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“मोबाइल गुम होने की शिकायत पर पुलिस मुझसे जाति-गोत्र पूछने लगी”

पुलिसवाले की प्रतीकात्मक तस्वीर

पुलिस स्टेशन यानि अपना समय बर्बाद करने की सबसे परिचित जगह। थाने में आप चाहे कितनी भी जल्दी क्यों ना जाएं लेकिन आपका काम सबसे देर में किया जाएगा, वह भी अधूरा। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस दौरान आपके साथ बदसलूकी भी हो सकती है। इसलिए अब से जब भी थाने जाएं, इन बातों को ज़रूर ध्यान में रखें।

मैं शनिवार रात 5 जनवरी 2019 को रोहिणी स्थित ‘समयपुर बादली पुलिस स्टेशन’ में मोबाइल स्नैचिंग की रिपोर्ट लिखवाने गया था। थाने में गेट के सामने वाली डेस्क के चारों ओर करीब आठ-दस पुलिस अफसर थे। जिनमें से तीन लिखा-पढ़ी के काम में लगे थे और एक फरियादियों की एफआईआर लिख रहे थे। एक 100 नंबर की कॉल्स ले रहे थे और एक फाइलें संभाल रहे थे। बाकी अपनी मौज में ठस्स थे।

मैं जल्दी से उनके पास भागते हुए पहुंचा और उनसे कहा कि मेरा मोबाइल बात करते हुए दो बाईकर्स ने हाथ से छीन लिया है। मेरी एफआईआर लिखिए और मेरे मोबाइल को ट्रेसिंग पर लगाइए। सामने से जवाब आया, “तू बैठ जा, थोड़ी देर में तेरा मामला देखता हूं।” उनकी बात सुनकर मैं शांति से  बैठ गया।

पांच मिनट बाद फिर मैंने कहा, ‘सर प्लीज़ मेरी कंप्लेंट लिखिए और मोबाइल को ट्रेसिंग पर लगा दीजिये। साथ ही मैंने अपनी आईडी कार्ड दिखाते हुए कहा कि मैं आईआईएमसी में ट्रेनी पत्रकार हूं और मेरे मोबाइल में संस्थान से संबंधित बहुत ज़रूरी डाक्यूमेंट्स, अब तक का किया हुआ काम और बैंक डिटेल्स हैं। इसलिए प्लीज़ जल्दी कीजिये।’ सामने से फिर जवाब आया, “अभी बैठ जा! बाद में देखता हूं।”

फिर मैंने थोड़ा ज़ोर देकर कहा कि सर पिछले दो महीनों में मेरा यह दूसरा मोबाइल फोकट में गया है। पहला मोबाइल 3 अक्टूबर 2018 को हौज़ खास मैजंटा लाइन मेट्रो में मेट्रो बदलते वक्त गेट से अंदर घुसते ही जेब से किसी ने निकाल लिया और दूसरा आज बात करते हुए हाथ से छीन लिया गया और आप हैं कि मुझे टरकाने की कोशिश कर रहे हैं।

इतना सुनते ही साहब भड़क गए और बोले कि पहले तो यह कार्ड जेब में रख ले और चुप-चाप उधर जाकर बैठ जा, फिर हम देख लेंगे कि क्या करना है, समझा? फिर मैंने कहा कि सर मेरे दोनों मोबाइल बिल्कुल नए थे। पहला मोबाइल चोरी होने के बाद जैसे-तैसे करके घरवालों ने दूसरा मोबाइल दिया था और वह भी बदमाश छीन ले गए। यह कहते हुए मैं बेंच पर मायूस होकर बैठ गया।

आधे-पौने घंटे के इंतज़ार के बाद सामने से अफसर ने बुलाया, इधर आ! बता क्या हुआ? फिर वही पूरी बात दोहराई कि मैं सेक्टर 18 रोहिणी के DDA मार्केट से दूध लेकर आ रहा था। सड़क पार करके आस्था कुंज और अपनी सोसायटी ‘पैराडाईज़ अपार्टमेंट’ के कोने पर आकर फुटपाथ पर चलते हुए जेब से चेन खोलकर मोबाइल निकाला और बात करने लगा।

बात करते हुए कुछ ही सेकंड हुए थे और इतने में पीछे से दो बाइक सवार आए। पीछे की सीट वाले ने मेरे हाथ से मोबाइल सीधे ना खींच कर ऊपर की ओर खींचा और आगे वाले ने बाइक की स्पीड बढ़ा दी। मैं बाइक के पीछे भागा लेकिन ट्रैफिक के कारण टकराने के डर ठहर गया। इतने में वे किधर निकल गए कुछ पता ही नहीं चला।

इन सब बातों को पुलिस अफसर ने एक कॉपी पर दो-तीन लइनों में लिखते हुए दूसरे पुलिस अफसर की ओर इशारा किया और मुझे उनके पास भेज दिया। उसके पास भी मैंने पूरी कहानी दोहराई। उन्होंने दो-तीन लाइनें लिखीं फिर मुझे दूसरी डेस्क पर ले गए। वहां जाकर फिर उन्होंने नया पेज निकाला और मुझसे पूछताछ करने लगे। इस बीच उन्होंने मुझसे कहा कि मोबाइल खोने की कंप्लेंट करवाओ?ऐसा करने पर अगर मोबाइल मिला तो तुझे हाथों-हाथ मिल जाएगा लेकिन स्नैचिंग के केस में मुकदमा बनेगा और कोर्ट के चक्कर लगाकर ही  मोबाइल मिल पाएगा। फिर भी मैं स्नैचिंग की बात पर अड़ा रहा।

पूछताछ के सिलसिले में इस बार कुछ नया और अद्भुत हुआ। उन्होंने पूछा, “नाम क्या है?” मैंने कहा, ‘हिमांशु प्रियदर्शी नाम है मेरा।’ उन्होंने नाम की स्पेलिंग पूछी। मैंने कहा, ‘सर हिंदी में ही लिख लो, तो साहब ने हिंदी में भी नाम की स्पेलिंग गलत लिखी।’

मेरे द्वारा नाम बताने के बाद भी उन्होंने मुझसे फिर पूछा कि मेरा पूरा नाम क्या है। इस बार भी मैंने अपना पूरा नाम उन्हें बताया लेकिन वह प्रियदर्शी पर अटक गए। बोले, “प्रियदर्शी माने कौन सा गोत्र?” मैंने कहा, ‘सर यहां गोत्र कहां से आ गया?’ उन्होंने बोला, “जाति वाला गोत्र। अच्छा, जाति क्या है तुम्हारी?” मैंने कहा, ‘सर हम जाति-गोत्र जैसा कुछ नहीं मानते।’ फिर वह तिलमिला कर बोले, “ऐसे कैसे नहीं मानते?”

वह लगातार मेरी जाति के बारे में सवाल करने लग गए। उन्होंने कहा, “जाति क्या है तुम्हारी, गोत्र क्या है?” मैंने कहा, ‘मुझे नहीं पता सर।’ फिर उन्होंने पूछा, “यह प्रियदर्शी क्या है?” मैंने कहा, ‘सर यह टाइटल है।’ फिर उन्होंने कहा, “अच्छा!”

इससे पहले वह अगला प्रश्न पूछते, मेरे पास से उठकर दो पुलिसवालों से मिलते हुए आपस में खुसर-पुसर करके बात करने लगे और मुझे वहीं बैठे रहने के लिए बोलकर कहीं चले गए। वह पन्द्रह-बीस मिनट बाद नए अफसर के साथ लौटे, जिन्हें थाने में मैंने अभी तक नहीं देखा था। वह शक्ल और अपनी हरकतों से बहुत चालाक और चाटुकार मालूम पड़े।

यह पुलिस अफसर जिस भी पुलिस अफसर को देखता उसके हाथ पकड़ कर अपने माथे पर लगा लेता और हाथ जोड़ कर कहने लगता, “साहब आप ही तो मालिक हो।” भले वह उनसे कम उम्र के ही क्यों ना हो। बाद में बहुत अजीब सी मुस्कान देते। उन्होंने फिर से मुझसे नए सिरे से नए काग़ज पर पूछताछ की और मोबाइल की सारी डिटेल्स लेकर अपने मन मुताबिक रिपोर्ट बना दी। मतलब मोबाइल स्नैचिंग की नहीं बल्कि मोबाइल खो जाने की रिपोर्ट बना दी गई। जबकि मैं मना करता रहा लेकिन उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी।

पुलिस कंप्लेंट की कॉपी।

जब मैंने FIR की कॉपी मांगी तब मुझसे कहा गया कि मशीन खराब है और यह भी कहा गया कि FIR की कॉपी तो मेरे ईमेल पते पर भेज दी गई है। मोबाइल के बारे में पूछने पर बताया गया कि उसे IMEI नंबर के ज़रिए ट्रेसिंग पर लगा दिया गया है लेकिन जब घर जा कर मैंने अपना ईमेल अकाउंट खोला तब उसमें इससे संबंधित कोई भी ईमेल नहीं आया था।

अगले दिन मैं थाने में रिपोर्ट की कॉपी लेने गया। पहले तो कॉपी देने में आनाकानी की गई और मुझे फिर से बैठकर इंतज़ार करने को कहा गया। जब मैं बैठने के लिए बेंच की तरफ बढ़ा तब एक व्यक्ति ने कहा कि यहां होना तो कुछ है नहीं, बस यह लोग फालतू के चक्कर लगवा रहे हैं। तभी मैंने पूछा, ‘आप भी रिपोर्ट की कॉपी लेने आए हैं?’ फिर उन्होंने बताया कि उनका नाम रवि रंजन है और कैसे पुलिसवाले लगातार उन्हें भी दौड़ा रहे हैं।

अब पहला सवाल यह उठता है कि आम आदमी अपनी शिकायत लेकर थाने में क्यों जाता है? ताकि वह अपनी शिकायत दर्ज़ करा सके और उस पर कार्रवाई की जाए, ना कि प्रशासन उसे अपनी उंगलियों पर नचाए, जैसा कि मेरे और साथी रवि रंजन के साथ हुआ। मैं घटना घटने के 15 मिनट के अंदर थाने पहुंच गया ताकि जल्द से जल्द मोबाइल को ट्रेसिंग पर लगाया जाए और स्नैचर्स पकड़ में आ जाएं लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

दूसरा सवाल यह उठता है कि क्या पुलिस अफसरों को आम लोगों से घटना की सामान्य जानकारी लेनी चाहिए या उनसे उनका जाति-गोत्र पूछना चाहिए? ज़ाहिर सी बात है कि पुलिस को घटना की सामान्य जानकारी लेकर कार्रवाई शुरू कर देनी चाहिए। आज कल पुलिस अफसर जाति-गोत्र तो ऐसे पूछने लगते लगते हैं जैसे फरियादी उनके पास शादी की समस्या लेकर गया हो। क्या दिल्ली पुलिस ने जाति-गोत्र पूछ कर ही “शांति, सेवा और न्याय” दिलाने का वचन दिया था?

तीसरा सवाल यह उठता है कि फरियादी को रिपोर्ट की कॉपी हाथों हाथ क्यों नहीं दी जाती है? इसके जवाब में कहा गया कि मशीन खराब है, कंप्यूटर ऑपरेटर नहीं है, उसका फोन नहीं लग रहा है और ना जाने क्या-क्या। साफ सीधी बात है कि अगर कोई व्यक्ति शिकायत लेकर थाने जाता है तब उसे FIR की एक कॉपी या फिर हाथ से लिखी गई कॉपी में से कोई एक या फिर संभव हो तो दोनों मुहैया की जाती है।

रोहिणी में रोज स्नैचर्स लूटपाट की ऐसी वारदातों को अंजाम देते हैं। ऐसे में आखिर पुलिस प्रशासन कर क्या रही है? जब राष्ट्रीय राजधानी के थाने का यह हाल है तो देश के अन्य राज्यों के थानों का क्या हाल होगा?

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