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“हम इंसानों ने इन रंगों को भी मज़हब की सीमा में बांध दिया है”

होली के रंग

होली के रंग

जहां तक मुझे याद है, पहले रंगों का ताल्लुक खुशी और तरह-तरह के जज़्बातों से होता था, वक्त आगे चलता रहा और रंगों का रिश्ता मज़हब से करवा दिया गया। साज़िश ऐसी रची गई कि रंगों का असली एहसास भूलवा कर झूठ पर यकीन करने पर मजबूर कर दिया गया।

एक वक्त था, जब केसरिया रंग यानि भगवा रंग वैराग्य के रंग के रूप में चुना गया था। आज़ादी के दीवानों ने इस रंग को उसी तौर पर अपनाया, जिससे आने वाले वक्त में मुल्क में नेता अपना फायदा छोड़कर मुल्क की तरक्की के लिए साधु की तरह वैराग्य अपना कर खुद को समर्पित कर दें। हरा रंग हरियाली (प्रकृति) और खुशहाली (संपन्नता) के लिए चुना गया था लेकिन आज इन रंगों को मज़हब के साथ बांध दिया गया है।

इन कुछ दिनों में घटी एक घटना का ज़िक्र यहां करना ज़रूरी है, क्योंकि इस घटना के असर से मैंने एक तंज़ (व्यंग) लिखा। राजधानी क्षेत्र में हमारे दोस्तों के ग्रुप में हर तरह के लोग हैं, जो  लगभग रोज़ाना हर तरह की घटनाओं पर चर्चा करते हैं, तो आज कल इस ग्रुप में “अरे फैज़ान नाम है तुम्हारा, मुसलमान हो? देशद्रोही हो तुम तो गुरु, हा हा हा,”, इस तरह का जुमला चलन में है।

यहां पर एक बात साफ कर रहा हूं, यह कहने वाले का इरादा इन अल्फाज़ों से मेल नहीं खाता, वह साफ दिल है, तो यह जुमला बनारसी अंदाज़ में कहा जाता है, इस घटना के आधार पर मैंने ये तंज़ लिखा है –

देखा कुछ ऐसा गया कि

इंसान के जैसी शक्ल वाले शैतान ने,

रंगों का मज़हब बताया,

तिलकधारी से कहा

कि यह लाली लिया रंग तेरा और

हरियाली जैसा रंग उस टोपी वाले का है,

बात यह फलसफ की जानकर,

एक अक्ल गवां देने वाले अक्लमंद ने,

घाट के किनारे बैठे कुछ अपने जैसों को बात यह बता दी,

बादल के साये की तरह हवा की तेज़ी के साथ,

कुछ ही वक्त में सारा बनारस यह बात जान गया,

शाम होते-होते चौरसिया पान वाले की दुकान पर,

पंडित काशीराम हरे रंग का पान चबाते हुए,

मुल्ला सलीम से बोले, क्या कहते हो मुल्ला जी

रंगों का धंधा अच्छा चलेगा?

मुल्ला सलीम तपाक से हां-हां कहते मुझे देखने लगे,

मैं मिट्टी के रंग के जैसी चाय,

हाथ में लिए मूर्ख जैसा बैठा सोच रहा था,

आखिर यह हरे रंग के पान चबाकर,

लाल रंग की पीक कैसे निकाल लेते हैं?

और अगर एक के होने से दूसरे का होना है तो

रंगों को छोड़कर पान के वजूद को क्यों नहीं कबूल कर लेते।

और आखिर में कहना चाहूंगा कि इस लेख की घटना को निजी तौर पर ना लें। यह बस मज़ाक था लेकिन जो व्यंग लिखा है, उसे ज़रूर समझने और समझाने की कोशिश करें।

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