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“गणतांत्रिक देश में लोकतंत्र, संविधान और युवा होने के मायने”

गणतंत्र दिवस

गणतंत्र दिवस

बचपन में हमारे लिए स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस का मतलब केवल लड्डू खाने से था। हम सब सुबह-सुबह यूनिफॉर्म पहन कर झंडा फहराने जाते थे लेकिन झंडा फहराने से ज़्यादा मुख्य आकर्षण उस दिन मिलने वाले लड्डू और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का होता था।

स्वतंत्रता सेनानी परिवार से होने के नाते मेरे लिए यह दिन विशिष्ट रहता था क्योंकि प्रायः विद्यालय में मुख्य अतिथि दादा जी ही हुआ करते थे और इस दिन वह हम सबको अपने स्वतंत्रता के अनुभवों से अवगत कराते थे।

दादा जी ‘गाँधी जी’ से प्रेरित थे और 1942 के स्वतंत्रता संग्राम में गोली भी खाई और महीनों तक जेल में भी रहे। उन्हें जो गोली लगी थी वह मरणोपरांत (2013) तक उनकी दाएं हाथ की हड्डी में फंसी रही लेकिन वह इस दर्द को भी बड़े हंसमुख तरीके से सहते हुए हमें अपने संघर्षो की कहानियां सुनाते थे।

वह कहते थे, “आज़ादी के मायने और वैचारिक खुलापन एक दूसरे पर निर्भर करते हैं और सही आज़ादी तभी संभव है, जब व्यक्ति आर्थिक और सामाजिक रूप से आत्मनिर्भर हो।”

महात्मा गाँधी। फोटो साभार: गूगल फ्री इमेजेज़

महात्मा गांधी भी कहते थे, “भारत को सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आज़ादी हासिल करना अभी बाकी है। भारत में लोकतंत्र के लक्ष्य की ओर बढ़ते समय सैनिक सत्ता पर जनसत्ता के आधिपत्य के लिए संघर्ष होना अनिवार्य है। हमें काँग्रेस को राजनीतिक दलों और साम्प्रदायिक संस्थाओं की अस्वस्थ स्पर्धा से दूर रखना है।” (गांधीजी ने यह मसौदा 29 जनवरी 1948 की रात तैयार किया था जिसके अगले ही दिन उनकी हत्या कर दी गई।)

गणतंत्र यानि गण राज्यों का तंत्र, अमेरिकी परिभाषा में इसे संभ्रांत समाज के लोगों के समाज का प्रतिनिधित्व था जहां विभिन्न उद्योगपति, नेता और बौधिक वर्ग एक तरह से समाज के चेहरे हुआ करते थे। हालांकि भारत में यह अलग है जिसे “रूल ऑफ लॉ” यानि संविधान के अनुसार प्रतिनिधित्व कहा गया है।

क्या है लोकतांत्रिक गणराज्य

अक्सर यह सुनने को मिलता है कि भारत पूर्ण लोकतांत्रिक देश नहीं है। ऐसे भी टिप्पणियां सुनने को मिलती हैं कि प्रतिनिधित्व लोकतंत्र होने के बावजूद भी हमारे यहां राज्यपाल और राष्ट्रपति का चुनाव पार्टी सिस्टम में केवल राजनैतिक रूचि का हिस्सा बनकर रह गया है।

आज़ादी के तुरंत बाद भारत पूर्ण लोकतंत्र होने के बजाय लोकतांत्रिक गणराज्य बना जहां प्रतिनिधि आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाई गई। उस वक्त तर्क यह दिया जाता था कि भारत पूर्ण लोकतंत्र के लिए तैयार नहीं है या ऐसे किसी भी तंत्र के लिए तैयार नहीं है जहां हर फैसले सीधे-सीधे जनता द्वारा ही लिए जाते हो।

ऐसा माना गया कि यदि तब पूर्ण लोकतंत्र होता तो अशिक्षा, सामाजिक और राजनैतिक समझ के स्तर में कमी ‘लोकतंत्र’ को केवल भीड़ तंत्र बना देती और वही होता जो सुकरात के साथ हुआ था। उनके देश में वास्तव लोकतंत्र था और जनता सीधे फैसले लेती थी। इसके होने के बावजूद भी नासमझ भीड़ के बहुमत ने उन्हें ज़हर देने का फरमान सुना दिया।

फोटो साभार: Flickr

आज गणतंत्र 70 साल से भी ज़्यादा पुराना हो गया है लेकिन अभी भी शिक्षा और स्वास्थ जैसी बुनियादी चीज़ों के स्तर पर हम पूरी तरह से अंत्योदय के विकास तक नहीं पहुंच पाए हैं। दुनिया के सबसे ज्यादा ग़रीब लोग हमारे ही देश में रहते हैं।

एक अच्छी लोकतांत्रिक व्यवस्था उसे कहते हैं जहां अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, अंत्योदय और यहां तक कि सभी नागरिकों को बगैर जाति और मज़हबी भेदभाव के अपना प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिले। हालांकि वर्तमान व्यवस्था ऐसी नहीं है।

वर्तमान में हमारा गणतंत्र बहुसंख्यकवादी ही है जहां पर भीड़ तय करती है कि प्रतिनिधि कौन हो और शायद यही कारण है भारत में हम भले ही अपनी पीठ थपथपाए लेकिन ‘डेमोक्रेसी इंडेक्स 2018’ में दुनिया के 167 लोकतांत्रिक देशों में हमारी गिनती 41 वें स्थान पर होती है। जबकि हमसे कहीं बाद आज़ाद हुए देशों की स्थिति काफी बेहतर है।

चुनावी फ्रॉड

‘ईवीएम टेंपरिंग’ के आरोप को छोड़ भी दें तब भी अभी हाल ही में पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव में ही बूथ कैप्चरिंग से लेकर तमाम आरोप लगे थे। भारत के गाँवों और दूर दराज़ के आदिवासी क्षेत्रों में भी यह घटनाएं आम हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह भी सुनने में आता है कि मतदाताओं के नाम तक काट दिए जाते हैं।

फोटो साभार: Flickr

‘करप्शन इंडेक्स 2018’ के आकड़ों के अनुसार भारत दुनिया के 180 देशों में भष्टाचार के मामले में 81वें स्थान पर आता है, यानि एक तरह से भारत के राजनैतिक तंत्र के डीएनए में ही भष्टाचार है। ऐसा भी सुनने में आता है कि राजनैतिक दल अक्सर अपने चुनावी सिंबल को देने में भी खरीद-फरोद करते हैं। ऐसे में तमाम जनप्रतिनिधि भष्टाचार के ज़रिए चुनाव जीतने के बाद राष्ट्र चिंतन करने के बजाए व्यपार और मुनाफे कमाने में ही लगे रहेंगे।

70 सालों की व्यवस्था के बाद भी हमारा ध्यान सिर्फ लोगों को घरों से निकाल कर वोट कराने में ही है, जबकि असल चुनौती यह होनी चाहिए कि वोट किन मुद्दों पर दें। एक बड़ी आबादी तो आज प्रारंभिक शिक्षा से भी दूर हैं जिन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों और संविधान की बातें समझाना एक टेढ़ी खीर है। यही कारण है कि आज गैर ज़रूरी मुद्दें जवान, किसान और नौजवान जैसे सामाजिक और ज़रूरी मुद्दों पर हावी हो जाते हैं।

चुनावी उम्मीदवारों और युवाओं में बुनियादी जानकारी की कमी

मतदाता तो दूर, बहुसंख्यक प्रतिनिधि भी लोकतांत्रिक मूल्यों की जानकारी से प्रायः अनभिज्ञ ही रहते हैं। अभी हाल ही में राजस्थान विधानसभा चुनाव के दौरान एक प्रतिभागी से ‘एमएलए’ का फुलफॉर्म पूछे जाने पर उन्होंने इसका जवाब ‘मेंबर ऑफ पार्लियामेंट’ दिया।

फोटो साभार: Flickr

कुछ दिन पहले दिल्ली के युवा मतदाताओं का भी एक ‘प्रैंक’ वीडियो वायरल हुआ जहां ज़्यादातर युवाओं को प्रधानमंत्री के नाम ही नहीं बल्कि उन्हें यह भी नही पता था कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के कार्य क्या होते हैं और उनमें अंतर क्या होता है।

ऐसे में भारतीय शिक्षा पद्धति में कुछ ऐसे विषयों को भी शामिल किया जाना चाहिए जिससे लोकतंत्र, संविधान और गणतंत्र जैसे विषयों में युवाओं की जिज्ञासा बढ़े। जब राजधानी के पढ़े लिखे युवा मतदाताओं और प्रतिनिधियों का यह हाल है तब स्वाभाविक रूप से देश की 29 करोड़ असाक्षर जनसंख्या के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों को समझाना एक बड़ा संघर्ष है।

राजनैतिक दलों का पारदर्शी ना होना

राजनैतिक दल खुद को ना तो आरटीआई के अंतर्गत लाते हैं और ना ही वे ऐसे किसी भी श्रोतों का खुलासा करते हैं जो उनके सिद्धांतों को प्रभावित कर सके। जैसे- चंदो की उगाही के स्रोतों को सभी राजनैतिक दल छुपाते हैं। इसे भी विडंवना ही कहेंगे कि कई राज्यों के आयकर से ज़्यादा कमाई तो राजनैतिक दलों के होते हैं, जबकि जनता टैक्स तो केवल सरकार को देती है लेकिन कमाई राजनैतिक दलों की बढ़ती है।

चुनावी जनसभा। फोटो साभार: Flickr

राजनैतिक दल दावा करते हैं कि चंदो या अन्य स्रोतों से उनकी आमदनी बढ़ी है लेकिन हास्यप्रद ही है कि टैक्स देने में असमर्थ जनता भी इन्हें चंदा देती है। ऐसे में अगर पारदर्शिता बढ़े तो उन बाह्य अवयवों का भी पता लगाया जा सकता है, जिनसे राजनैतिक दलों पर प्रभाव पड़ता है।

एंटी वोट पॉलिटिक्स

भारत में एक बड़ा वर्ग है जो योग्य उम्मीदवार चुनने के बजाय विभिन्न कारणों से ‘एंटी वोट’ करता है। ऐसे में यह ‘एंटी वोट’ प्रायः उस उम्मीदवार को जाते हैं जो उनके निजी स्वार्थ में रोड़ा बनते हुए दल को हरा सके।

भारत में ‘फर्स्ट पास्ट द वोट सिस्टम है’ जो कि गणराज्यों को बहुसंख्यकवादी बना देता है। ऐसे में किसी भी क्षेत्र के अल्पसंख्यक विचारों के मतदाताओं की कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं रह जाती और ना ही बहुसंख्यकवाद से चुना व्यक्ति अन्यों को स्वीकार्य भी हो पाता है।

बीते दिनों में बढ़ते राजनैतिक दलों की गणित ने तो यह हालात ला दिए हैं कि अब तो 30% मत पाने वाला भी 100% का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसे में उस 30% वाले को “मूड ऑफ द नेशन” तो कभी नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस व्यवस्था से तो अल्पसंख्यकवादी बहुमत को बढ़ावा मिला है, जबकि 70% लोगों ने उसे अपना प्रतिनिधि माना ही नहीं है।

वोटिंग के दौरान तमाम मतदाता। फोटो साभार: गूगल फ्री इमेजेज़

इस व्यवस्था का सबसे बड़ा नुकसान यह भी है कि आम तौर पर लोग अपने मुख्य विकल्प के बजाय जीतने और हारने की गणित समझने लगते हैं। ऐसे में प्रायः लोग योग्य उम्मीदवार के बजाय जो उमीदवार जीतने की स्थिति में होता है उसे ही मत दे देते हैं।

न्यूज़ीलैंड और यूनाइटेड किंगडम जैसे अन्य देश लगातार अपने यहां लोकतंत्र को बेहतर करने की कोशिश करते रहते हैं। ऐसे में भारत को भी आनुपातिक या फिर तरजीही वोटिंग सिस्टम के बारे में भी सोचना चाहिए जहां बहुसंख्यकवादी होने के बजाय हर मतदाता को सभी पार्टियों को रैंक देने का अवसर मिलेगा।

उस रैंक आधारित गणना से बहुसंख्यकवादी सिस्टम को वास्तविक लोकतंत्र में बदला जा सकता है। ऐसी व्यवस्था से राजनैतिक दलों द्वारा घूस, शराब या पैसे से मतों को प्रभावित करने जैसी घटनाएं भी नहीं होंगी और ना ही धर्म, सम्प्रदाय और जाति के नाम पर लोग वोट मांग पाएंगे क्योंकि फिर अल्पसंख्यक मतदाताओं की भूमिका भी बराबर होगी।

गणतंत्र और संविधान

नेहरू द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य संकल्प में जो आदर्श पेश किया गया उन्हें ही संविधान की उद्देशिका में शामिल कर लिया गया। संविधान के 42वें संशोधन (1976) द्वारा संशोधित यह उद्देशिका कुछ इस प्रकार हैं-

“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को:

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की और एकता अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई० को एतद संविधान को अंगीकृत, अधिनियिमत और आत्मार्पित करते हैं।”

उम्मीद है कि भारत के लोग गणतंत्र के वास्तविक मायने इस प्रस्तावना से समझ सकते हैं। गणतंत्र से लोकतंत्र और लोकतंत्र से स्वराज, यह एक सतत प्रक्रिया है, जो आज भी प्रगतिशील तरीके से चल रही है।

बाबा साहेब आंबेडकर। फोटो साभार: सोशल मीडिया

असल उद्देश्य स्वराज है जिसका पहला चरण गणतंत्र था और दूसरा चरण लोकतंत्र है, जो अभी भी केवल गणतांत्रिक बहुसंख्यकवादी व्यवस्था ही है। जब पूर्ण लोकतंत्र मिल जाए तब फिर स्वराज और स्वविवेक की ओर जाना होगा। भारत में गणतंत्र का मतलब संविधान है और संविधान हमसे ही है।

नोट: लेखक भारतीय समाजिक अनुसंधान परिषद के ‘रिसर्च फेलो’ हैं।

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