण महिला ‘काशीबाई’ की प्रसूति अपने प्रसूति गृह में करवाई तथा उसके पुत्र को गोद लिया। जिसका नाम यशवंतराव रखा, उसे पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाया। उसका विवाह भी अंतरजातीय करवाया, जिसे सामाजिक बदलाव की सोच के तहत देखा जा सकता है।

सावित्रीबाई फुले ना केवल समाज सेविका और शिक्षिका थीं, बल्कि वह बहुत अच्छी कवयित्री भी थीं। उन्होंने दो कविता संग्रह लिखे हैं, काव्य फुले एवं बावनकशी सुबोध रत्नाकर, जिसमें सहज भाषा में सामाजिक परिवर्तनकारी और वंचित तबकों को एवं महिलाओं को जागृत करने के लिए बात रखी हैं। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से रूढ़िवादी सामाजिक परंपराओं पर विरोध प्रकट करते हुए लिखा है।

“शूद्रों एवं अतिशूद्रों की

दरिद्रता के लिए ज़िम्मेदार है

अज्ञानता, रीती-रिवाज़, रूढ़ीवाद

परंपराओं की बेड़ियों में बंधे-बढ़े पिछड़ गए सबसे, परिणाम

गरीबी के तेज़ाब से झुलस गए”

सामाजिक कार्यों को अनवरत सुचारू संचालन के लिए फुले दंपत्ति ने सन 1873 में ‘सत्यशोधक समाज’ संस्था की स्थापना की जिसके माध्यम से अंतरजातीय विवाह, विधवा सुरक्षा, बाल सुरक्षा अन्धविश्वास एवं मिथिकों को तोड़ने और जनजागृति लाने के कार्य प्रारंभ किए, इसे उन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले की मृत्यु के बाद भी संचालित रखा।

समाज में आज भी कई कार्यों में महिलाओं को सहभागिता करने पर प्रतबंधित है, अगर कहीं कोई महिला जोखिम लेकर कार्य करती है, तब उसे मीडिया द्वारा प्रमुखता से दिखाया जाता है। जो होना भी चाहिए। आज से 128 वर्ष पहले जब सावित्रीबाई फुले के पति ज्योतिबा फुले की मृत्यु सन 1890 में हो गई। तब उनकी चिता को मुखाग्नि स्वयं सावित्रीबाई फुले ने दी थी। जो उनकी आधुनिक सोच को प्रदर्शित कराता है।

सावित्रीबाई फुले के जीवन के अंतिम दिनों में प्लेग की बीमारी फैल गई थी। उन्होंने मरीजों को बचाने का भरपूर प्रयास किया जबकि वो जानती थीं प्लेग एक संक्रामक बीमारी है। अंत में मरीजों को बचाने के प्रयास में खुद भी बीमारी से ग्रसित हो गईं और उनकी मृत्यु हो गई। उनके द्वारा अनेक सामाजिक कार्य किए गए लेकिन आज भी कई लोग उनके बारे में नहीं जानते, इसका कारण पढ़ाई जा रहीं पाठ्य पुस्तकों में उन्हें शामिल नहीं करना है।

हम समाज सुधारकों के रूप में कई पुरुष समाज सुधारकों के बारे में अपनी पाठ्य पुस्तकों में पढ़ते हैं लेकिन उच्च सामाजिक सुधार कार्य करने के बाद भी सावित्रीबाई फुले का नाम नहीं पाते। इसके दो कारण स्पष्ट तौर से दिखाई पड़ते हैं, स्त्री तथा पिछड़ी जाति से होना। वंचितों और महिलओं की नायिका को बदलते परिवेश में ज़्यादा समय तक दबाया नहीं जा सकता।

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