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भारत में क्यों ईवीएम का विकल्प नहीं हो सकता है बैलेट पेपर से चुनाव?

पिछले वर्षों में अनेक बार ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठ चुके हैं। वर्ष 2017 में पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद ईवीएम पर जंग में तेज़ी देखने को मिली। ईवीएम पर रार 2018 में भी जारी रही मगर वर्ष के अंत में विधानसभा चुनावों में कॉंग्रेस की जीत के बाद यह विवाद ठंडा पड़ गया।

EVM के स्थान पर बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग पूरी तरह से निराधार है। तकनीक धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है और कुछ लोग चुनाव आयोग से पुराने तरीके अपनाने की मांग कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल में अभी हाल ही में पंचायत चुनाव में बैलेट पेपर प्रयोग हुआ, क्या हुआ सभी जानते हैं। इसके पहले भी बैलेट पेपर से चुनाव में बूथ कैप्चरिंग की घटनाएं होती रही हैं। कुछ लोग यह तर्क दे रहे हैं कि कई विकसित देशों में चुनाव बैलेट पेपर से होते हैं।

इन तथ्यों से सभी वाकिफ होंगे कि भारत की जनसंख्या बहुत ज़्यादा है, अगर यहां चुनावों में बैलेट पेपर का इस्तेमाल होगा तो वोटों की गिनती में लंबा समय लगेगा ईवीएम की अपेक्षा। बैलेट पेपर से चुनाव इन्वार्मेंट फ्रेंडली नहीं होता है। बैलेट पेपर से चुनाव में अलोकतांत्रिक गतिविधियों ज़्यादा हो सकती हैं, जैसे बूथ कैप्चरिंग, फर्ज़ी वोटिंग।

शर्मनाक तो यह है कि इन सबको लेकर कुछ लोग चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर भी सवाल खड़े करते हैं। उनका आरोप यह है कि चुनाव आयोग केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रहा है। अगर चुनाव आयोग निष्पक्ष ना होता तो आज अहमद पटेल राज्यसभा सदस्य नहीं होते, पंजाब में कॉंग्रेस की सरकार नहीं बनती, उपचुनावों में भाजपा की हार ना होती, दिल्ली में आप की सरकार ना होती और बिहार में महागठबंधन ना जीतता। ईवीएम को हैक करने के भी आरोप लगे जबकि ईवीएम को हैक ही नहीं किया जा सकता।

यह बात सौ फीसदी सच है कि लोकतंत्र में निष्पक्ष चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए चुनावी प्रक्रियाओं की निष्पक्षता पर लोगों एवं राजनीतिक दलों का विश्वास बना रहना चाहिए लेकिन राजनीतिक दलों द्वारा सिर्फ चुनाव हारने पर ईवीएम की विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े करना अनुचित है।

2009 के लोकसभा चुनावों में कॉंग्रेस की जीत हुई थी तब कॉंग्रेस द्वारा ईवीएम पर सवाल नहीं उठाये गये मगर अब जबकि भाजपा सत्ता में है तब ईवीएम पर सवाल खड़े करना कहीं ना कहीं भारतीय चुनाव आयोग पर भी केंद्र सरकार से मिलीभगत का आरोप लगाता है।

ऐसा नहीं है कि ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल पहली बार उठाया गया है। 2009 लोकसभा चुनाव हारने के बाद भाजपा ने ईवीएम के खिलाफ व्यापक अभियान चलाया था। भाजपा की तरफ से किरीट सोमैया बकायदा एक आईटी विशेषज्ञ के साथ ईवीएम से छेड़छाड़ का डेमोंसट्रेशन देते थे। भाजपा नेता जीवीएल नरसिम्हा राव ने  “Democracy At Risk! Can We Trust Our Electronic Voting Machines?” नामक शीर्षक से पुस्तक भी लिखी थी।

दिल्ली विधानसभा में ईवीएम से छेड़छाड़ का डेमों आप विधायक सौरभ भारद्वाज द्वारा दिया गया जो कि पूरी तरह से बचकानी हरकत थी। खैर, आम आदमी पार्टी से उम्मीद भी क्या की जा सकती है?

किसी भी चुनाव में सैकड़ों की संख्या में ईवीएम मशीनों का प्रयोग किया जाता है, यदि उनमें से एक-दो प्रतिशत खराब हो जाती है तो पूरी पद्धति ही बदलना कहां तक उचित है। जिन बूथ पर ईवीएम खराब हो जाती है, वहां आयोग दोबारा चुनाव भी करा देता है। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि बैलेट पेपर से चुनाव कराने पर यह लोग आयोग की निष्पक्षता पर सवाल नहीं करेंगे। वैसे चुनाव हारने पर ईवीएम पर सवाल उठाने वालों पर यह कहावत सटीक है- नाच ना जाने, आंगन टेढ़ा।

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