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शिक्षा की कमी के कारण आज भी झाड़ू-पोछा के लिए मजबूर हैं आदिवासी लड़कियां

आदिवासी लड़की

आदिवासी लड़की

देश की आज़ादी के बाद आदिवासी क्षेत्रों मे शिक्षा को लेकर कई प्रयास किए गए। अलग-अलग समय में कई योजनाओं के साथ-साथ कानून भी बनाए गए लेकिन आज भी आदिवासी क्षेत्रों मे आदिवासी लडकियों की शिक्षा का स्तर बहुत कम है।

आदिवासी लड़कियों में शिक्षा का स्तर उस रूप में नहीं हो पाया जैसा कि होना चाहिए था। आखिर किन कारणों से ‘सर्व शिक्षा अभियान’ और ‘शिक्षा का अधिकार’ जैसे कानून भी इस दिशा मे बेअसर साबित हुए।

‘सर्व शिक्षा अभियान’ के 18 वर्ष से भी ज़्यादा हो गए हैं। इस बीच 01 अप्रैल 2010 को बड़े ज़ोर-शोर से ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून लागू किया गया। इन सबके बीच आदिवासी लड़कियों की बात आते ही ऐसा लगता है कि ना तो ‘सर्व शिक्षा अभियान’ और ना ही कोई कानून उन लड़कियों के लिए मददगार साबिए हुए।

शिक्षा से दूर आदिवासी लड़कियां

शिक्षा का स्तर शायद वैसा ही है जैसा कि आज से 50 या 60 साल पहले था। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में 30-35 ऐसे गाँव हैं जहां आदिवासी लड़कियों मे शिक्षा ना के बराबर है। मध्य प्रदेश का उमरिया ज़िला एक आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है लेकिन अभी भी वहां आदिवासी लड़कियों तक शिक्षा नही पहुंची है।

आज हमारे देश में सुपर कंप्यूटर, बुलेट ट्रेन और आधुनिक संचार साधनों की कोई कमी नहीं है। यहां तक कि हमारा देश चांद से आगे मंगल ग्रह तक पहुंच गया है। देश के अंदर संभ्रांत परिवारों के बच्चे कंप्यूटर और नए-नए उपकरणों से खेलने हैं। ऐसे दौर मे हज़ारों आदिवासी लड़कियां शिक्षा की कमी के कारण दूसरे के घरों मे झाडू-पोछा करने को मजबूर हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार: गूगल फ्री इमेजेज़

ऐसा सोचकर थोड़ा दु:ख होता है और सोचने पर मजबूर भी करता है कि चूक कहां पर हुई है। मग्रीता सोरेन और संगीता जैसी झारखंड की आदिवासी लड़कियां जो 21वीं सदी में पैदा होने के बावजूद अनपढ़ हैं। अशिक्षित होने के कारण बड़े शहरो मे घरेलू कामगार के तौर पर काम करती हैं।

ऐसी बात भी नहीं है कि आदिवासी लड़कियों की शिक्षा के लिए सरकार या समाज कुछ नहीं कर रही है। हां, यह ज़रूर कह सकते हैं कि ज़मीनी स्तर पर काफी काम करने की ज़रूरत है।

देश की आज़ादी के समय नेहरू और गाँधी जैसे कई स्वतंत्रता सेनानियों को अहसास हो गया था आज़ादी के लिए और आज़ादी के बाद देश में ‘स्वराज’ एवं ‘लोकतंत्र’ को मज़बूत करने के लिए शिक्षा सबसे बेहतरीन हथियार साबित होगा।

इसलिए महात्मा गाँधी के कई शिष्यों ने देश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों और कमज़ोर तबकों के बीच शिक्षा के प्रसार के लिए शिक्षण संस्थानो का गठन किया।

अशोक आश्रम जैसे संस्थाओं की अनदेखी

गाँधी के ‘स्वराज’ की विचारधारा को स्थापित एवं  परिभाषित करने का प्रयास किया गया। देश की आज़ादी से पूर्व 1945 में ‘अशोक आश्रम’  की स्थापना हुई थी। इस आश्रम ने उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के सुदूर इलाके मे बहुत बेहतर कार्य किया था लेकिन देश की आज़ादी के बाद ‘अशोक आश्रम’  द्वारा चलाए जा रहे विद्यालयों को सरकार ने ले लिया। धीरे-धीरे यह आश्रम सिमट कर केवल एक ‘बालिका विद्यालय’ रह गया है।

फोटो साभार: Wikipedia

मामला सिर्फ एक संस्था या एक विद्यालय चलाने का नहीं है बल्कि यह सोचने और विचारने का है कि क्या कानून व्यक्ति के लिए बना है या व्यक्ति कानून के लिए बना है। ‘अशोक आश्रम’  की स्थापना तब हुई थी जब भारत का संविधान भी नहीं बना था लेकिन आज ‘सर्व शिक्षा अभियान’ और ‘शिक्षा का अधिकार’ दोनों ही कानूनों ने अशोक आश्रम जैसे संस्थाओं की अनदेखी की है।

सर्व शिक्षा अभियान से दूर आदिवासी लड़कियां

देहरादून के चौसारबाबर क्षेत्र की लड़कियों से लेकर असम, झारखंड और उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्रों की आदिवासी लड़कियों की हालत यह है कि वे लड़कियां शिक्षा के अभाव मे जीने के लिए मजबूर हैं। अगर सरकारी या गैर-सरकारी संगठनों द्वारा कुछ काम हो भी रहा है तब संसाधनों की कमी के कारण अपने निम्नतम स्तर पर पहुंच गया है।

आदिवासी क्षेत्रों मे आदिवासी लडकियों की समुचित शिक्षा में आ रही परेशानियों और उनके उपायों पर देश के शिक्षण संस्थाओं, सामाजिक संगठनों एवं सरकार के लिए गहन चिंतन करने का विषय है।

सर्व शिक्षा अभियान जैसे कार्यक्रम वाजपेयी सरकार द्वारा शुरू की गई थी। उस समय सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों विशेष कर आदिवासी क्षेत्रों की आदिवासी लडकियों को शिक्षित करने का लक्ष्य रखा था लेकिन आज भी आदिवासी लड़कियां सर्व शिक्षा अभियान के तहत लाभान्वित नहीं हो रही हैं जिसका नतीजा यह हुआ कि वे पूर्ण रूप से शिक्षित नहीं हो पाईं।

वर्ष 2011 के जनगणना के मुताबिक आदिवासी इलाकों में आदिवासी लड़कियों के शिक्षा के आंकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं जहां लगभग सात से अठारह साल की 21% आदिवासी लड़कियां निरक्षर पाई गई थीं। सवाल यह उठता है कि हर साल शिक्षा पर इतनी बड़ी रकम खर्च करने के बाद भी 21% आदिवासी लड़कियां निरक्षर क्यों रह गईं?

नोट: लेख में प्रयोग किए गए आंकड़े सर्व शिक्षा अभियान और शिक्षा का अधिकार हिन्दी विकिपीडिया से लिए गए हैं।

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