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डायनासोर की तरह ही मानव जीवन भी विलुप्त तो नहीं होने वाला?

हम जब पृथ्वी पर जीवन उत्पत्ति के विषय में विचार करते हैं, तो कई सारे सवाल हमारे सामने आते हैं, जैसे-पृथ्वी का निर्माण कैसे हुआ? यहां पानी कहां से आया? हवा कहां से आई? पहले-पहल जीवन कैसे उपजा? आदि बातें।

इस बात की संभावना है कि हमारी पृथ्वी व सौरमण्डल के अन्य ग्रहों का विकास भी सूर्य से टूटकर बिखरें उसके कुछ हिस्से से ही हुआ हो। (जैसा कि कयास लगाया जाता है) जो धूल के बादल व छोटी-छोटी चट्टानों के मिलने से ग्रहों के रूप में बदल गये।

पृथ्वी में पानी का तरल अवस्था में प्राप्त होना (पृथ्वी की सूर्य से उचित दूरी पर स्थित होने के कारण) ज़रा भी अस्वाभाविक नहीं जान पड़ता। क्योंकि ‘गोल्डीलॉक्स ज़ोन’ जिस क्षेत्र में पृथ्वी स्थित है, में होने पर किसी ग्रह की दूरी उसके तारे से ना तो ज़्यादा दूर व ना ही ज़्यादा नज़दीक होती है। ऐसे गोल्डीलॉक्स ज़ोन में पड़ने वाले ग्रहों में जल के तरल अवस्था में होने की सम्भावना बहुत अधिक होती है।

परन्तु पृथ्वी पर पानी आया कहां से?

फोटो सोर्स- Pexels

श्री प्रणय लाल अपनी पुस्तक ‘इण्डिका-अ डीप नैचरूल हिस्ट्री ऑफ इण्डियन सबकॉन्टिनैण्ट’ में लिखते हैं,

पृथ्वी के शुरुआती समय में यहां उल्का पिण्डों व धूमकेतुओं की वर्षा लगातार कई सदियों तक हुई। इस बात की बहुत संभावना है कि पृथ्वी पर पानी इन्हीं उल्का पिण्डों व धूमकेतुओं के माध्यम से यहां पहुंचा हो।

सौर मण्डल के ग्रहों के विकास के साथ ही बहुत से उल्का पिण्ड बड़े ग्रहों बृहस्पति और शनि द्वारा अपने में खींच लिये गये और जो नहीं खीचें जा सके वे मंगल व बृहस्पति के बीच ऐस्टोरॉयड मेखला के रूप में बच गए।

जैसे कि हमेशा से कहा जाता रहा है कि पानी जीवन के लिए महत्वपूर्ण है, इसलिए जीवन की, पानी में उत्पत्ति की अवधारणा बहुत सटीक बैठती है। ‘वन स्ट्रेंज रॉक’ नामक नेशनल जियोग्राफी के एक कार्यक्रम में पृथ्वी पर जीवन उत्पति व विकास का एक काल्पनिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है। यह सीरीज़ वाकई में देखने योग्य है।

पृथ्वी में जीवन कहां से आया?

पानी के साथ ही एक ज़रूरी चीज़ और है और वह है पृथ्वी को अपने तारे से प्राप्त होने वाली ऊर्जा, जिससे इस ग्रह में जीवन की संभावना पैदा होती है, जो कि पृथ्वी के लिये एक मात्र ऊर्जा का स्त्रोत है।

परन्तु ऐसा नहीं है कि हमारे सौर मंडल का तारा हमें केवल ऊर्जा ही प्रदान करने के लिए बना है। अपितु वह तो एक संहारक है व एक दैत्य की तरह आए दिन पृथ्वी की ओर उसे जलाने वाले सौर झंझावत भेजता रहता है। यदि पृथ्वी के पास उसके स्वंय के सुरक्षा कवच-चुम्बकीय क्षेत्र व ओज़ोन परत नहीं होते तो पृथ्वी पर जीवन की संभावना कभी नहीं की जा सकती थी।

वैसे तो जीवन उत्पत्ति से जुड़ी कई अवधारणाएं हमारे पास वर्तमान में मौजूद हैं, जिनमें से एक अवधारणा यह कहती है कि जीवन इस ग्रह की उपज नहीं है। अपितु यह किसी पिण्ड में कहीं बाहर से यहां पहुंचा है और अनुकूल वातावरण होने पर यहां पर इसका विकास संभव हो पाया। जीवन उत्पत्ति की इस अवधारणा को पेंसपर्मिया कहा जाता है। (देखिये पेज न॰ 204 ‘द ऑर्जिन ऑफ लाईफ़’, पॉल डेविस द्वारा रचित)

यदि ऐसा संभव है तो फिर हम स्वंय में ही परिग्रही हुए व ऐसे हमें अपने पूर्वजों को ढूंढना और आसान होगा। इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

एक दूसरी अवधारणा यह कहती है कि पृथ्वी पर जीवन और कहीं से नहीं, अपितु यहीं संयोगमात्र से उत्पन्न हुआ है। ऐसा माना जाता है कि तारों की मृत्यु के दौरान बनने वाले महत्वपूर्ण तत्वों के अवशेषों व पृथ्वी के अनुकूल वातावरण ने जीवन के निर्माण को संभव किया है। अंतरिक्ष वैज्ञानिक मानते हैं कि हमारा विकास उसी धूल से हुआ है जो तारों की मृत्यु के बाद बच गई थी।

आधुनिक डीएनए जांचों ने यह साबित कर दिया है कि अनुमानत: आज से करीब 80 से 50 लाख वर्ष पूर्व इस धरती पर मानव के पूर्वज घूमा करते थे। मानव के ये पूर्वज वनमानुष के उस समूह से अलग होकर बने जिनसे आज के बन्दर, ऑरन्गुटान व वनमानुष विकसित हुए हैं। यह कहना बिल्कुल भी सही नहीं होगा कि हम लोग बन्दरों की संताने हैं या बन्दर हमारे पूर्वज रहें। अपितु मानव व वर्तमान वानर परिवार एक ही पूर्वज की विरासत को साझा करते हैं व हम इस पिण्ड पर वानरों की एक उन्नत नस्ल से अधिक कुछ भी नहीं है।

पृथ्वी के सारे संसाधनों पर आज इसका ही कब्ज़ा है व इस धरती पर ऐसा कोई स्थान नहीं बचा, जहां आज मानव की पहुंच ना हो। इससे भी अधिक आज हम इस सौर मण्डल की इकलौता ऐसी प्रजाति हैं जो ब्रह्माण्ड में चहल-कदमी कर रही है।

मिचियो काकु, न्यूयॉर्क सिटी यूनिर्वसिटी के प्रोफेसर व एक जाने-माने साइन्टिस्ट अपने एक इंटरव्यू में कहते हैं कि कई करोड़ साल पहले डायनासोर की प्रजातियों ने भी इस धरती पर अपना ऐसा ही प्रभुत्व जमाया था परन्तु उनके पास, कोई बच निकलने की कार्य योजना ना होने के चलते उन्हें इस धरती पर प्रलय का सामना करना पड़ा व उनका नामों-निशान ही मिट गया। मानव को भी इस ग्रह से निकलने के लिये अपना एस्केप प्लान तैयार रखना चाहिये।

इस सदी के अंत तक अंतरिक्ष में कोई अन्य ग्रह हमें अपने निवास हेतु ढूंढ लेना चाहिये। यदि हम ऐसा करने में सक्षम नहीं हो पाते हैं, तो कहीं ऐसा ना हो कि हमारा भविष्य भी डायनासोर की तरह विलुप्ति हो जाए।

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