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“काश कि मैं तुम्हें एक सेक्युलर हिंदुस्तान तोहफे में दे पाती”

अकबर और शांभवी सिंह

अकबर और शांभवी सिंह

अकबर, आज तुम्हारा जन्मदिन है। बहुत सोचा कि क्या तोहफा दूं तुम्हें, फिर लगा कि काश मैं तुम्हें एक ऐसा समाज तोहफे में दे पाती जो तुम्हारे धर्म पर ऊंगली नहीं उठता। एक ऐसा समाज देना चाहती हूं जो तुम्हें भी इस देश का हिस्सा मानता, एक ऐसा देश जो ईद को भी दिवाली की तरह मनाता लेकिन मैं डर के अलावा तुम्हें कुछ नहीं दे सकती।

फोटो साभार: फेसबुक

एक हिंदू होने के बाद भी इस देश में डरना थोड़ा हास्यास्पद है लेकिन मेरे अंदर का इंसान डर चुका है। भयभीत है कि कहीं उसका हिंदू होना उसके इंसानियत को मार देगा। मार देगा मेरे अंदर के ज़मीर को, क्योंकि जिस रफ्तार से नफरत फैलाई जा रही है हमारे अंदर सिर्फ धर्म बच जाएगा जो धीरे-धीरे हमारी हड्डियों तक को खोखला कर देगा। यह समाज वेंटिलेटर पर है, बस सांस ले रहा है, मर काफी पहले गया है।

सिक्किम में भ्रमण के दौरान। फोटो साभार: फेसबुक

मैं तुम्हें डर के अलावा कुछ नहीं दे सकती। डर कि तुम्हें हर जगह अपने भारतीय होने का प्रमाण देना होगा। लोग तुम्हें अपनी आँखों से हर जगह टटोलेंगे। तुम्हें हर आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान जाने की सलाह देंगे, डर इस बात का कि भारत-पाकिस्तान मैच के दौरान तिरछी आंखों से जानने की कोशिश कर रहे होंगे कि तुम किसको सपोर्ट कर रहे हो। डर कि तुम्हें अपने धर्म को पालन करने के लिए गद्दार कहा जाएगा। डर कि तुम एक मुसलमान के अलावा इस देश के लिए कुछ नहीं हो।

डर कि एक दिन तुम थक जाओगे। हार जाओगे अपने अतीत और अपनी अस्तित्व से लड़ते लड़ते। डर है कि तुम्हारे उठने, बैठने, खाने और कड़पे पहनने के ढंग से तुम कितने प्रतिशत भारतीय हो यह तय किया जाएगा। डर है कि इन सब चीज़ों से थक हार कर तुम्हारा इस देश से भरोसा उठ जाएगा।

यह तो था तुम्हारा डर। एक मेरा भी डर है जो मैं तुम्हें तोहफे में दे रहीं हूं। तुम मेरे बचपन के सबसे अजीज़ दोस्त हो, मुसलमान हो और मुझे बहुत डर लगता है। डर लगता है कि मैं तुम्हें कहीं इस हिंदू राष्ट्र के चक्कर में खो ना दूं।

डर है कि किसी शुक्रवार तुम नमाज़ अदा कर आ रहे होगे और कोई ‘भीड़’ तुम पर हमला कर दे। डर है कि मैं दिल्ली के किसी दफ्तर में बैठ कर असहाय महसूस करूंगी। डर है कि मैं भी उस भीड़ का एक अनचाहा हिस्सा हूंगी।

फोटो सभार: फेसबुक

डर है कि तुम होली-दिवाली पर घर आना छोड़ दो। डर है कि कहीं यह डर एक दिन हमारी दोस्ती को बेरंग कर देगा- फिर क्या होली, क्या दिवाली और क्या ईद। डर है कि एक दिन मैं तुम्हारे लिए बस हिंदू रह जाऊंगी, दोस्त नहीं।  

माफ करना दोस्त, अभी फिलहाल डर दे रही हूं तोहफे में। थोड़ा भारी है यह तोहफा क्योंकि इसमें मेरे और तुम्हारे – दोनों के हिस्से का डर है।

जन्मदिन मुबारक

तुम्हारी दोस्त,

शांभवी

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