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“धर्म, जाति के नाम पर लड़ते देश में भगत सिंह की ज़रूरत है”

23 मार्च 1931, एक ऐसी तारीख जब एक 23 साल का नौजवान लड़का अपने मुल्क की आज़ादी की खातिर फांसी के तख्ते पर लटक गया। मौत को अपने सामने देखकर अच्छे से अच्छे सूरमाओं के हाथ पांव कांप जाते हैं, सांसे फूल जाती हैं लेकिन यह नौजवान ना जाने किस मिट्टी का बना था जो फांसी के फंदे को गले से लगाते हुए घबराया तक नहीं। उल्टा मजिस्ट्रेट के सामने पूरे जोश के साथ बोला, आज आप देखेंगे कि एक क्रांतिकारी किस तरह अपनी मातृभूमि के लिए फांसी के फंदे को गले लगाता है।

जेल वॉर्डन चरत सिंह तो यह देखकर हैरान था कि फांसी से कुछ समय पहले इस 23 साल के युवा को अपनी जान की नहीं, बल्कि इस बात की फिक्र थी कि अपने प्रिय लेखक लेनिन की नवीनतम किताब पूरी तरह नहीं पढ़ पाया था। इस इंसान का नाम था, सरदार भगत सिंह।

मेरा यह लेख इस बारे में नहीं है कि भगत सिंह का जन्म कहां हुआ, उनके मां बाप कौन थे, उन्होंने असेंबली में किस तरह बम फेंका, महात्मा गांधी से उनके मतभेद, वगैरह-वगैरह। अगर मैं कुछ बताना चाहता हूं तो उनके विचारों के बारे में और किस तरह हर राजनीतिक पार्टी सिर्फ वोट बैंक के लिए उनका इस्तेमाल करती हैं।

भगत सिंह के बारे में लेखक, संगीतकार और अभिनेता पीयूष मिश्रा कहते हैं कि उनको जिया नहीं जा सकता, उन जैसे लोग तो पहले से ही छंट कर आते हैं। जोश, जज़्बा, ज्ञान क्या कुछ नहीं था इनके पास। यह अलग बात थी कि इनके विचारों से कभी कोई बड़ा नेता सहमत नहीं था और शायद होता भी नहीं क्योंकि सत्ता के भूखे इन नेताओं को अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने से मतलब था ना कि भारत को प्रगति पथ पर ले जाने से।

बेवजह की हिंसा और खून खराबे को बढ़ावा नहीं देना चाहते थे भगत सिंह

भगत सिंह के बारे में एक खास बात और थी कि वह अपने साथी क्रांतिकारियों से कहीं ज़्यादा समझदार और परिपक्व सोच रखने वाले नेता थे। बेवजह की हिंसा और खून खराबे को बढ़ावा ना देने वाले भगत सिंह अपनी किताबों और कॉलम्स के द्वारा यह प्रयास करते थे कि उनके विचार मुख्यधारा में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंच सके।

कलम के धनी और अपने विचारों को बेबाकी से रखने वाले भगत सिंह लाला लाजपत राय और महात्मा गांधी जैसे बड़े नेताओं के खिलाफ बोलने से भी नहीं घबराए। पीयूष मिश्रा के एक नाटक गगन दमामा बाजयो के एक दृश्य में भगत सिंह महात्मा गांधी के बारे में कहते हैं कि उनमें कुछ तो बात थी जो देश का बच्चा-बच्चा उनकी एक पुकार पर स्कूलों से अपना नाम कटाकर आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़ा लेकिन गांधी जी ने उन सभी के प्रयासों को विफल करते हुए चौरी चौरा के एक छोटे से हादसे की वजह से आंदोलन वापस ले लिया।

आखिर क्या कसूर था उन अबोध बच्चों का जिन्होंने महात्मा गांधी का इस आंदोलन में साथ दिया था। इसके अलावा अपने लेखों में उन्होंने लाला लाजपत राय और इंडियन नेशनल कॉंग्रेस के कई मौकापरस्त और दिखावटी नेताओं, जो हिंदू महासभा और ब्रिटिश सरकार का समर्थन करते थे का पुरजोर विरोध किया।

भगत सिंह को किसी धर्म से जोड़ना दुखद है

इस बात को लेकर आज भी अत्यंत दुख होता है कि कुछ लोग उन्हें सरदार भगत सिंह कहकर बुलाते हैं और उनके नाम पर वोट बैंक की गंदी राजनीति करते हैं, जबकि सच तो यह है कि फांसी पर चढ़ने से पहले उन्होंने अपने धर्म को त्याग दिया था। उन्होंने इस विषय के ऊपर “मैं नास्तिक क्यों हूं” नाम से एक किताब भी लिखी।

धर्म को त्यागने के विषय में भगत सिंह इतने अटल रहें कि जब फांसी से कुछ समय पहले जेल वॉर्डन चरत सिंह ने उनको गुरु ग्रंथ साहिब पढ़ने के लिए कहा तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा कि वह अगर अब गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ करने लगे तो वाहेगुरु भी कहेंगे कि कैसा बुज़दिल इंसान है, जो मौत को सामने देखकर मुझे याद कर रहा है।

इनकी ज़िन्दगी के बारे में एक कथन और है जिससे काफी लोग अनजान हैं कि वह एक बहुत ही रूमानी और प्रेम प्रसंग युक्त किस्म के इंसान थे लेकिन अपने देश के प्रति इतने ज़्यादा निष्ठावान थे कि उन्होंने अपनी शादी भी यह कहकर ठुकरा दी कि यह उनकी आज़ादी की लड़ाई में बाधा बन सकती है।

अपने एक लेख में भगत सिंह ने लिखा था कि जब तक हिंदू और मुसलमान गाय और सूअर को लेकर लड़ते रहेंगे तब तक भारत कभी भी आगे नहीं बढ़ पाएगा। यह बहुत ही हैरान कर देने वाली बात है कि जिस समय इंडियन नेशनल कॉंग्रेस और मुस्लिम लीग के नेता देश को दंगों की आग में झोंकने में लगे हुए थे उस समय यह नौजवान देश की जनता को एक सूत्र मे पिरोने का काम कर रहा था।

भगत सिंह जैसे लोग युगों में सिर्फ एक बार जन्म लेते हैं। आज भारत में जहां पर धर्म और जाति के नाम पर लोगों को लड़ाया जा रहा है वहां ज़रूरत है भगत सिंह जैसे लोगों की, जो जनता को यह संदेश दे सके कि अगर हमें अखंड भारत की बुनियाद रखनी है तो राजनैतिक रोटियां सेंकने वाले इन नेताओं के चक्रव्यू से दूर रहना होगा। अंत में इस महापुरुष को याद करते हुए बिस्मिल अज़ीमाबादी की कुछ पंक्तियां लिखना चाहूंगा।

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है

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