मोदी सरकार की कैबिनेट ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों के लिए शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 10% आरक्षण देने का बिल पास किया। यह आरक्षण अभी तक एससी, एसटी और ओबीसी को मिल रहे कुल 49.5% आरक्षण से अलग होगा। जो सवर्ण अभी तक दलितों और पिछड़ों को मिल रहे आरक्षण को भीख बताते थे, अब वे खुद को मिल रहे आरक्षण को मोदी सरकार का मास्टरस्ट्रोक बता रहे हैं।
भारतीय संविधान में अभी तक आर्थिक रूप से आरक्षण देने का कोई प्रावधान नहीं था। यही कारण था कि जब 1991 में नरसिम्हा राव की सरकार ने मोदी सरकार की तर्ज पर ही सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों को 10% आरक्षण देने का ऑफिस मेमोरेंडम निकाला तो इंदिरा साहनी ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी और सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया। इसलिए मोदी सरकार ने इस बार संविधान के आर्टिकल 15 और आर्टिकल 16 में संशोधन किया है।
गरीबों के हित में नहीं है यह बिल
इस आरक्षण का लाभ लेने के तीन नियम हैं। पहला, आपके घर की कुल आमदनी सालाना 8 लाख रुपए से कम होनी चाहिए। 8 लाख रुपए कमाने वाले कहां के गरीब हैं? इनकम टैक्स तो 2.5 लाख से ऊपर कमाने वाला हर इंसान भरता है। अगर पति-पत्नी 4-4 लाख भी कमाएं, तो दोनों इनकम टैक्स तो भरेंगे लेकिन गरीबों की श्रेणी में आरक्षण का लाभ उठाएंगे। इस नियम के तहत देश की 95% आबादी आ जाएगी। यह डेटा एनएसएसओ और आईटी डिपार्टमेंट से लिया गया है।
दूसरा नियम है कि आपके पास 5 एकड़ तक की ज़मीन होनी चाहिए। एग्रीकल्चरल सेंसस 2015-16 के अनुसार, इस नियम के तहत देश की 86.2% आबादी आ जाएगी। तीसरा नियम है कि आपके घर का आकार 1000 स्क्वॉयर फीट से ज़्यादा नहीं होना चाहिए। एनएसएसओ के डाटा के अनुसार इस नियम के तहत भी देश की 80 से 90% आबादी आ जाएगी।
हम ये मान कर चलें कि सामान्य वर्ग में भी यही हालात होंगे (हालात बेहतर भी हो सकते हैं) तो 85 से 90% सामान्य वर्ग के लोग केवल 10% सीटों के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगे और 10 से 15% सामान्य वर्ग के अमीर लोग बाकी बचे 40% सीटों के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि दीपा ईवी बनाम भारत सरकार केस में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला है कि जो कैंडिडेट आरक्षित कोटे के फ़ायदे ले चुके हैं जैसे उम्र में छूट, वे अनारक्षित सीटों के लिए योग्य नहीं होंगे। अब तो अमीरों के लिए राह आसान हो गई। 10 से 15% अमीरों के लिए 40% सीटें हैं। गरीबों के लिए राह मुश्किल हो गई।
दूसरा सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि सरकार ने ऐसे नियम बनाए हैं कि 85-90% लोग गरीबों की श्रेणी में आ गए हैं। क्या यह मजाक नहीं है? 8 लाख कमाने वाला गरीब होता है? जैसा कि मोदी सरकार कह रही है कि यह बिल गरीबों के हित में लाया गया है, तो अगर सच में यह बिल गरीबों के हित में होता तो सालाना आमदनी की लिमिट 1-2 लाख तक ही होती जिससे ज़्यादा से ज़्यादा गरीब इसका लाभ उठा पाते। लेकिन मोदी सरकार को यह आरक्षण गरीबों को देना ही नहीं था, बल्कि 85-90% लोगों को इसके जाल में फंसाकर वोट लेना था। अगर लिमिट 1-2 लाख होती तो कम लोगों का ही आकर्षण और वोट मिलता। इसलिए लिमिट 8 लाख रखी गई ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का आकर्षण और वोट मोदी सरकार को मिल सके।
इसमें दिलचस्प बात यह है कि जो सवर्ण आरक्षण का विरोध करते हैं कि वे अमीर दलितों को मिल रहा है, वे अब अमीर सवर्णों को मिल रहे आरक्षण का जश्न मना रहा है। शायद उनके लिए 8 लाख तक कमाने वाले गरीब हैं।
इस असंवैधानिक बिल को निरस्त कर सकता है सुप्रीम कोर्ट
संविधान के आर्टिकल 16(4) में लिखा है कि सरकार पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान कर सकती है जिनका सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व कम है। संविधान के इस आर्टिकल से साफ़ है कि आरक्षण का उद्देश्य है कि समाज के हर तबके का बराबर प्रतिनिधित्व हो। तो क्या इन 85-90% सामान्य वर्ग के लोगों को जो 10% आरक्षण दिया जा रहा है उनका सरकारी नौकरियों में अभी तक 10% से कम प्रतिनिधित्व रहा है? आखिर किस कमिटी की किस रिपोर्ट के आधार पर सरकार इस 10% के आंकड़े तक पहुंची? किस कमिटी ने ये सिफ़ारिश सरकार के सामने रखी कि सामान्य वर्ग के 85-90% लोगों का सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व 10% से भी कम है इसलिए उन्हें 10% आरक्षण देना चाहिए?
मोदी सरकार ने आर्थिक आरक्षण देने के लिए संविधान के आर्टिकल 15 और 16 में संशोधन किया है। 124वां संविधान संशोधन बिल लोकसभा और राज्यसभा दोनों ने मात्र एक दिन में ही पास कर दिया। इतना महत्वपूर्ण बिल एक दिन में ही पास करवाकर देश की संसदीय प्रणाली के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।
मोदी सरकार के 124वें संविधान संशोधन बिल को निरस्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के पास तमाम कारण हैं। इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने अपने फ़ैसले में साफ़ कर दिया था कि सिर्फ़ आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता। इंदिरा साहनी केस में ही सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की कुल सीमा 50% तय की थी। यह बिल इस सीमा को भी लांघती है।
बहुत लोगों ने यह सवाल उठाया है कि क्या एक संविधान संशोधन बिल लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों से पास होने के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त किया जा सकता है। इसका जवाब है, हां। केसवनंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंच ने फ़सला सुनाया था कि सरकार द्वारा किया गया ऐसा कोई भी संशोधन जो संविधान की मूल संरचना के खिलाफ हो, निरस्त किया जा सकता है। ऐसा पहले भी हुआ है। 2015 में 99वां संविधान संशोधन बिल (एनजेएसी बिल) लोकसभा और राज्यसभा से पास होने के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक करार दिया जा चुका है और भी कई मौकों पर संविधान संशोधन बिल और उनके कुछ प्रावधान कोर्ट द्वारा असंवैधानिक घोषित किए जा चुके हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की कुल सीमा 50% तय की थी ताकि बेलगाम आरक्षण सामान्य वर्ग के लोगों के संविधान के आर्टिकल 14 के तहत बराबरी के अधिकार पर हमला ना करे। गुजरात सरकार ने भी 2016 में आर्थिक आधार पर सामान्य वर्ग के लोगों को 10% आरक्षण दिया था, जिसे गुजरात हाई कोर्ट ने निरस्त कर दिया। मोदी सरकार के संविधान संशोधन बिल के तहत दिया गया आरक्षण कुल आरक्षण को 59.5% तक पहुंचा देगा। यह संविधान के आर्टिकल 14 का साफ़ उल्लंघन है और सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक करार दिया जा सकता है।
पॉलिटिकल स्टंट है यह आरक्षण
कुल मिलाकर देखें तो सामान्य वर्ग को दिया जा रहा ये आरक्षण बस एक पॉलिटिकल स्टंट है। चुनावों से पहले आदर्श आचार संहिता लागू होने से पहले आखिरी संसदीय सत्र के आखिरी दिन इस बिल को जल्दबाज़ी में लाना यह साबित करता है। इस आरक्षण को लागू करने से पहले मोदी सरकार ने कोई कमिटी नहीं बैठाई। यह पूरी तरह से एक चुनावी फैसला है।
युवाओं को नौकरी देने के मोर्चे पर मोदी सरकार पूरी तरह से विफल रही है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017 में ही 1 करोड़ से ज़्यादा नौकरियां चली गई। इस विफलता को छुपाने के लिए युवाओं को आरक्षण का लॉलीपॉप दिया जा रहा है। युवाओं को भी समझना चाहिए कि जब नौकरियां ही नहीं हैं तो आरक्षण से क्या होगा। जिस आरक्षण का उद्देश्य सभी तबकों का समान प्रतिनिधित्व है, उसका इस्तेमाल चुनाव जीतने के लिए पॉलिटिकल स्टंट के रूप में किया जा रहा है।