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बस राजनीतिक मुद्दा बन जाना किसान की समस्याओं का हल नहीं है

कमोबेश तीन दशक के बाद किसानी की समस्या राष्ट्रीय मंच पर हाशिए से केंद्र में आकर बैठ गई है। मुख्यधारा के अखबारों की हेडलाइन और टीवी चैनलों की ब्रेकिग न्यूज़ किसानों की समस्या को इस तरह देख रही है मानो अंधों की बस्ती में हाथी आ गया हो। सारे खबरिया प्लैटफॉर्म किसानों की मूल समस्या को कर्ज़माफी से ही जोड़ रहे हैं, कोई कर्ज़मुक्ति पर बात नहीं कर रहे हैं।

सत्ता भी किसानों को कर्ज़माफी की हवा मिठाई बांट रही है, जो मौजूदा परिस्थिति में ज़रूरी भी है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। इस समय अधिक परेशान करने वाली बात यह भी है कि दशकों बाद राष्ट्रीय राजनीति में मुख्य विषय बनी किसानों की समस्या क्या मौजूदा सत्ता या व्यवस्था से कुछ अनुदान लेकर वापस हाशिए पर चली जाएगी?

क्योंकि किसान आंदोलन इस बार किसान विरोधी व्यवस्था में बड़े बदलाव की मांग कर रहे हैं। इस बदलाव में भूमिहीन किसान मज़दूर की मांग भी है तो महिला किसानों की मांग भी है, इसमें किसानी के साथ दूध उत्पादन, पशुपालन, मुर्गीपाल और मछली पालन करने वाले लोगों को किसानी में शामिल करने की मांग भी है।

मूल रूप से समझने वाली बात यह है कि केवल कर्ज़माफी से किसानी की समस्या का कोई समाधान नहीं हो सकता है। किसानों को फसलों पर उचित दाम भी मिलने चाहिए जिसके लिए हर साल बजट का मोटा हिस्सा कृषि बजट के लिए होना ज़रूरी है। नहीं तो पंजाब में आलू के अधिक उत्पादन से खेतों में आलू सड़ने छोड़ देने की खबरें भी आ रही हैं। क्या सरकारों के पास अधिक उत्पादन के बाद उत्पन्न हो रही समस्या का कोई समाधान है?

मुख्यधारा की मीडिया कर्ज़माफी के साथ-साथ यह खबरें भी जोश-खरोश से चला रही है कि देश किसानों की कर्ज़माफी का बोझ कैसे उठाएगा? यह सवाल तब क्यों नहीं पूछा जाता है जब देश के संगठित क्षेत्र के लोग वेतन बढ़ोतरी के विरोध में प्रदर्शन करते हैं? आखिर किसानों को अन्य कामगार से अलग करने की बायनरी की राजनीति से क्या हासिल करने की कोशिश की जा रही है? वह भी उस दौर में जब देश में तमाम धर्म सभाएं यह बताने की कोशिश कर रही हैं कि रोज़ी-रोटी से अधिक महत्त्वपूर्ण मंदिर का मुद्दा है।

इस बात को आसानी से महसूस किया जा सकता है कि तमाम राजनीतिक दल अपने वोट बैंक की राजनीति किसानों के कंधे पर बंदूक रखकर खेलने की कोशिश कर रहे हैं। सत्ता आसीन पार्टियों को भी इस बात का इल्म है कि जादू की छड़ी से किसानों की समस्या का हल नहीं खोजा जा सकता है इसलिए रामलला और हनुमान की राजनीति ही नहीं इबादत करने पर भी राजनीति तेज़ कर दी गई है।

किसान आंदोलन। फोटो सोर्स- Getty

ऐसा कतई नहीं है कि मौजूदा किसान आंदोलन केवल अपनी समस्या को लेकर सड़कों पर प्रतिरोध के लिए आकर खड़ा हो गया है। किसान अपने आंदोलन के साथ विकल्प पर भी बात कर रहा है पर उसके सुझाए विकल्प सत्ता के कान तक पहुंच ही नहीं रहे हैं, क्योंकि तमाम सत्ताधारी राजनीतिक दल 2019 के लोकसभा के चुनावों में किसानों के गुस्से से बौखलाई हुए हैं। विकल्प के बतौर किसान फसल के उचित दामों के लिए कानूनी गारंटी की मांग कर रहा है ताकि हर साल मंडी से वह खाली हाथ नहीं लौटे। अगर वह मंडी से उचित दाम के साथ लौटा तो वह खुद-ब-खुद कर्ज़मुक्ति के रास्ते पर आ जाएगा।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद चुनावी ज़मीन दरकने से बचाने के लिए सरकारों का जो नाटक चल रहा है, वह इस चिंता में डालता है कि किसानी का सवाल मुख्य सवाल बनने के बाद भी सरकारों और राजनीतिक दलों के पास किसान और किसानी के लिए कोई रोड मैप नहीं है। इस यथास्थिति में किसानों की समस्या का पूर्ण समाधान तो नहीं दिखता है।

ज़ाहिर है किसान आंदोलन को अधिक संगठित और परिपक्व होने की ज़रूरत है। नहीं तो किसान की समस्या राजनीतिक मुद्दा तो ज़रूर बन जाएगी पर इससे किसानी का कोई भला नहीं होगा। मौजूदा वक्त में किसानों की समस्या का समाधान खोजना अधिक ज़रूरी है। क्योंकि राजनीतिक सवाल तो भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और कई संवेदनशील मुद्दे बनते रहे हैं पर उसका समाधान अभी तक किसी के पास नहीं है?

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