Site icon Youth Ki Awaaz

“चुनाव प्रचार में स्थानीय जनप्रतिनिधि राष्ट्रीय नेताओं का सहारा क्यों लेते हैं?”

मोदी रैली

मोदी रैली

छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिजोरम, राजस्थान और तेलंगाना में हुए विधानसभा चुनावों में फिर से एक मैराथन रैलियों और जनसंपर्क अभियान का दौर चला जहां स्थानीय नेता दूसरी कतार में दिखाई पड़े। इस दौरान राष्ट्रीय नेताओं ने अपने नेतृत्व क्षमता का उम्दा प्रदर्शन किया।

सवाल यह उठता है कि क्या स्थानीय नेताओं की नेतृत्व क्षमता में कमी है या उन पर कोई शक है। सत्ताधारी और विपक्षी पार्टियों द्वारा एक रणनीतिगत तरीके से चुनाव प्रचार में कई रैलियों का आयोजन किया गया जिसमें काफी धन बल का उपयोग हुआ।

स्थानीय मुद्दों में राष्ट्रीय मुद्दों का गुम हो जाना और राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के बीच स्थानीय नेताओं का दूसरी कतार में दिखना आम हो गया है। नेताओं का जन समर्थन ही उनकी पूंजी है और वह पूंजी पार्टी के साथ नेताओं की स्वयं की होती है क्योंकि प्रतिनिधित्व करने की क्षमता व्यक्तित्व के साथ जुड़ा है ना कि पार्टी के साथ।

प्रचार-प्रसार का दौर

आज चुनाव के मायनों में प्रचार एक महत्वपूर्ण पक्ष बन गया है जिसमें स्थानीय नेताओं को राष्ट्रीय नेताओं के माध्यम से जन समर्थन लेने की होड़ सी मची रहती है। अपने क्षेत्र में नेतृत्व की कमी के कारण जनसमर्थन लेने में वे असहज महसूस करते हैं। ये वही नेता होते हैं जो विधानसभा में बैक बेंचर की भूमिका में रहते हैं।

राहुल गाँधी। फोटो साभार: Getty Images

मौजूदा वक्त में जनप्रतिनिधि उस उत्पाद की तरह हो गया है जिसके विज्ञापन के लिए बाज़ारों में एक चौथाई खर्च किया जाता है। लोकतंत्र में प्रचार जनसंपर्क का एक माध्यम है लेकिन चुनाव जीतने के लिए इसे एक मात्र माध्यम बनाया जा रहा है, जिसमें स्थानीय नेताओं के व्यक्तिगत पक्ष का मूल्यांकन और नेतृत्व क्षमता को कहीं ना कहीं पीछे छोड़ दिया जा रहा है।

लोकतंत्र के मंदिर कहे जाने वाले विधानसभाओं में स्थानीय नेताओं का प्रदर्शन काफी निम्न दर्जे का रहता है। जब वे जनता के सवाल वहां रखते हैं तब उनके चेहरे पर उदासीनता देखी जा सकती है।

चुनावों में धन बल का प्रयोग

आदमी ‘जन समर्थन’ और ‘नेतृत्व की क्षमता’ से नेता बनता है। वहीं, नेतृत्व पाने में जब सिर्फ पार्टी का सहारा लिया जाए तब स्थानीय नेताओं के नेतृत्व क्षमता पर सवाल खड़े होते हैं। इसके पीछे एक और तर्क दिया जाता है कि आज कल चुनाव मुद्दों से इतर पार्टियों के आपसी आलोचनाओं तक सीमित रहते हैं।

यही कारण है कि राष्ट्रीय पार्टियों द्वारा स्थानीय मुद्दों का ज़िक्र महज़ चुनावी जुमला बनकर रह जाता है। पंचायतों के चुनाव में ‘अशोक मेहता समिति’ ने राजनीतिक पार्टियों को शामिल करने की बात कही थी जिसे इस वजह से अलग रखा गया ताकि धन बल का प्रभाव ना पड़े।

योगी आदित्यनाथ और अमित शाह। फोटो साभार: Getty Images

वास्तविकता तो यह है कि कुछ को छोड़ देने पर अधिकतर जनप्रतिनिधि जन समर्थन प्राप्त करने के लिए धन बल के साथ राष्ट्रीय और बड़े नेताओं को अपने पाले में करने के लिए जद्दोजहद करते हैं। एक खोखला जनसमर्थन लोकतांत्रिक स्वरूप तो दे सकता है परंतु एक सशक्त लोकतंत्र एक अच्छा नेतृत्व ही लाएगा।

नोट: YKA यूज़र अमरजीत कुमार ‘वीर कुंबर सिंह विश्वविद्यालय’ में रिसर्च स्कॉलर हैं।

Exit mobile version