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“अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाना ब्राह्मणवादी वर्चस्व की मुहिम का हिस्सा है”

ब्राह्मणवाद और मनुवाद को समझना वास्तव में बहुत कठिन है। इसके उग्र स्वरूप को समझा जा सकता है, जहां जात-पात, पुरुषप्रधान समाज, धर्म के नाम पर हो रही कुरीतियां, इत्यादि हैं। वास्तव में ब्राह्मणवाद खुद के वर्चस्व को बचाने में ही आमादा रहता है लेकिन चिन्हों के रूप में मौजूद ब्राह्मणवाद को समझना बहुत मुश्किल है, जहां आज राष्ट्रवाद, भारत को माता का दर्जा देना इत्यादि शामिल है। वहीं इसी रूप रेखा में भारतीय समाज के अल्पसंख्यक समुदाय को किस तरह से निशाना बनाया जा रहा है, क्यों बनाया जा रहा है यह समझना भी ज़रूरी है। वास्तव में यहां यह समझने की ज़रूरत है कि अल्पसंख्यक समुदाय पर साधा जा रहा निशाना भी ब्राह्मणवाद के वर्चस्व की ही एक मुहिम का हिस्सा है।

अगर हम ब्राह्मणवाद को समझें तो जब यह सत्ता में होता है, ताकतवर होता है तब अक्सर अपने वर्चस्व के लिये पूर्णतः प्रयत्नशील होता है, जहां हिंसा भी ब्राह्मणवाद का एक साधन बन जाती है। अगर इसी संदर्भ में हम हिंदू देवी देवताओं की तस्वीर को देखें तो सभी शस्त्रधारी ही प्रतीक होते हैं।

यहां यह समझने की ज़रूरत है कि हिंदू देवी देवता वही परवान है जिसे ब्राह्मण मसलन ब्राह्मणवाद की रक्षा के लिये पूर्ण रूप से खुद का समर्थन देता हो, इसी शैली में श्री राम और श्री कृष्ण को देखा जा सकता है। लेकिन ब्राह्मणवाद का एक और पहलू है कि यह जब-जब सत्ता में पूर्णतः ताकत के साथ मौजूद नहीं था तब-तब भी इसकी सत्ता में भागीदारी रही है।

अकबर बीरबल की कहानियां इसी का एक प्रतीक हैं। वहीं ब्राह्मणवादी विचारधारा ने कभी सत्ता के विरोध में खुद को पेश नहीं किया है। हां, जब-जब सत्ता में ब्राह्मणवादी विचारधारा को चुनौती दी गई है, तब-तब ब्राह्मणवाद विचारधारा किसी-ना-किसी रूप में उस सत्ता को हटाने में पूर्णतः प्रयत्नशील रहती है। अब इसी संदर्भ में 1987 का विद्रोह को भी समझने की ज़रूरत है।

यही संदर्भ 2004 से 2014 के बीच मौजूद मनमोहन सिंह के रूप में कॉंग्रेस की सरकार को भी देखा जा सकता है, जहां हिंदू आंतकवाद यह शब्द पहली बार भारत की जनता को किसी सरकार के रूप में सुनाया गया था। नतीजन मनमोहन सिंह के रूप में कॉंग्रेस की सरकार 2014 के चुनाव में बहुत भारी अंतर से हार गई थी।

ब्राह्मणवाद का एक सदा समयानुसार अपने अनुसरों को बदलता रहता है, जहां किसी भी तरह से इसके वर्चस्व को कायम रखा जा सके। मसलन इसके अपने देवी देवता भी आस्था के नाम पर ऊपर-नीचे होते रहते हैं। उदाहरण के लिये एक समय ब्रह्मा को दुनिया का उपासक बताया गया लेकिन समय रहते उनकी जगह किसी और देवी देवता को आस्था के शिखर पर बैठाया गया। लेकिन पहले से ही शिखर पर मौजूद देवी देवता को किस तरह दूसरे देवी देवता से बदला जा सकता है? इसके लिए आपको थोड़ा गूगल करना चाहिए, जहां आप समझ सकेंगे कि किस तरह ब्रह्मा किस देवी पर मोहित हो गये, उनका उनसे क्या रिश्ता था इसी के साथ ब्रह्मा के किरदार को भी धुंधला किया गया और इस तरह के किरदार को कभी भी समाज में शिखर पर नहीं बैठाया जाता है।

इसी संदर्भ में देव इंद्र ओर देवी कौशल्या की कहानी को भी पढ़ा जा सकता है। वहीं कभी-कभी इसी रूप रेखा में शनि महाराज की एक नज़र किसी दूसरे देवी देवता को हाथी इत्यादि बनने के लिये भी मजबूर कर देती है।

यहां यह समझना ज़रूरी है कि ब्राह्मणवाद विचारधारा अक्सर धर्म मसलन देवी देवताओं को मोहरा बनाकर समाज में खुद के वर्चस्व को साबित करती रही है और इसके लिये समय-समय पर नये देवी देवताओं का भी मंथन किया गया है और नये देवता को ज़्यादा शक्तिशाली साबित करने के लिये पुराने देवता को किसी-ना-किसी रूप में कमज़ोर करना ज़रूरी है। मसलन ब्राह्मणवाद अपनी ही कहानियों में अक्सर अपने ही गढ़े हुए पात्रों को लड़ाने में भी माहिर रहा है।

ब्रह्मा पर लगे इन सभी आरोपों के मद्देनज़र हम समझ सकते हैं कि आज भी किसी नेता की लोकप्रियता को कम करना हो तब अचानक से कोई सेक्स सीडी या इसी तरह का कोई और संचालन लोगों के बीच लाया जाता है, जहां अक्सर नेता की छवि तो खराब होती है, वहीं वह शिखर पर रहने के योग्य नहीं रहता है।

वहीं ब्राह्मणवादी विचारधारा को वही देवी देवता ज़्यादा पसंद आते हैं, जो इसे इसके सामाजिक वर्चस्व बनाये रखने में मददगार हो। इसी संदर्भ में हम देख सकते हैं कि 1980 के दशक से श्री राम को समाज में बहुत ज़्यादा प्रचारित किया गया है, जहां उनकी छवि पुरुषोत्तम, मर्यादा पुरुष, इत्यादि के रूप में खुद को सभी देवी देवताओं की कचहरी में शिखर पर साबित करती है।

अब श्री राम के ही संदर्भ में राम जन्मभूमि आंदोलन को समझा जा सकता है कि अगर श्री राम की छवि शिखर पर होगी तब ही राम जन्मभूमि आंदोलन को बल मिलेगा। वहीं राम जन्म भूमि आंदोलन से सत्ता में आना भी आसान है और इस तरह प्रकट हुई सत्ता ब्राह्मणवादी विचारधारा की ही पैरवी करती हुई ज़रूर दिखाई देगी।

अब 2011 में राम जन्मभूमि इतना बड़ा आंदोलन नहीं रह गया था कि इसके माध्यम से सत्ता में पहुंचा जाये। अब इसी संदर्भ में एक बार फिर से दिल्ली के जंतर-मंतर पर तिरंगा लहराया गया। भारत माता की जय के नारे लगे और लोकायुक्त की नियुक्ति का आंदोलन वास्तव में कब अन्ना आंदोलन बन गया और कब इस आंदोलन का चेहरा बनकर अरविंद केजरीवाल राजनीति में आ गये यह सब एक आम नागरिक समझने में असमर्थ ही रह गया।

मसलन, यह सभी कुछ इतना जल्दी हुआ कि यहां विश्लेषण करना ज़रूरी भी बन जाता है कि क्या अन्ना आंदोलन, अरविंद केजरीवाल का उभार सब राम जन्मभूमि आंदोलन के विकल्प में आ रहे थे? वहीं अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी की मौजूदगी भी एक तरह से 2014 के चुनाव में कॉंग्रेस के वोट बैंक को काटकर भाजपा की ही मदद कर रही थी लेकिन विचारधारा में आप और भाजपा दोनों ही एक दूसरे के विरोध में खड़े हुए दिखाई देते हैं। ब्राह्मणवाद की परिभाषा से इन सभी घटनाक्रमों को समझने की बहुत ज़रूरत है।

जहां मंदिर, पूजा, राहु केतु, हर तरह के विश्वास और अंधविश्वास जिसकी रूप रेखा में धर्म को देखा जा सकता है, वहां अक्सर इसका लाभार्थी ब्राह्मणवाद मसलन हिंदू उच्च जाति ब्राह्मण ही रहा है। अब इसी लाभार्थी के रूप में देश की रचना को भी समझना ज़रूरी है। जहां 1947 में भारत की आज़ादी के बाद देश और राष्ट्रवाद को बहुत उग्रता से उभारा गया अब भारत को जब मां का दर्जा दिया गया, निश्चित तौर पर यह व्याख्या धर्म के अनुरूप घूम रही थी। जहां देश को धर्म की ही एक परिकल्पना में उभारकर देखा जाने लगा।

अब यहां समझने की ज़रूरत है कि देश का मतलब ज़मीन, पानी, हवा, नागरिक, झाड़ पौधे, रेल, हवाई जहाज, टीवी, खेल, फिल्म इत्यादि हर पहलू जो समाज की रचना करता है और देश की परिभाषा बनती है वहां जहां अक्सर हिंदू समाज के उच्च जाति मसलन ब्राह्मणवाद विचारधारा का ही कब्ज़ा है।

ब्राह्मणवादी विचारधारा धर्म की आड़ लेता है, इसके तहत अगर ब्राह्मणवादी विचारधारा से धर्म को हटा दिया जाये तो ब्राह्मणवादी विचारधारा की कही भी होड़ नहीं रहती है। इसके अंतर्गत अगर देश को धर्म से अलग करके संविधान के तहत एक मज़बूत लोकतंत्र के रूप में (जहां सबको बराबर के अधिकार के तहत एक नागरिक को अधिकार मिल जाता है) स्थापित किया जाए, तो यकीनन ब्राह्मणवादी विचारधारा के वर्चस्व को चुनौती मिलेगी। जहां हिंदू समाज के उच्च जाति का समाज से वर्चस्व अपने आप हट जायेगा। इसके तहत ब्राह्मणवादी विचारधारा के अस्तित्व को ही सीधे रूप में चुनौती मिलेगी।

भारत में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी इत्यादि धर्म अपनी होड़ रखते हैं, इनमें खासकर इस्लाम और सिख समाज एक परमात्मा अथवा खुदा अथवा भगवान को ही मानता है।

अब इन दोनों विचारधाराओं में किसी भी तरह से ब्राह्मणवादी विचारधारा के विलय होने की संभावना बिल्कुल नहीं है और सिख विचारधारा ब्राह्मणवाद विचारधारा का खुलकर विरोध करती है। मसलन, इस्लाम और सिख समाज की देश और समाज में स्वीकृति सीधे तौर पर ब्राह्मणवादी समाज, विचारधारा और इसके लाभार्थी के लिए खुले रूप से चुनौती है, जहां देश को धर्म की भूमिका में लाकर समय-समय पर इस्लाम और सिख के रूप में पाकिस्तान और खालिस्तान शब्दों के उभार से इतना बड़ा उग्र रूप दिया जाता है। अपने आप इन दोनों शब्द की आड़ में मुसलमान और सिख समाज को देश के विरोधी, गद्दार इत्यादि छवि में पेश करके देश, समाज में असुरक्षा की भावना का फैलाव बहुत तेज़ी से किया जाता है। 1984 का सिख कत्लेआम और 2002 के गुजरात दंगे इसी असुरक्षा और असुरक्षित समाज की परिभाषा को परिभाषित करते हैं।

वास्तव में हिंदू नागरिक की देशभक्ति को ज़्यादा तवज्जों दी जाती है, वहीं समाज के अल्पसंख्यक समुदाय को इसी नज़रिये से शक की निगाह से देखा जाता है।

यहां यह नज़रिया देश की छवि में ब्राह्मणवादी विचारधारा का ही परिचय देता है। वास्तव में जब तक देश का हर नागरिक ब्राह्मणवादी विचारधारा, ऊंच-नीच, जात-पात, पुरुषप्रधान समाज, बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदाय के बीच मौजूद अंतर, धार्मिक कट्टरता इत्यादि पर अपना विरोध खुलकर दर्ज़ नहीं करवाता तब तक अल्पसंख्यक समाज को हमारे ही देश में असुरक्षा की नज़र से देखा जायेगा और पाकिस्तान जाने के लिये कहा जाता रहेगा, जिसका व्यक्तिगत मेरा भी अनुभव है। लेकिन पाकिस्तान बनाने में ब्राह्मणवाद विचारधारा का कितना योगदान रहा है इसे आम नागरिक को समझने की आज बहुत ज़रूरत है।

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