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“मेरे मित्र को लगा मैं चमार हूं, इसलिए मुझे गंदी ग्लास में चाय दी गई”

चाय की ग्लास

चाय की ग्लास

हिन्दुस्तान में अलग-अलग धर्म व संप्रदाय के लोग विभिन्न इलाकों में अपनी परंपराओं के रंग बिखेरते हुए ज़िन्दगी की हसीन राहों पर सफर तय किए जा रहे हैं। भले ही इनके मज़हब अलग हैं, लेकिन त्यौहारों के मौसम में अलग-अलग समुदाय के लोगों को एक दूसरे के रिवाज़ों को देखने और समझने का अवसर प्राप्त होता है।

कई मौके ऐसे भी आते हैं जब हिन्दुस्तान की परंपराएं और यहां की खूबसूरती के बीच जातिवाद हावी हो जाता है। वहीं पुरानी घिसी-पिटी बातें सामने आती हैं कि यदि कोई व्यक्ति छोटी जाति से है, तो उसे ब्राह्मण के घर चौखट लांघने की इजाज़त नहीं होती है वगैरह-वगैरह। कुछ ऐसा ही वाक्या अभी हाल ही में मेरे साथ घटित हुआ जिसे बताने से पहले मैं राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी की कविता की एक पंक्ति पढ़ना चाहूंगा।

ऊंच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,

दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।

क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग

सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।

हालांकि इन दिनों देशभर में जाति के आधार पर हो रहे भेदभाव के बीच दिनकर की इस पंक्ति की सार्थकता नहीं दिख रही है। मेरे हालिया अनुभव ने खासतौर पर इस बात को और बल दे दिया है। अभी हाल ही में एक मित्र के साथ मैं उसके ऑफिस की एक कलीग के घर गया था।

वैसे उनकी फैमिली वालों या वाणी से मैं उतना फ्रैंक नहीं था तो इस लिहाज़ से भी मैं उनके घर के बाहर ही खड़ा था और मेरा मित्र अंदर प्रवेश कर चुका था। मैं उनके घर के बाहर इंतज़ार कर ही रहा था कि इतने में मेरे मित्र की कलीग वाणी मंडल के पति बाहर आकर मुझसे अंदर आने को कहते हैं।

मुझे आभास हुआ कि अंदर रसोई घर में चाय बन रही थी, तभी वाणी आकर मुझसे पूछती है कि आप चाय लेंगे? वैसे भी चाय का बहुत आशिक हूं। मेरा मानना है कि यदि हम चुस्कियां लेकर मज़े से चाय पीएं तब ज़िन्दगी को और करीब से देखने का मज़ा ही कुछ और होता है।

खैर, चाय बन चुकी थी और एक ट्रे में तीन चाय लेकर वाणी उस कमरे में आती हैं जहां हम बैठे थे। जिसमें से दो चाय ‘कप’ में और एक ‘कांच की गंदी सी ग्लास’ में थी और वह चाय की ग्लास मुझे ही दी गई। जो अन्य दो कप थे उनमें वाणी और मेरा मित्र चाय पी रहा था।

सच बताऊं तो पहले कभी इन चीज़ों से मेरा वास्ता पड़ा नहीं, तो इसलिए एक दफा दिमाग में स्ट्राइक किया भी कि ऐसा क्यों? पर मैं कांच की ग्लास में मुझे चाय देने वाली बात को भूल जाना चाहता था। कुछ पल में हम लोगों की बातें खत्म हुईं और हम वहां से निकल पड़े।

मैं रात को अपने मित्र को फोन लगाया और कहा कि ज़रा पूछिएगा आप अपने कलीग से कि मुझे कांच की ग्लास में क्यों चाय दी गई और उसने ये बात वाणी से पूछ ली।

वाणी का जो जवाब था उसे सुनकर मैं न सिर्फ हैरान रह गया बल्कि इस देश में जाति के आधार पर हो रहे भेदभाव और नफरत को इतने करीब से देखकर काफी दुखी भी हुआ।

मेरी परवरिश एक ऐसे माहौल में हुई है जहां ब्राह्मण होते हुए भी मुझे कभी यह संस्कार नहीं दिए गए कि ‘छोटी’ जाति वाले लोगों के यहां पानी नहीं पीनी है या उनके घर आने पर उनका सत्कार नहीं करना है।

मैं हमेशा से ही ग्रामीण इलाकों में सभी जाति के घर जाकर भोजन करता रहता हूं, बड़ा आनंद आता है। लेकिन वाणी ने जो बातें जातिवाद को लेकर मेरे संदर्भ में कही, वो बेहद ही चौंकाने वाली हैं।

मेरे मित्र ने मुझे बताया कि वाणी कह रही थी,

हां मैंने जान बुझकर प्रिंस को कांच की ग्लास में चाय दी थी, क्योंकि मुझे पता है वो चमार है। इतना काला आदमी चमार ही हो सकता है। मैंने वो कांच की ग्लास अपने घर में इसलिए ही रखी है ताकि जब भी कोई चमार या शेड्यूल ट्राइब मेरे यहां आएं तब मैं उन्हें उसी ग्लास में चाय दे सकूं।

हालांकि मेरे मित्र ने उसे कई दफा कहा कि मैं प्रिंस के बारे में सब कुछ जानता हूं कि वह ब्राह्मण है, लेकिन वाणी मानने को तौयार ही नहीं थी।

ये सारी बातें सुनने के बाद मैं काफी दुखी तो हुआ ही मगर दलितों के साथ इस देश में हो रहे भेदभाव को पहली दफा महसूस करके उनके बोझिल कंधों की तकलीफों को समझ भी पाया। ये जान पाया कि जब कोई दलित किसी तथाकथित फॉरवर्ड कास्ट के घर जाता है और उसके साथ ऐसा सुलूक होता है, तब उनपर न जानें क्या गुज़रती होगी।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत देश धीरे-धीरे ही सही मगर तरक्की की राह पर आगे बढ़ रहा है, मगर जाति और धर्म के आधार पर देश को दो भागों में बांटने की बातें करने वाले कुछ लोग तरक्की की इस रफ्तार को धीमी कर देते हैं।

इस देश में वाणी जैसी महिलाएं और पुरूषों की अपार संख्या है जो आज भी जाति के आधार पर भेदभाव करते हैं। ये वो लोग होते हैं जो ज़िन्दगी और मौत के बीच जूझते वक्त ये नहीं देखते कि खून देने वाला व्यक्ति दलित है या कोई ब्राह्मण। तब इनके ज़हन में कांच की ग्लास में दलितों को चाय पिलाने वाली फीलिंग हिलोरे नहीं मारती है।

सिर्फ एक समुदाय के लोगों को लेकर देश महान नहीं बन सकता, जाति-धर्म और संप्रदाय की दीवारों को तोड़कर इस देश को तरक्की की राह पर आगे बढ़ाने का संकल्प सभी को मिलकर लेना होगा।

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