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सबरीमाला: “यह सिर्फ पूजा करने की नहीं, अधिकार की लड़ाई है”

समानता के अधिकारों की बात करते हुए हम अक्सर स्त्रियों को हाशिये पर पाते हैं। स्त्री दुनिया की आधी आबादी होते हुए भी एक ऐसा समुदाय है जिसे गाहे-बगाहे हमारी पितृसत्ता दोयम घोषित करती आई है। स्त्री एक ऐसा वंचित तबका है जिसके पास मौलिक अधिकार भी अगर-मगर और परन्तुओं के साथ आते हैं, सही कहूं तो आते ही नहीं है।

पिछले दिनों एक मानव श्रृंखला बहुत चर्चा में रही। यह श्रृंखला पितृसत्ता को एड़ी-चोटी से ललकार रही है। सबरीमाला में प्रवेश को लेकर छिड़ी बहस की मुहिम में 650 किलोमीटर लंबी मानव श्रृंखला जिसे स्त्रियां बड़ी शिद्दत से मज़बूती दे रही थीं, उनके हक की लड़ाई है।

अधिकार कैसा, महज़ पूजा करने भर का, महज़ धर्म परायणता की उद्घोषणा का या यह एक ज़िद है? क्योंकि कई दूसरे बेहद ज़रूरी मसलों पर तो ये स्त्रियां चुप रहती हैं। मेरे ख्याल से यह एक छोटा सा प्रयास है, आखिर बदलाव ही तो ज्ञान का अंत है।

मैं समाज के उस तबके से बावस्ता रखती हूं, जहां महीने के तीन दिन रसोई घर में प्रवेश से स्त्रियां वंचित रहती हैं, प्यास लगने पर पानी भी किसी और के देने तक प्यासी रहती हैं। आखिर क्या अश्लीलता है ये?

आपको नहीं लगता इस समाज में कोई स्त्री अगर उस दिन विद्रोह करते हुए मटकी से स्वयं पानी भरकर पी लेगी तो हल्ला नहीं होगा? बहुत कलेश होगा ,यकीन मानिए।

खैर, तरह -तरह की सफाई देते हुए पितृसत्ता के अगुआ बेहतर तरीके से बचकानी से बचकानी और शुचिता की दुहाई देंगे। नारी अस्मिता सहित, छुआछूत जैसे संवेदनशील विषयों पर भी ना कानून की सुनी जाती है और ना ही किसी प्रकार की मानवीयता बरती जाती है।

मंदिर में प्रवेश, अधिकारों की एक ऐसी लड़ाई है जो आपको किसी भी प्रकार के भेदभाव के विरोध का स्वर लगना चाहिए। समता और समानता हर नागरिक का अधिकार होते हुए भी देवालय इसी अधिकार का हनन करते हुए पाए जाते हैं।

मीरा तो रानी थी जब वह भी साधुओं की टोली के साथ बैठकर भजन गाती थीं, सारे समाज को आंख की किरकिरी लगती थीं। लकीर पीटते इस समाज को बदलाव बहुत आतंकित करते हैं। जिस शय को वे देवता मानते हैं, उनपर छूआछूत का आरोप लगाते समय भी हमारी दोगली व्यवस्था शर्मसार नहीं होती।

किस्सागोई की बात हो तो हम स्त्रीवादी कविताओं को बिना पढ़े ही वाह-वाह कर लेते हैं परन्तु स्त्री यदि अपने अधिकार सहजता से भी मांगे तो उसपर बेहयाई का आरोप लगाने वाला समाज खुद कितना निकृष्ट हो जाता है। जिस स्त्री को देवी बनाकर विभिन्न नामों से पूजते हैं, वह भी मौन ही है ना, अगर वह बोलने लगे तो ना जाने कौन से ही अगले क्षण में उसका देवित्व भी प्रश्नों के कटघरे में होगा।

सबरीमाला सहित घर के छोटे से मंदिर में भी स्त्री याचक ही है। ऐसी याचक जो यदि धार्मिक है तब भी नियम पुरुषवादी हैं, यदि वे उपासना और कर्मकांड में प्रतिबद्धता ना दिखाएं तब तो अस्तित्व भी नकार दिया जाएगा।

बहुत छोटी सी बात है, हम एक स्वतंत्र और अकूत विविधता वाले देश के नागरिक हैं और अब जब ये सदी भी बालिग हो गई है, हमें अपने नियम-कानून समझने होंगे। ‘लेकिन’ जैसे शब्द पर विचार करके सहजता से समानता की बात करने का वक्त आ चुका है।

मंदिर है क्या इसपर बात कर सकते हैं, मसलन जिस पवित्रता के नाम पर हम स्त्रियों को ही कोसते हैं, धक्का देते हैं, पुरुषों के लिए क्या पैमाने है? पुरुष कैसे स्वयं पवित्र मानकर चलता है? यह कैसी व्यवस्था है, जो किसी भी जाति को नीचा बना देती है और उनके अधिकारों का हनन अपना कर्तव्य मान लेती है।

किसी भी सार्वजनिक जगह पर सभी के कर्तव्य और अधिकार बराबर माना जाना इतना तो कठिन नहीं है, यह बेहद मानवीय ज़रूरत है।

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नोट- मनीषा YKA की जनवरी-मार्च 2019 की इंटर्न हैं।

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